सिद्धार्थ शंकर गौतम
अभिव्यक्ति का सशक्त हस्ताक्षर बन चुकी फेसबुक इन दिनों जहां सरकार के लिए सिरदर्द बन चुकी है वहीं भदोही की डिंपल मिश्रा के लिए जीवन के अंधकार को दूर करने का काम भी कर रही है। दरअसल महाराष्ट्र में रहने वाली डिंपल मिश्रा का प्रेम विवाह डेढ़ वर्ष पूर्व भदोही के ही विपिन मिश्रा के साथ ठाणे के अंबरनाथ दुर्गा मंदिर में हुआ था किन्तु ससुराल पक्ष की ओर से दहेज़ की मांग के चलते दोनों के बीच अलगाव हो गया। इसी बीच मई २०११ में डिंपल ने एक बेटी को जन्म दिया और जुलाई २०११ में डिंपल के पिता का निधन हुआ| इतने झंझावातों के बीच डिंपल को पता चला कि मई २०११ में ही विपिन ने दूसरी शादी कर ली है। डिंपल ने इसे अपनी नियति मान ठाणे में अपनी बेटी के पालन-पोषण हेतु कपड़े सिलने का काम करने लगी। किन्तु अपनी बेटी को बड़ी होते देख डिंपल ने उसे उसका हक़ दिलाने की ठान ली और बेटी को पिता का नाम देने की जिद में उसने वापस बाकायदा बारात लेकर भदोही जाने का ऐलान कर दिया। अपनी कहानी और अपने आगामी कदम को फेसबुक पर डालकर उसे व्यापक जनसमर्थन तो मिला ही; उसकी मदद हेतु कई स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ सरकारी-गैरसरकारी संगठन भी आगे आए हैं। यहां तक कि कानून व्यवस्था और प्रशासन ने भी डिंपल को सुरक्षा का आश्वासन दिया है। हालांकि डिंपल के भदोही आने की खबर से उसकी ससुराल वालों की त्योरियां चढ़ गई हैं किन्तु उसने अपनी बेटी के भविष्य को देखते हुए जो अप्रत्याशित कदम उठाया है उसकी सराहना तो होनी ही चाहिए। डिंपल की इस मुहिम को अब उत्तरप्रदेश की उन पंचायतों का साथ भी मिलने लगा है जो लड़कियों व महिलाओं पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाने के लिए कुख्यात थीं। भदोही के ग्राम मूलापुर की ९ ग्राम पंचायतों ने डिंपल को बहू के रूप में स्वीकार किया है और उसके पति व ससुर के खिलाफ कार्रवाई की मांग की जा रही है। यहां तक की आसपास की अन्य पंचायतों ने तो डिंपल के ससुराल का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार करने की मांग कर दी है। डिंपल की इस जीत से पूरा क्षेत्र उत्साहित है और लड़कियों के लिए डिंपल एक आदर्श बनकर उभरी है। आधुनिक समाज में पली-बढ़ी डिंपल ने बिना किसी सहायता के अपने ससुरालियों को झुका दिया है। डिंपल की इस जीत में निःसंदेह फेसबुक के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
जब तक डिंपल ने अपनी पीड़ा को सार्वजनिक रूप से जाहिर नहीं किया था तब तक अपने ससुराल से लड़ने का सामर्थ्य उसमें नहीं था। जैसे ही फेसबुक पर उसे समर्थन मिलने लगा और उसका मामला ठाणे की सीमा को लांघते हुए महाराष्ट्र और फिर देश भर में प्रचलित हुआ उसके अंदर भी अन्याय के प्रति लड़ाई का साहस जाग गया। जो डिंपल भारतीय मूल्यों के चलते पति की प्रताड़ना को चुपचाप सहती रही उसे आम जनता ने ताकत दे दी और यह ताकत ही उसे महाराष्ट्र से वापस उसके गांव ले गई। डिंपल जैसे और भी न जाने कितने उदाहरण हैं जिन्होंने सोशल नेटवर्किंग साईट्स द्वारा अपने हक़ की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया है। किन्तु पिछले कुछ समय से अभिव्यक्ति के इस व्यापक मंच का भी दुरुपयोग होने लगा है। मामला चाहे पश्चिम बंगाल में महापात्र से जुड़ा हो या मुंबई में असीम त्रिवेदी से, या हाल ही में दिवंगत बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा में मुंबई बंद को लेकर दो लड़कियों की असहमति; फेसबुक ने हर उस आवाज को धार दी है जो उसके माध्यम से उठाई गई है। हां इतना अवश्य है कि फेसबुक को अपने हक़ के रूप में इस्तेमाल करने वालों की तादाद अपेक्षाकृत कम है जबकि खुद को सुर्ख़ियों में बरकरार रखने वालों की भीड़ बढती जा रही है। यह भीड़ ऐसे-ऐसे विवादों को जन्म देने लगी है जिसने अन्य मुद्दों को पीछे छोड़ते हुए खुद राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना लिया है| यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय को भी अभिव्यक्ति की आजादी और उससे जुड़े कानूनी पक्षों पर अपनी राय जाहिर करनी पड़ी है। तब यह सवाल प्रमुखता से खड़ा होता है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय अथवा राजनीतिक मंच क्या फेसबुक की आपत्तिजनक टिप्पड़ियों पर प्रतिक्रिया देने हेतु ही है? क्या अभिव्यक्ति की आजादी का वर्तमान दुरुपयोग वर्जनाओं की सीमा को नहीं लांघ रहा? क्या यही उपयोगिता रह गई है अभिव्यक्ति के इस मंच की ताकत की? कहने में गुरेज नहीं होगा कि डिंपल ने फेसबुक के सही इस्तेमाल से यह साबित किया है कि सुविधाओं का कैसा उपभोग किया जाना चाहिए यह आप पर निर्भर करता है। आप चाहें तो परिस्थितियों को भी अपने पक्ष में कर सकते हैं या फिर विवादों को जन्म देकर खुद को विवादों के घेरे में ला सकते हैं।
YE F/B KA SADUPYOG HAI. LEKHK KO HARDIK BADHAAEE.