धर्म-अध्यात्म विश्ववार्ता

पशु बलि विरोधियों का पाखंड

nepalइन दिनों दक्षिण नेपाल के बाराह जिले में स्थित गढ़ीमाई मंदिर में मेला लगा है। यह मेला प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष मास (नवम्बर-दिसम्बर) में होता है। इस बार यह 17 नवम्बर को शुरू हुआ है, और 16 दिसम्बर तक चलेगा। एक अनुमान के अनुसार भारत और नेपाल से 40 लाख लोग इसमें भाग लेंगे। नेपाल में परम्परागत रूप से भैंसे की बलि दी जाती है। कुछ पशुप्रेमियों के अनुसार मेले में हजारों भैसों की बलि दी जाएगी। वे इस आधार पर इसका विरोध कर रहे हैं। उनका यह प्रयास निःसंदेह समर्थन योग्य है। शक्ति की देवी गढ़ीमाई का यह मंदिर 500 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। मुस्लिम हमलावरों ने इसे भी तोड़ा था, पर बाद में श्रध्दालुओं ने इसे पहले से भी अधिक भव्य बना लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि पहले से भी अधिक श्रध्दालु यहां दर्शन हेतु आने लगे। इसकी मान्यता इतनी अधिक है कि पहले ही दिन नेपाल के स्वास्थ्य मंत्री उमाकांत चौधरी भी पूजा में शामिल हुए। बड़ी संख्या में नेपाल शासन के प्रभावी लोग इस मेले में आकर पशुबलि देते हैं।

हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में एक शाक्त सम्प्रदाय भी है, जो शक्ति का पुजारी है। शक्ति की प्रतीक देवी के हाथ में अस्त्र-शस्त्र होते हैं। वह रक्तपान करती है। भारत में देवी के हजारों मंदिर हैं, जिनमें असम का कामाख्या देवी मंदिर अति प्रसिद्ध है। शक्ति के पुजारी होने के नाते ये लोग मांसाहार करते हैं, जिसका स्वाभाविक स्रोत पशु है। पशु-बलि के बाद उसका मस्तक देवी को चढ़ा देते हैं तथा शेष को पकाकर सब प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इन मंदिरों की एक विशेषता यह भी है कि यहां क्षत्रिय पुजारी ही होते हैं। यद्यपि अब कई क्षत्रियों ने यह पूजा ब्राह्मणों को सौंप दी है। ऐसे विभिन्न मंदिरों में बलि की अलग-अलग प्रथाएं हैं। कबूतर और मुर्गे से लेकर बकरे और भैंसे तक की बलि यहां दी जाती है। पशुबलि की यह प्रथा कब और कैसे प्रारम्भ हुई, कहना कठिन है, पर एक समय जब देश में बौध्दों की अहिंसा ने कायरता का रूप ले लिया, तब हिन्दुओं में क्षात्रतेज के विकास के लिए धर्माचार्यों ने ही इसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। यह क्षात्रतेज मुस्लिम हमलावरों से देश की रक्षा करने में भी सहायक हुआ। गुरू गोविन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करते समय पांच बकरों को काटकर पंचप्यारों को सजाया था। इसके पीछे का भाव यही था धर्मभीरू हिन्दू लड़ते समय खून देखकर घबरा न जाएं। देश विभाजन के समय अनेक स्थानों पर हिन्दू युवकों को मुर्गा काटने का प्रशिक्षण देकर उनके संकोच एवं भय को दूर किया जाता था। यह तथ्य पशुबलि की इस प्रथा का समर्थन नहीं करते। हिन्दू समाज सदा से परिवर्तनशील रहा है। आवश्यकता पड़ने पर उसने जहां नयी प्रथाओं को अपनाया है, वहां उन्हें बंद भी किया है। इसलिए इस निर्मम बलि प्रथा के विरोध में लम्बे समय से हिन्दू समाज के भीतर से ही आवाजें उठ रही हैं। इससे अनेक मंदिरों में यह प्रथा बंद हो गई है। ऐसे स्थानों पर बलि के पत्थर और शस्त्र आज भी देखे जा सकते हैं। श्रध्दालु अब वहां नारियल फोड़कर प्रतीक रूप में अपनी बलि सम्पन्न मान लेते हैं। जैसे-जैसे इसके विरोध के स्वर तीव्र होंगे, वैसे-वैसे यह कम होती जाएगी, पर पूरी तरह यह कब बंद होगी, कहना कठिन है। एक बात यह भी समझनी जरूरी है कि धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं कानून से शुरू या बंद नहीं होतीं। सरकार ने बाल-विवाह और दहेज के विरोध में कानून बनाया है, किन्तु क्या ये बंद हो गईं? इन विवाहों में शासन-प्रशासन और सब राजनीतिक दलों के नेता तथा समाज के प्रतिष्ठित लोग भाग लेते हैं। अंध-विश्वास और कुरीतियां समाज की मान्यता से चलती हैं और समाज की मान्यता से ही ये समाप्त भी होंगी। इसके लिए विभिन्न माध्यमों से समाज को जागरूक करने की आवश्यकता है। पर इस पशुबलि का एक दूसरा पहलू पेटा या मेनका गांधी जैसे पशुप्रेमियों के पाखंड को उजागर करता है। अभी 28 नवम्बर को विश्व भर में बकरीद मनाई गयी। इस दिन कितने निरीह पशुओं की हत्या की जाती है, क्या इसका कोई हिसाब इन पाखंडी पशुप्रेमियों पर है? इस निर्मम त्योहार का नाम बकरीद है, पर इस दिन बकरा, गाय, भैंस, ऊंट और न जाने किन-किन पशुओं को कुर्बानी के नाम पर काट दिया जाता है। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तथा वोटलोलुप नेता भी इसे त्याग, प्रेम और सौहार्द का पर्व बताते हैं।

राजकीय पशु होने से राजस्थान में ऊंट की हत्या प्रतिबंधित है, इस पर भी वहां ऊंट की हत्या होती है। गाय को पूरे विश्व के हिन्दू पूज्य मानते हैं, पर लाखों गाय इस दिन निर्ममता से काट दी जाती हैं। जो गांव, कस्बे या मोहल्ले मुस्लिम बहुल हैं, वहां हिन्दू परिवार बकरीद पर चार-छह दिन के लिए बाहर चले जाते हैं। क्योंकि नालियों में बहते खून और मांस पकने से उत्पन्न दुर्गंध से खाना-पीना कठिन हो जाता है। उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर वहां खुलेआम गोहत्या की जाती है। भारत के 14-15 करोड़ मुसलमान कम से कम एक करोड़ पशु इस दिन काट देते हैं। गढ़ीमाई, कामख्या या शाक्त मंदिरों में होने वाली पशुबलि पर छाती पीटने वाले ये पशुप्रेमी बकरीद पर अपने होंठ क्यों सिल लेते हैं, तब उनकी जीभ पर ताला क्यों लग जाता है? इस प्रश्न का उत्तर वे नहीं देते। क्योंकि वे जानते हैं कि इसके विरोध पर उनकी जान ही खतरे में पड़ जाएगी। उन्हें सेक्यूलर बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा। तब उनके चित्र इन सेक्यूलर पत्र-पत्रिकाओं में कैसे छपेंगे और अखबारी प्रचार के बिना वे जीवित कैसे रहेंगे? इस लेख का उद्देश्य पशुबलि का समर्थन नहीं है। पशुबलि हर प्रकार से निन्दनीय है। उसे बंद होना ही चाहिए, पर उन लोगों का बेनकाब होना भी जरूरी है, जो इसे हिन्दू और मुस्लिम नजरिए से देखते हैं। निर्बल और मूक पशुओं की हत्या के साथ ऐसे पाखंडियों का भी प्रबल विरोध होना चाहिए।

– विजय कुमार