आर्थिकी

नैतिक तकाजों से परे एफडीआई का मुद्दा

प्रमोद भार्गव

राष्‍ट्रीय मुद्दा बना खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के मद्देनजर धारा 184 के तहत जो बहस अथवा महाबहस हो रही हैं, उसका वास्ता अब मौकापरस्ती से रह गया है। क्योंकि संप्रग सरकार के जो घटक दल सपा, बसपा और द्रमुक कल तक जिस निवेश के विरोध में थे, वे राजनीतिक जोड़-तोड़ की कलाबाजियों में डुबकी लगाकर सत्तापक्ष के साथ खड़े हैं। यह हमारे देश में ही संभव है कि किसी राजनीतिक दल की स्पष्‍ट नीति नहीं होने के बावजूद मतदाता उसे ठिकाने लगाने का काम नहीं करते ? नतीजतन दल राष्‍ट्र व जन हितों को दरकिनार करते हुए सत्ता के खेल में मशगूल रहतें हैं। इसलिए सत्ता को अपने अनुसार हांकने और खुद सत्ताधीश बन जाने की महत्वाकांक्षाएं नैतिक तकाजों का रौंदने का काम कर रही हैं। खुदरा में निवेश के अर्थ को केवल अर्थव्यवस्था की मजबूती में देखने की भूल नहीं करना चाहिए। यह कदम एक ओर जहां विदेशी घुसपैठ को बढ़ावा देने वाला साबित होगा, वहीं आवारा पूंजी को भी खपाने का काम करेगा। इसलिए बहस भले ही चाहे जितनी तर्कसंगत हो, मत-विभाजन के बाद निकलने वाला परिणाम पूंजीवादी हितों को ही संरक्षण देने जा रहा है।

पारंपरिक खुदरा व्यापार क्षेत्र में रोजगार से सबसे अधिक 440 लाख लोग जुड़े हैं और करीब 20 करोड़ लोगों की आजीविका इसी व्यापार से चलती है। बिना किसी सरकारी संरक्षण के खुदरा कारोबार करीब 2,43,000 करोड़ का है। इस हकीकत से रुबरु केंद्र सरकार भी है, इसीलिए उसने दस लाख से ज्यादा की आबादी वाले शहरों में ही विदेशी कंपनियों को अपने भण्डार खोलने की इजाजत दी है। जिन देशों में खुदरा से जुड़ी बड़ी कंपनियां वाल्मार्ट, टेस्को, केयरफोर, मेटो गईं हैं, वहां इन्होंने स्थानीय खुदरा व्यापार को अजगर की तरह निगल लिया है। इसलिए इनका डर बरकरार है। भारत में खुदरा व्यापार में 61 फीसदी भागीदारी ऐसे खाद्य उत्पादों की है, जिसे अकुशल और अशिक्षित लोग परिवार की परंपरा से अपनाते हैं। इन खाद्य उत्पादों में अनाज, दाल, फल, सब्जी, दूध, चाय, कॉफी, मसाले, मछली, मुर्गा और बकरी पालन जैसे पुश्‍तैनी धंधे शामिल हैं। नार्बड के सर्वे के अनुसार यह कारोबार 11000 अरब रुपये का है, जिस पर असंगठित क्षेत्र के कारोबारियों का एकाधिकार है। इसी सरल खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों ने सेंध लगाकर परंपरागत कारोबारियों को बेरोजगार कर देने की आषंकाओं के चलते आतंकित किया हुआ है। क्योंकि उनके पास रोजगार के कोई विकल्प नहीं हैं। जाहिर है खुदरा का यह विदेशी नमूना (मॉडल) उपभोग को तो बढ़ावा देगा ही, जो परिवार इससे आजीपिका चला रहे थे, उनकी अचल संपत्ति भी छीन लेगा और उनकी संचित राषि खर्च कराकर उन्हें कर्ज में डूबों देगा। अभी तक हमारे यहां आधुनिक खेती-किसानी का दंष किसान भोग रहे थे, अब खुदरा व्यापारी भी भोगने को अभिशाप हो जाएंगे।

एफडीआई के तारतम्य में यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि इससे रोजगार के नए एक करोड़ अवसर पैदा होंगे। 40 लाख नौकरियां अकेली वाल्मार्ट देगी। वाल्मार्ट की एक दुकान में औसत 214 कर्मचारी होते हैं। यदि वाल्मार्ट जैसा कि दावा कर रहा है कि वह 40 लाख लोगों को रोजगार देगा तो उसे भारत में 86 हजार बड़े खुदरा सामान के भण्डार खोलने होंगे। जबकि खुदरा की जो वाल्मार्ट, केअरफोर, मेटो और टेस्को जेसी बड़ी कंपनियां हैं, उन सबके मिलाकर दुनिया में 34,180 भण्डार हैं। ऐसे में वाल्मार्ट का नौकरी देने का दावा निवेश के लिए वातावरण बनाने के नजरिये से एक छलावा भर है। इस परिप्रेक्ष्य में उस नकारात्मक स्थिति को भी सामने लाने की जरुरत है, जो बढ़ी मात्रा में रोजगार छीनेगी। एक सर्वे के अनुसार जिस क्षेत्र में केपनियां दुकानें खोलेंगी, वहां एक नौकरी देने के बदले में असंगठित क्षेत्र के 17 लोगों का रोजगार नेस्तनाबूद भी करेंगी। तय है, ये मायावी कंपनियां घरेलू खुदरा व्यापार को ही नहीं निगलेंगी, तमाम जिंदगियां भी लील जाएंगी। यह स्थिति बिल्ली के पिंजरे में चूहा छोड़ देने जैसी है।

इस लिहाज से जरुरी तो यह था कि राजनीतिक दल अपनी व्यक्तिगत हित-चिंताओं से परे खुदरा में विदेषी पूंजी निवेश विधेयक से जुड़े व्यावहरिक पक्षों को समझते और सामाजिक सरोकारों के प्रति संजीदा बने रहते, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एफडीआई पर बहस जहां खासतौर से कांग्रेस के लिए संसद में संख्याबल के खेल तक सिमट गई है, वहीं सप्रंग के सहयोगी दल इस देषव्यापी मुद्दे को तात्कालिक लाभ-हानि की दृश्टि से देख रहे हैं। जाहिर है, एनडीए के सत्ता में रहने के दौरान जिस भाजपा ने अपने चुनाव पूर्व दृष्टिपत्र में खुदरा में सौ फीसदी निवेष लागू करने की बात कही थी, वह खुद अपनी कथनी-करनी में अंतर की बानगी प्रस्तुत करते हुए इसके विरोध में खड़ी है। अब संसद में महज उसकी इतनी कोषिष रहेगी कि वह सरकार को नैतिकता व एफडीआई से जुड़े नुकसान की कसौटी पर सरकार को कटघरे में खड़ा करती दिखे।

बहुजन समाज पार्टी की मंषा महज इतनी है कि वह जातीय राजनीति के खेल में पारंगत दिखे और केंद्र सरकार को पदोन्नति में आरक्षण विधेयक इसी संसद सत्र में लाने को विवश कर दे। मायावती की कुछ ऐसी निजी मजबूरियां हैं, जिनके चलते उन्हें केंद्र सीबीआई के भूत का भय दिखाकर घुटने टेकने को विवश कर देता है। इसलिए यदि बाईदबे सरकार डूबती दिखी तो मायावती भी ऐन वक्त पर धक्का मार देंगी। सबसे ज्यादा असंमजस में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी है। उनके हरेक बयान से दोहरे अर्थ निकलते हैं। जबकि सपा एफडीआई के खिलाफ बंद में शामिल रही थी। बावजूद सपा की नीति और नियत साफ नहीं है। वह लोकसभा में एफडीआई का समर्थन कर सकती है, तो राज्यसभा में विरोध करती भी दिखाई दे सकती है। इसी तर्ज पर वह उत्तरप्रदेश में एफडीआई का विरोध करती है, तो देश में लागू होने पर समर्थन देती दिखाई देती है। निर्णायक भूमिका में होने के बावजूद मुलायम की उलटबांसियां इस बात का संकेत हैं कि सीबीआई का भूत उनके पीछे लगा है, इसलिए वे आखिर में सरकार को गिरने से ही बचाने का काम करेंगे। बंद में शामिल रहे द्रविड़ मुनेत्र कशगम के मुखिया करुणानिधि अब बहाना बना रह हैं कि वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे, जिससे भाजपा जैसे सांप्रदायिक दल को फायदा हो। जबकि यहां भाजपा के फायदे का सवाल है और न ही सांप्रदायिक मुद्दा है। यहां देश के खुदरा कारोबारियों के नुकसान का सवाल मौजू है ? जाहिर है इस मुद्दे पर देश और लोकतंत्र से बड़ा सवाल देश के राजनीतिक दलों के लिए अपना वजूद बनाए रखने का रह गया है। निज-स्वार्थ की ऐसी विडंबना में नैतिकता और रोजगार के सवालों को लेकर केंद्र सरकार से उलझीं बेचारी अकेली ममता और उनकी तृणमूल कांग्रेस करे भी तो क्या करे ?