पेट्रोल के दामों पर केंद्र की नीयत

 डॉ. मयंक चतुर्वेदी

लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में लोक कल्याण की अवधारणा यह इंगित करती है कि इस प्रकार की शासन प्रणाली में जनहित सर्वोपरि रहेगा। नीति निर्माता जनता के हितार्थ योजनाएँ बनाएँगे और उनका क्रियान्वयन करेंगे। राज्य के सभी संसाधन जनता के लिए रहेंगे किन्तु भारतीय संदर्भों में कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस और सुधार की गुंजाइश है।

रोजमर्रा के जीवन से जुड़े पेट्रोल के दामों को लेकर आज जो स्थिति है वह सोचने पर विवश करती है, आखिर देश में बढ़ती महंगाई के लिए क्या डालर के मुकाबले रूपए का कमजोर होना ही एक मात्र कारण है अथवा केंद्र की अन्य नीतियाँ भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। सरकार भी यह बात भली-भाँति जानती है कि सिर्फ पेट्रोल कीमतों में वृद्धि करने से रोजमर्रा की सभी आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं। उच्च श्रेणी, उच्च मध्यमश्रेणी तथा मध्यम वर्ग जो श्रेष्ठ जीवनयापन कर रहा है उसे इस बढ़ोत्तरी से बहुत फर्क नहीं पड़ता हो किन्तु देश की 70 प्रतिशत आबादी ऐसी भी है जो इन बढ़े हुए दामों के बीच बमुश्किल महीनेभर के लिए अपने घर का बजट बना पाती है।

जून 2010 में केंद्र की यूपीए सरकार ने पेट्रो कीमतों को अपने नियंत्रण से मुक्त कर भारतीय तेल कंपनियों, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कर्पोरेशन, इंडियन ऑयल और भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड को सीधे कीमतें तय करने का जिम्मा सौंप दिया था। इन तेल कंपनियों ने बड़ी चालाकी से प्रतिदिन 49 करोड़ रूपए पेट्रोल पर नुकसान बताकर इसमें 7.54 रूपए की वृद्धि कर दी। तेल कंपनियाँ यहाँ तक कह रही हैं कि उन्हें होने वाले नुकसान में डीजल, केरोसिन और एलपीजी को भी जोड़ दिया जाए तो उनका प्रतिदिन 573 करोड़ रूपए का नुकसान हो रहा है। जबकि इन कंपनियों की वार्षिक बैलेंस सीट कुछ और ही कह रही है। यह बहुत हैरानी की बात है कि 2011 की वार्षिक रिपोर्ट में इन कंपनियों द्वारा टैक्स भरने के बाद भी 7.445 करोड़ इंडियन आयल कार्पोरेशन लिमिटेड को, हिन्दुस्थान पेट्रोलियम को 15.39 करोड़ और भारत पेट्रोलियम को 15.47 करोड़ रूपए का मुनाफा हुआ है। इस तरह देखा जाए तो तेल कंपनियों का घाटा झूठा है।

वस्तुत: यह घाटा नहीं बल्कि केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार ही देश में एक बनावटी महौल खड़ा करते हुए धन उगाही के लिए आम जनता की जेब पर अप्रत्यक्ष डाका डाल रही है। वह इस बात को जान गई है कि आवश्यक संसाधन के बिना अब कोई नहीं रहना चाहता। बढ़ती व्यापारिक प्रतिस्पर्धा और व्यवस्थाओं के कारण इस बात की समीक्षा करने के लिए आज आम व्यक्ति के पास समय नहीं। ऐसे में जितना पैसा जनता की जैब से निकाला जा सके निकाल लो। वास्तव में मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार की असली नियत इससे समझी जा सकती है कि वह 14.78 रूपए उत्पाद शुल्क के रूप में बसूलती है। वहीं 15 से 33 प्रतिशत प्रतिलीटर पेट्रोल उत्पाद पर राज्य सरकारों का बैट या सेल्स टैक्स लगता है जो 10.30 से 19.74 रूपए प्रतिलीटर तक पहुँचता है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शासन को देंखे तो वर्ष 2009 से 2012 के बीच संप्रग सरकार 25 बार पेट्रोल के दाम बढ़ा चुकी है। जब यूपीए-2 सत्ता में आई थी उस समय प्रति लीटर पेट्रोल की कीमत 40.62 रूपए थी। दो हजार नौ में एक बार, दो हजार दस में सात बार, दो हजार ग्यारह मेें भी सात बार तथा दो हजार बारह में एक बार अभी तक केंद्र सरकार पेट्रोल कीमतें बढ़ा चुकी है।

हाल ही में सरकार ने 2.46 पैसे ही प्रतिलीटर पेट्रोल पर कम किए हैं जबकि यह सर्वविदित है कि विश्व बाजार में डॉलर की माँग घटने के कारण आज 80 डॉलर प्रति बेरल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रो कीमतें हैं। भारतीय रूपया भी पिछले दिनों पुन: मजबूत स्थिति में आ गया है फिर क्यों केंद्र संप्रग सरकार कीमतों में पर्याप्त कमी नहीं करना चाहती ? वर्तमान स्थिति को देखते हुए सरकार को प्रतिलीटर पेट्रोल में 10 रूपए कम करना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय तेल कंपनियों को केंद्र सरकार से प्रति वर्ष करोड़ों रूपए सब्सिडी के रूप में मिलते हैं। ऐसे में यदि अंतर्राष्ट्रीय बाजार की तेल कीमतों और सरकार की सब्सिडी को ध्यान में रखा जाए तो भी दस रूपए तक प्रति लीटर पेट्रोल में कम करने के बाद भी देश की कोई तेल कंपनी घाटे में नहीं जा सकती है।

वस्तुत: जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल 120 रूपए प्रति बेरल था ऐसे में पेट्रोल की कीमतें बढ़ाना किसी सीमा तक उचित ठहराया जा सकता था किन्तु आज केंद्र सरकार की क्या मजबूरी है जो वह दाम घटाने में भी कंजूसी कर रही है।

जब सरकार कीमतें बढ़ा रही थी तब उसका कहना था कि डॉलर के मुकाबले रूपए की विनियम दर में भारी गिरावट को देखते हुए यह वृद्धि की जा रही है, जबकि वर्तमान हालात तो भारतीय मुद्दा की सुदृढ़ता की गवाही दे रहे हैं। पिछले 18 माह से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम निम्र स्तर पर बने हुए हैं, फिर क्यों नहीं केंद्र की यूपीए सरकार भारतीय तेल कंपनियों से प्रतिलीटर पेट्रोल पर पर्याप्त दाम कम करने को कह रहीं, जबकि हमारे पड़ोसी देश चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में पेट्रोल सस्ता है।

ऐसा नहीं है कि डॉलर के मुकाबले इन देशों की मुद्रा न टूटी हो, कई बार भारत के पड़ौसी देशों की मुद्रा कमजोर हुई, लेकिन उन्होंने एक या दो बार बहुत थोड़े ही अपने यहाँ पेट्रोल दाम बढ़ाए। आज आर्थिक रूप से जर्जर और राजनैतिक रूप से कमजोर एवं अस्थित पाकिस्तान अपने यहाँ पेट्रोल की कीमतें घटाने की बात कर रहा है तो उसके पड़ौसी भारत की नीतियाँ लगातार तेल वृद्धि में विश्वास करती है।

वस्तुत: यह परिस्थितियाँ केंद्र सरकार की नीतियों में खोट अवश्य दिखाती हैं। ऐसा लगता है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने देश की जनता के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। काश वह इस पेट्रो वृद्धि के कारण आम व्यक्ति पर पड़ रही महंगाई भी मार को समझ पाते, उसे स्वयं भोगा हुआ यथार्थ समझकर उसे अनुभव करते और भारतीय जन के हित में निर्णय लेते।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

1 COMMENT

  1. केंद्र सरकार की नीयत की पोल खोलता एक और लेख है यह. क्या सचमुच यह सरकार देश की वफादार बिकुल ही नहीं है ?

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