रोहिंग्या घुसपैठ__जिहादी षड्यंत्र

अगर रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ के संकट को सांप्रदायिक द्रष्टि से न देखें तो क्या वैश्विक जिहाद को नियंत्रित किया जा सकता है ?  यह कटू सत्य है कि विश्वव्यापी इस्लामिक आतंकवाद को प्रायः कट्टरपन और वैश्विक आतंकवाद कहकर सरल कर दिया जाता है, क्यों ?  इस अज्ञानता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा जब शताब्दियों पुराने  “सभ्यताओं के  टकराव” को धरा पर लोकतांत्रिक राजनैतिक विवशता के कारण नकारने का प्रयास होता रहें और मानवता व घर्मनिर्पेक्षता केवल कट्टर धर्मानुयाईयो की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का एक माध्यम बना दिया जाय ? क्या पृथ्वी पर केवल एक सभ्यता के ही अधिकांश असभ्य प्राणी मात्र रहें तो यह न्यायोचित होगा ? क्या शरीयत की विचारधारा से जगत को इस्लामिक झंडे के नीचे लाने की सोच वाले सम्प्रदायों  को प्रोत्साहन मिलता रहें ? जिसप्रकार स्वास्थ, स्वच्छता, शिक्षा और विकास आदि के लिये योजनायें बनाई जाती है तो क्यों नही इन जिहादी अत्याचारों और कृत्रिम आपदाओं को नष्ट करने के लिये कोई ठोस योजनाएं बनाई जाती ? निसंदेह जब तक इस्लामिक स्टेट, अलकायदा, लश्करे-तोइबा आदि दुर्दान्त जिहादी संगठनो को पोषित किया जाता रहेगा तब तक मासूम बच्चों , अबला युवतियों व निर्दोष काफिरों का रक्त बहाया जाता रहेगा।
रोहिंग्या मुसलमानो के प्रति संवेदनशीलता से प्रायः अधिकांश मानवतावादी एकजुट हो सकते है, परंतु यह कौन सुनिश्चित करेगा कि ये मुसलमान जो अपनी धार्मिक कट्टरता से समाज में घृणा और वैमनस्यता फैलाते आ रहें है की इस घिनौनी मानसिकता का प्रतिरोध कौन करेगा ? जबकि ये रोहिंग्या पहले से ही अनेक जिहादी संगठनों से जुड़े हुए है और उनसे हर संभव सहायता व प्रशिक्षण भी पाते आ रहें है। तभी तो म्यांमार के शांतिप्रिय बौद्ध भिक्षु आशिन विराथु ने स्पष्ट कहा था कि अगर आप कितने ही दयावान और शांतिप्रिय है तो भी आप इन पागलो के साथ नही सो सकते ? इस प्रकार दशकों से इन धर्मांधों के अत्याचारों को झेल रहें म्यांमार के नागरिकों को इस जिहादी जनून से मुक्ति पाने के लिए शांति-अहिंसा को छोड़कर भिक्षु विराथु ने उन्हें आक्रामक बनाया ।
आपको स्मरण होगा कि सीरिया-ईराक़ में 4-5 वर्षो से चले आ रहे जिहादी संघर्ष से लाखों उत्पीड़ित मुसलमानो ने शरणार्थी बनकर यूरोप आदि के देशो में शरण ली थी। यह विशेष ध्यान रहे कि उस समय भयंकर विभीषिका झेल रहें आतंकवाद से पीड़ित मुस्लिम पीड़ितों को भी अरब आदि संपन्न मुस्लिम देशों ने अपने यहां पनाह नही दी, क्यों ?  जबकि उनके यहां लाखों हज यात्रियों की सुविधाओं के लिये शिविरों में रहने की व्यवस्था स्थायी रुप से बनी हुई है और उस समय प्रायः सभी शिविर रिक्त भी थे। यह एक गंभीर समझने वाला प्रश्न हो सकता है, कि जब इस्लामिक देश ही इन पीड़ित मुसलमानों को शरण न दें तो इसमें कोई गुप्त षड्यंत्र अवश्य रहा होगा ?  बाद में कुछ कुछ ऐसे समाचार भी आये थे कि इन पीड़ितों में से कुछ ने फ्रांस आदि शरणागत देशों में अपनी धर्मांधता को जीवित रखा और वहां विभिन्न आतंकवादी गतिविधियों में सम्मलित पाये गये। इसी कारण कुछ देशों ने इन मुस्लिम शरणार्थियों/ घुसपैठियों को अपनी सीमाओं में घुसपैठ नही करने दिया और इनका प्रबल विरोध भी किया।
आज जब हम व हमारा देश बंग्लादेशी घुसपैठियों की आपराधिक व आतंकी गतिविधियों के कारण दिनप्रतिदिन होने वाली समस्यों से जुझ रहा है तो ऐसे में म्यांमार के रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों को मानवीय आधार पर ही सही शरण देना कहा तक उचित है ? क्या हमें अपने राष्ट्र व राष्ट्र के नागरिको की सुरक्षा व शांति से कोई लेना-देना नही ? क्या यह अनुचित नही कि हमारे सीमित संसाधनों पर इन घुसपैठियों को लूट का अवसर मिलें और हम अभावों से ग्रस्त होते रहें ?  जबकि यह भी अत्यंत कष्टकारी है कि विभिन्न मौलवियों, मुस्लिम संगठनों व नेताओं ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज को चेताया है और सरकार को लक्ष्य बनाकर स्पष्ट चेतावनी भी दी है कि यहां अवैध रुप से रह रहे रोहिंग्यो को देश से बाहर न निकाला जाय अन्यथा परिणाम भयंकर हो सकते है ?  इससे सबंधित सोशल मीडिया में कुछ वीडियो भी आये है और प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी इस विकट समस्या पर सक्रिय हो गया है। विभिन्न नगरों में मुस्लिम समाज इन रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में रैलियां निकाल रहें है और कुछ स्थानों पर उग्र प्रदर्शन भी हुए है। इनके समर्थन में धरना प्रदर्शन करके जिला मुख्यालय पर ज्ञापन देना तो मुसलमानो का एक लोकतांत्रिक अधिकार है। परंतु इन रोहिंग्या मुसलमानों से मुस्लिम भाईचारा निभा कर इस प्रकार एक और राष्ट्रीय संकट को बढ़ाने का क्या औचित्य है ? क्या यह उचित है कि साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ कर और हिंसक वातावरण बनाकर स्थानीय कट्टरपंथी मुसलमान अराष्ट्रीय और विवादकारी क्यों होना चाहते है  ?
यह कहना भी गलत नही होगा कि जब हम पहले ही हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या के अनुपातिक संतुलन की समस्या से निकल नही पा रहें है और ऊपर से इन  हज़ारों-लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को स्वीकार करेंगे तो क्या राष्ट्रीय संकट बढ़ना स्वाभाविक नही होगा ? यह भी सोचा जा सकता है कि इन मुसलमानों को देश में बसाने वालों की मानसिकता उन जिहादियों से अलग नही होगी जो भारत को दारुल-इस्लाम बनाने के लिए सभी हथकंडे अपनाने से पीछे नही हटते। क्या यह एक जिहादी षड्यंत्र तो नही ? इनके लिये सत्ता के कुछ भूखे नेता भी बंग्लादेशी घुसपैठियों के समान भविष्य में इनकी वोटों के सहारे सत्ता हथियाने के लिये भी सक्रिय हो गये हो तो कोई आश्चर्य नही ? यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि देश का बहुसंख्यक राष्ट्रवादी समाज अब और धर्मांध घुसपैठियों को स्वीकार नही करने के लिए सरकार के साथ दृढ़ संकल्पित है। क्योंकि जब कभी दशकों पुराने बंग्लादेशी घुसपैठियों को  देश से बाहर निकालने की चर्चा होती है तो अनेक स्थानीय नागरिक ही उसके विरोध में आ जाते है और सरकार को अपने निर्णय पर पुनः विचार करने को बाध्य कर देतें है जबकि हमारे न्यायालयों द्वारा विभिन्न अवसरों पर इनको बाहर निकालने के लिए अनुसंशा की जाती रही है।
क्या यह संवैधानिक है कि इन रोहिंग्या घुसपैठियों को यह अधिकार है कि वे उच्चतम न्यायालय में इस विवाद पर न्याय की मांग करें ? इससे संबंधित एक याचिका भी डाली गई है जो अभी विचाराधीन है जिसके लिये अनेक वरिष्ठ अधिवक्तागण इनकी सहायता कर रहें है।माननीय न्यायालय का निर्णय राष्ट्रीय व सामाजिक हित में ही होना चाहिये ? क्योंकि न्यायायिक प्रक्रिया कोई ऐसा प्रावधान नही चाहेगी जिससे सामाजिक व्यवस्था में  कोई टकराव आये और राष्ट्रीय समस्याओं का आकार बढ़ें ?  यह कैसी व्यवस्था है कि वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने संविधान के अनुछेद 21 के संदर्भ से घुसपैठियों को भी  “जीवन का अधिकार” (RIGHT OF LIFE)  देने की मांग करी है ? लेकिन जब घुसपैठिये स्थानीय मूल नागरिकों पर आक्रामक हो कर लूट-मार और आगजनी करते है एवं उनका रक्त बहाने से भी नही चूकते तो उस स्थिति में क्या मूल नागरिकों के “जीवन का अधिकार” प्रभावित नही होता ?  क्या संसाधनों के अभाव में आम जन-जीवन प्रभावित नही होगा ? क्या हमारा संविधान देश में जिहाद के लिये बढ़ने वाली इस्लामिक अराजकता व आतंकवाद  को स्वीकार करेगा ? क्या इससे राष्ट्र की आन्तरिक सुरक्षा प्रभावित नही होगी ? इसीलिए भारत सरकार ने भी इन रोहिंग्याओं को देश से बाहर निकालने का दृढ़ निश्चय किया है जो सर्वथा उचित है और सर्वमान्य होना चाहिये।

विनोद कुमार सर्वोदय

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