समाज

ईंट भट्ठों की तपिश में मजबूर होते मजदूर

उत्तर भारत(खासकर) बिहार और उत्तर प्रदेश में ग्रामीण इलाक़ों का दायरा काफ़ी विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। इन क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी कंपनियों तथा कारखानों का अभाव बना रहता है। ऐसे में कुछ पूंजीपति लोगों द्वारा छोटे-मोटे कारखाने या फिर निजी व्यवसाय ही वहाँ के मजदूरों के लिए जीविका का साधन होता है।  इस क्रम में एक व्यवसाय जिसके लिए काफ़ी संख्या में मजदूरों और कारीगरों की आवश्यकता होती है वह है ईंट भट्टा । हालाँकि इस व्यवसाय ले लिए साल के चार-पाँच महिनों को ही उपयुक्त माना गया है जिस दौरान बारिश की संभावना बिल्कुल भी नहीं होती है। चूँकि मुख्य तौर पर साल के कुछ ही महीनों तक चलने वाला यह व्यवसाय ग्रामीण सारे मजदूरों के लिए उपयुक्त नहीं हो पाता है इसलिये उनमें से कुछ गाँव छोड़कर बाहर शहरों या फिर दूसरे राज्यों में पलायन कर जाते हैं।

अक्सर देखा यह जाता है कि इन ईंट भट्ठों में काम करने के लिये झारखंड या किसी दूसरे राज्यों से मजदूरों को लाया जाता है।

इन मजदूरों को लाने के क्रम में ईंट भट्टा मालिकों के बीच हमेशा नौ और छौ का आकड़ा रहता है। मजदूरों को अधिक पैसों की लालच देकर हर एक भट्टा मलिक अपनी दाल गलाने में लगे रहते हैं।

चूँकि मैं ग्रामीण इलाक़े से हूँ और मैने इस तरह के कारनामे होते हुए देखा है। दरअसल, बाहर के राज्यों से आये मजदूरों के साथ सबसे बड़ी समस्या उनकी भाषा को लेकर होती है। इस क्रम में कई बार ऐसे मुसीबत खडी हो जाती हैं जिससे वहाँ के ग्रामीण मजदूरों और इनके बीच मारपीट की नौबत आ जाती है। ईंट भट्ठों पर कम करने के लिए लाए गये दूसरे राज्यों से मजदूरों में ऐसे कई सारे होते हैं जो या तो कम उम्र के होते है या फिर उन्हे बंधुआ बनाकर काम लिया जाता है।

बंधुआ मज़दूरी को लेकर पिछले कई सालों से हाईकोर्ट और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस दिशा में कार्य कर रही है। इस क्रम में हाल ही में उत्तर प्रदेश व पड़ोसी राज्यों के जिलों से काफ़ी संख्या में बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया है। ये सारे ईंट भट्ठों  पर काम करते थे ।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे ज़्यादा है और वहीं से करीब 1000 बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया है।

ऐसा देखा गया है कि देश में चल रहे ईंट भट्ठों में मजदूरों के लिए मज़दूरी का कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जा रहा है और साथ ही मजदूरों को मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। इस क्रम में मैं आपको यह भी बता दूँ कि ये वो मजदूर हैं जो किसी दूसरे राज्यों से परिवार सहित लाए जाते हैं। शुरू-शुरू में पैसों की लालच में फंसकर बाद में इनको मजबूर किया जाता है। एक डेटा के मुताबिक उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के 180 में से मात्र 111 ने ही प्रदूषण विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र लिया हुआ है। ईंट पकाई के दौरान दिए जाने वाले शुल्क सभी राज्यों के लिए अलग-अलग तय है। उत्तर प्रदेश सरकार के अधिसूचित पकाई दर 202 रुपया प्रति हज़ार( जिसमे ठेकेदार का कमीशन लगभग 14 रुपया शामिल है) की बजाय आपसी समझौते के आधात पर 221 रुपया प्रति हज़ार मज़दूरी दिलाने की बात बताते हैं जबकि  कमीशन इसमे अलग है।

ऐसे में एक बात को सामने आती है वह यह है कि कुछ जगहों पर बंधुआ घोषित करने के पीछे  अफ़सर रैकेट संचालन  की भी बात से मुकरा नहीं जा सकता है।

ऐसे में आवश्यकता है कि ईंट भट्ठो  के क्रियाकलापों व मजदूरों की मज़दूरी का लेखा-जोखा तैयार किया जाए। साथ ही  ईंट भट्ठो पर बुनियादी  सुविधाएँ मुहैया करवाने के लिए ठोस उपायों की ज़रूरत है और यह तभी संभव है जब श्रम विभाग गंभीरता से इन चीज़ों पर विचार करेगी।