बिहार में लोकसभा चुनाव में विकास रहा मुख्य मुद्दा

nitish_kumarपहली बार बिहार में विकास का मुद्दा लोकसभा चुनाव में  हावी है। चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद को राज्य के विकास का पहरुआ बताया है और साथ ही केंद्र को कटघरे में खड़ा किया है, यह कहते हुए कि “केन्द्र की यूपीए सरकार बिहार को वाजिब हक नहीं दे रही है। उल्टे सूबे का विकास केन्द्र की राशि से होने की बात यूपीए के नेता कह रहे हैं। उनकी यह कथनी सरासर झूठ है।”पर राज्य सरकार के ही कागज़ चुनावी मौसम की इस राजनीतिक भाषा की कुछ और चुगली करते नज़र आ रहे हैं। बिहार सरकार से सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत मिली जानकारी के ज़रिए यह साफ़ दिखाई देता है कि केन्द्र सरकार ने गत दो वर्षों में बिहार के नीतीश सरकार को जितना मदद किया है, उतना लालू-राबड़ी सरकार को 6 वर्षों में भी नहीं। इतना ही नहीं, जानकारी यह भी दिखाती है कि पहली बार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से राज्य को बड़ी मदद मिलनी शुरू हुई है पर विकास के लिए लिया जा रहा पैसा इस्तेमाल ही नहीं हो रहा है।

सूचना का अधिकार क़ानून के तहत राज्य सरकार से लंबे इंतज़ार के बाद जो जानकारी मिली है, वो राज्य सरकार के नेताओं की चुनावी प्रचार की भाषा को ग़लत साबित करती नज़र आ रही है।

आंकड़े बताते हैं कि एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को केंद्र से 1617.62 करोड़ रूपए मिले थे। पर केंद्र में सरकार बदलने के बाद यूपीए ने राज्य सरकार को लगभग दोगुना पैसा देना शुरू किया। पहले ही वित्तीय वर्ष यानी वर्ष 2004-05 में केंद्र ने राज्य सरकार को 2831.83 करोड़ रूपए की राशि उपलब्ध कराई।

इसके बाद राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए। भाजपा समर्थन से बनी इस राज्य सरकार को वर्ष 2005-06 में 3332.72 करोड़ रूपए केंद्र सरकार से मिले। इसके अगले वित्तीय वर्ष में यानी वर्ष 2006-07 में यह राशि बढ़ाकर 5247.10 करोड़ कर दी गई। इसके बाद के आंकड़े राज्य सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई है पर अधिकारी मानते हैं कि केंद्र से मदद बढ़ी ही है। इस प्रकार राज्य सरकार से मिले आंकड़ों की बात करें तो यह बताती है कि वर्तमान राज्य सरकार को मात्र दो वित्तीय वर्ष में ही 8579.83 करोड़ मिले, जबकि पिछले राज्य सरकार को पांच वित्तीय वर्षों में कुल 7984.56 लाख ही प्राप्त हुए।

एक तथ्य और है जो राज्य सरकार के विकास कार्यों पर होने वाले खर्च पर सवाल उठा देता है। आंकड़े कहते हैं कि पैसा लेने में चुस्त सरकार, उसे खर्च करने में सुस्त है।

राज्य सरकार को वर्ष 2006-07 में विश्व बैंक से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिए 92.92 लाख रूपए मिले पर खर्च हुए कुल 60 लाख रूपए। अगले वित्तीय वर्ष यानी 2007-08 में ग़रीबी उन्मूलन, लोक व्यय एवं वित्तीय प्रबंधन और बिहार विकास ऋण के लिए राज्य सरकार को 464.15 करोड़ रूपए मिले पर दस्तावेज़ बताते हैं कि राज्य सरकार ने इसमें से सिर्फ 6.13 करोड़ रूपए ही खर्च किए हैं। यही नहीं बिहार में एक ऐसा वार्ड भी है जो लिखित रुप में यह कह रहा है कि नीतीश के शासनकाल में विकास का कोई कार्य नहीं हुआ है।

राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह भी बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जन संपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-08 के दौरान लगभग 28 हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 19.56 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। बात यहीं खत्म नहीं होती। जिन विकास कार्य के नाम पर करोड़ों खर्च किए गए हैं, उस विकास कार्य की जानकारी आम लोगों की कौन कहे, यहां के पढ़े-लिखे लोगों तक को नहीं है। जैसे बीमार बिहार के स्वस्थ करने की नियत से शुरु की गई कॉल सेंटर “समाधान” का उदाहरण ही आप देख लीजिए। खैर बिहार की जनता स्वस्थ हो न हो, कम से कम सरकारी अफसर तो इस कार्य से ज़रुर स्वस्थ हो गए हैं। यह अलग बात है कि बाद में कहीं वो डायबटीज़ के पेसेंट न है जाएं।

बहरहाल, खेतों को कटवाकर ताने गए वातानुकूलित तंबुओं में ठहरकर गांव की हालत देखते और न्याय यात्रा और विकास यात्रा के रथों पर सवार राज्य के मुख्यमंत्री से शायद लोग भाषा में ईमानदारी की भी उम्मीद करते हैं। ईमानदारी, जिस शब्द से राज्य में सत्ता बदली है। जिस नारे पर वर्तमान सरकार सत्ता में आई है।
अफ़रोज़ आलम साहिल

3 COMMENTS

  1. भाई साहब! कौन से युग में जी रहे हैं आप? नेताओं से भी ईमानदारी की उम्मीद करते हैं। सब नेता तो चोर हैं, बल्कि ये कहिए सारे चोर आज नेता हैं।

  2. आप तारीफ कर रहे हैं या नीतिश सरकार की ले रहे हैं। खैर जो भी कर रहे हैं। बेहतर है।

  3. अच्छा है कि एक राज्य तो जात-बिरादरी की वोटिंग पद्यति से ऊपर उठा.

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