राजनीति विश्ववार्ता

जापान और NATO की बढ़ती साझेदारी एशियाई सुरक्षा संतुलन के लिए नुक्सानदायक

अप्रत्याशित कदम

एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में, NATO द्वारा जापान में ‘संपर्क कार्यालय’ खोलने के संकेत दिए गए हैं। यदि ऐसा होता है तो यह यूरोपीय सीमा से परे NATO की पहली औपचारिक आउटरीच होगी। NATO ने एशिया के विभिन्न थिएटरों में सक्रिय सैन्य अभियान चलाए हैं, चाहे वह इराक युद्ध, मध्य-पूर्व संघर्ष और नवीनतम अफगान युद्ध हो। NATO के एशियाई सैन्य हस्तछेपों ने इसके यूरोपीय अभियानों को पीछे छोड़ दिया है। NATO ने 1992 में यूगोस्लाविया की नौसैनिक नाकाबंदी के रूप में सीमित हस्तक्षेप से शुरुआत की थी और फिर 1999 में बोस्निया और कोसोवो शांति मिशन पर नो-फ्लाई ज़ोन स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभाई।

4 अप्रैल 1949 को 12 देशों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक विशिष्ट संधि के साथ गठित, NATO ने लगातार अपने प्रभाव का विस्तार किया है। अब तक नौ विस्तारों और फिनलैंड के नवीनतम प्रवेश के बाद इसकी सदस्यता मूल संरचना के लगभग तीन गुना बढ़ गई है। इसके परे और भी देश जैसे स्वीडन, बोस्निया एवं हर्जेगोविना, जॉर्जिया और यूक्रेन भी हैं जो NATO की सदस्यता की चाह रखते हैं।

एशिया में NATO की रुचि नई नहीं है, इसका पहले से ही इजरायल और उत्तरी अफ्रीका के साथ ‘भूमध्यसागरीय संवाद’ के माध्यम से औपचारिक परामर्श तंत्र है, इसके अलावा NATO का एक व्यक्तिगत सहयोग कार्यक्रम (आई0सी0पी0) इज़राइल, मिस्र और जॉर्डन के साथ भी है। इसने 1990 में जापान के साथ राजनीतिक परामर्श शुरू किया और 2018 में कतर के साथ एक सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए।

नई बात यह है कि NATO एशिया प्रशांत, जो सत्ता संघर्ष का एक उभरता हुआ रंगमंच है, उस पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है, जबकि यह अभी भी पड़ोस में एक बड़े संघर्ष से उलझा हुआ है। जापान में प्रस्तावित ‘संपर्क कार्यालय’ इसी के अगले कदम के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि इसका दायरा अभी भी अस्पष्ट है। लेकिन निश्चित रूप से इसके परिणामस्वरूप भू-राजनीतिक अशांति होने की संभावना है!

नाजुक सुरक्षा

एशिया पहले से ही एक बहुत ही जटिल भू-राजनीतिक वातावरण देख रहा है, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और पूर्वी एशिया के अधिकांश राष्ट्र या तो सक्रिय संघर्षों में उलझे हुए हैं या बेहद नाजुक शांति बनाए रख रहे हैं। पश्चिम एशिया लंबे समय से बल प्रक्षेपण का एक परीक्षण स्थल रहा है, जहाँ छेत्रिये ताकतों की आकांक्षाएं उनकी तथ्यात्मक प्रासंगिकता से कहीं अधिक हैं। इस सब का परिणाम इस क्षेत्र के लिए अत्यधिक हानिकारक रहा है।

एशिया में प्रवेश के लिए NATO का नवीनतम प्रयास और भी अधिक जटिलताओं से भरा है। जापानी धरती पर NATO के होने से कुछ तात्कालिक सुरक्षा परिणाम होंगे – अमेरिका निर्विवाद रूप से NATO को अपनी भूमिका और दायरे को बढ़ाने के लिए खींचेगा, वहीँ जापान क्षमताओं में किसी भी वास्तविक वृद्धि के बिना, वर्तमान विवादों के लिए अपनी राजनीतिक और राजनयिक प्रतिक्रिया में और अधिक आत्मविश्वास दिखाने की कोशिश करेगा, चीन को अमेरिका के नेतृत्व में अपने खिलाफ ‘एक्सिस ऑफ़ एविल’ कहने का स्पष्ट मौका मिलेगा।

ये घटनाक्रम चीन को एशिया में खुद को एक पीड़ित के रूप में पेश करने का अवसर देगा। यह निश्चित रूप से रूस को भी NATO के एजेंडे का संकेत देगा जो इस वक़्त अपने दक्षिण पूर्व में  जापान के साथ सीमा विवाद में उलझा हुआ है। जापान में मौजूदगी से NATO रूस के पूर्वी छोर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करेगा। NATO ये दावा कर सकता है कि वह अपने चार्टर के अनुच्छेद 10 से बंधा हुआ है, जो स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है कि NATO सदस्यता विशेष रूप से यूरोपीय देशों के लिए है और यह ‘ट्रोपिक ऑफ़ कैंसर’ के उत्तर में ऑपरेशन के दायरे में है।

यह जापान को एक अभिन्न NATO सहयोगी के रूप में एक स्पष्ट गैर-स्टार्टर बनाता है। लेकिन क्या होगा अगर NATO की संपत्ति पर हमला होता है, तो क्या NATO को सैन्य प्रतिक्रिया के लिए बहाना नहीं मिलेगा? जहां तक ‘ट्रोपिक ऑफ़ कैंसर’ के उत्तर में इसके संचालन को प्रतिबंधित करने वाले चार्टर दायित्वों का सवाल है, हम पहले ही अफगान ऑपरेशन और इसमें NATO की पूर्ण भागीदारी देख चुके हैं।

कीव में जापान के प्रधान मंत्री किशिदा की हालिया यात्रा ने टोक्यो में इस विचार को और मजबूती दी है, कि सभी साधन होने के बावजूद NATO यूक्रेन युद्ध  में  प्रवेश  नहीं  कर  पा रहा, क्योंकि दूसरी तरफ एक महान शक्ति संघर्ष का हिस्सा है। ऐसा लगता है कि जापान ने चीन द्वारा हस्तक्षेप न करने की गारंटी के रूप में अमेरिका को अपनी धरती पर रखने और अब एक अतिरिक्त बीमा के रूप में NATO की उपस्थिति के समीकरण को बनाना चाहता है।

जहाँ NATO के पिछले विस्तार यूरोप के आंतरिक मामले थें, वर्तमान एशियाई आउटरीच एक पूरी तरह से अलग बात है। यह विकास तीन विशिष्ट प्रश्न उठाता है; सबसे पहले, NATO एशिया में उपस्थिति क्यों चाहता है? दूसरा, NATO जापान की मेजबानी में क्या नेतृत्व करेगा? तीसरा, क्षेत्र में पहले से ही नाजुक शक्ति संतुलन को यह कैसे प्रभावित करेगा?

संदिग्ध प्रयास

NATO के राजनीतिक और सैन्य हस्तक्षेप ने अब तक इसे सीमित सफलता दी है। एशिया में इसका संचालन ज्यादातर संयुक्त राष्ट्र के जनादेश के तहत हुआ है। लेकिन भारी बाधाओं के बावजूद हस्तक्षेप करने का विकल्प यह रेखांकित करता है कि राजनीतिक विचारों ने ठोस सैन्य तर्कों पर भरी पड़ा है।

अफगानिस्तान से NATO की हालिया वापसी जितनी शर्मिंदगी की बात थी, उतनी ही अपमानजनक भी थी। इसने अनजाने में साबित कर दिया कि NATO ने मैदान में उतरते समय केवल संयुक्त राज्य अमेरिका का समर्थन किया है। NATO अपने दम पर इतने बड़े संचालन को बनाए रखने के लिए स्पष्ट रूप से असक्छम था। अमेरिका द्वारा अपनी ओर से तय की गई वापसी की समयसीमा के प्रति दिखाई गई तत्परता ने NATO की साख को धूमिल कर दिया।

NATO ने खुद को यूरोप में रूस के लिए एक प्रभावी काउंटर के रूप में माना था। लेकिन यूक्रेन पर हमले ने इस धरना को भी पूरी तरह नकार दिया। सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि NATO ने यूक्रेन के सवाल पर सीधे टकराव की संभावना के लिए कभी स्पष्ट इरादा प्रदर्शित नहीं किया। युद्ध में यह क्षमता है जो इरादे को आकार देती है और यह इरादा है जो कार्यों को परिभाषित करता है। NATO तीन प्रमुख मोर्चों पर विफल रहा – अपनी निर्णायकता, स्पष्ट प्रतिक्रिया और विरोधी का आकलन। यह NATO और अन्य महान शक्तियों के बीच एक स्पष्ट अंतर है, जबकि प्रमुख शक्तियां अपनी सैन्य प्रतिक्रियाओं को प्राथमिकता देती हैं, NATO न्यूनतम सहमत स्ट्रेटेजी पर कार्य करता है और दुर्भाग्य से NATO के लिए इसे बदला नहीं जा सकता।

भूराजनीतिक मंथन

एशिया इस समय गंभीर भू-राजनीतिक मंथन से गुजर रहा है। नई सदी में चीन का तेजी से उदय, हिंद-प्रशांत के प्रति अमेरिका की रणनीतिक स्थिति में बदलाव, क्षेत्र और वैश्विक शासन के मामले में भारत का लगातार विकास, जापान का अपने सदियों पुराने सुरक्षा दृष्टिकोण को त्याग देना और, उत्तर कोरिया का अपने सैन्य उद्देश्यों के साथ तेजी से आगे बढ़ना।

आज हिंद-प्रशांत और चीन के आस पास के छेत्र में चुनौतियां वास्तव में बहुत गंभीर हैं। यहां तक कि चीन द्वारा एकतरफा सैन्य और आर्थिक दादागिरी कई एशियाई देशों के लिए गंभीर असंतोष का विषय बना हुआ है। अब पहले से ही जटिल सुरक्षा वातावरण में एक नए पावर ब्लॉक का कदम रखना एक चिंतामई विचार है। अमेरिका को यहां सतर्क भूमिका निभाने की जरूरत है, शायद पेंटागन को लगता है कि सख्त जरूरतों के समय एक दोस्ताना सैन्य गठबंधन बहुत मददगार होगा और जापान सुनिश्चित सुरक्षा गारंटी के लिए NATO के आगमन को बढ़ावा दे रहा है, लेकिन इसका समग्र प्रभाव क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रतीत होता है।

यदि अमेरिका इस विकल्प को चुनता है, तो इसके परिणामस्वरूप कई नई दरारें पैदा होंगी। जो समान विचारधारा वाले देशों और उसके मूल्यवान भागीदारों द्वारा संयुक्त रूप से किए गए विभिन्न अन्य सार्थक उपायों के लिए प्रतिकूल होंगी। एशिया की धुरी बनने की NATO की घोषित इच्छा की दिशा में किसी भी कदम की जांच भारत सहित क्षेत्र के प्रमुख भागीदारों के साथ गहन विचार-विमर्श के माध्यम से इसकी सुरक्षा और राजनीतिक व्यवहार्यता के लिए की जानी चाहिए। यह संवेदनशील मुद्दा सामरिक लाभ की जगह NATO और उसके मित्र भागीदारों को अंततः अधिक रणनीतिक नुकसान पहुंचा सकता है!

रवि श्रीवास्तव