एससीओ में आतंकवाद पर चले पारस्परिक दांवपेंच के मायने

कमलेश पांडेय

जब इजरायल जैसा छोटा-सा यहूदी देश अपने शौर्य, पराक्रम और कूटनीति जनित तकनीकी विकास के बल पर ईरान जैसे कट्टर शिया इस्लामिक देश का मुकाबला कर सकता है तो भारत जैसा विशाल हिन्दू राष्ट्र अपने शौर्य, पराक्रम और कूटनीति जनित तकनीकी विकास के बल पर पाकिस्तान / पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) जैसे कट्टर सुन्नी देश का मुकाबला कर सकता है। बस जरूरत सिर्फ इस बात की है कि जैसे अमेरिका के प्रति इजरायल समर्पित होकर उसका साथ लेता रहता है, वैसे ही हमें रूस के प्रति वफादारी निभाकर (क्योंकि वह हमारे दुःख का जांचा-परखा भरोसेमंद अंतरराष्ट्रीय साथी है) उसका पक्का साथ हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए।

ऐसा इसलिए कि रूस जब भारत के साथ रहेगा तो अमेरिका, यूरोप, चीन और इस्लामिक देश भी अपनी हद में रहेंगे। वहीं, जब रूस को भारत का खुला साथ मिलेगा तो अमेरिका, यूरोप, चीन और इस्लामिक देश रूस को आंख नहीं दिखा पाएंगे। सच कहूं तो रूस के तकनीकी विकास को यदि भारत की जनसंख्या का साथ और सैन्य सहयोग मिल जाए तो वह दुनिया फतह तो करेगा ही, भारत की रक्षा भी होती रहेगी। इसके अलावा, इजरायल और रूस के बीच भारत जैसी दोस्ती कैसे बनेगी, इस दिशा में भी भारत को सोचना होगा क्योंकि ग्रेटर इजरायल, ग्रेटर इंडिया और ग्रेटर रूस की अवधारणा को साकार करके न केवल यूरोप को काबू में रखा जा सकता है बल्कि चीन भी इस त्रिकोण के बनने के बाद अपनी शैतानी भूल जाएगा, खासकर पड़ोसियों के खिलाफ।

आतंकवाद के निर्यातक देश ईरान (शिया बहुल आतंकी) और पाकिस्तान (सुन्नी बहुल आतंकी) की जैसी अप्रत्याशित धुनाई इजरायल-अमेरिका और भारत-रूस ने की है, वह हर आतंकवादी घटना के बाद जोर पकड़नी चाहिए। यही वजह है कि भारत का ऑपरेशन सिंदूर और इजरायल का ऑपरेशन………….. अभी भी जारी रहेगा। रही बात सोवियत संघ के पतन के बाद रूस-चीन के नेतृत्व में बने एससीओ की जिसे नाटो और विघटित सीटो से जुड़े अमेरिका-यूरोप परस्त एशियाई देशों  से मुकाबला करने के लिए बनाया गया है, उससे रूस की सहमति लेकर भारत तब तक अलग रहे जब तक कि चीन-पाकिस्तान जैसे देश आतंकवादियों के खिलाफ भारतीय दृष्टिकोण को स्वीकार न कर लें। वहीं, भारत-रूस-इजरायल और आतंकवाद विरोधी मुस्लिम देशों का एक ऐसा संगठन तैयार करे जो अमेरिका-चीन प्रोत्साहित आतंकवादी हरकतों से न केवल ऑन द स्पॉट निबटे बल्कि इनको हथियार देने वाली कम्पनियों पर भी हमले की रणनीति बनाए। उन्हें ब्लैकलिस्ट करे। यह यूएनओ का कार्य है लेकिन यह अमेरिका-चीन तिकड़म पसंद सफेद हाथी बन चुका है।

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जिस तरह से दुनिया के दो पुराने धर्मों हिन्दू व यहूदी धर्म के खिलाफ इस्लामी देश और पाकिस्तान आक्रामक हैं, आतंकवादी पैदा करते हैं, अमेरिका-चीन से हथियार व आर्थिक मदद लेकर इनकी हथियार व सुरक्षा उपकरण निर्माता कम्पनियों के कारोबार विस्तार में मदद करते हैं, उसकी रीढ़ तोड़नी होगी। यह कार्य गुटनिरपेक्ष देश भारत कर सकता है लेकिन उसे रूस, इजरायल के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, ब्राजील, दक्षिण अफ़्रीका, सऊदी अरब जैसे दूसरी पंक्ति के देशों को साधकर चलना होगा।

यही वजह है कि जब शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) के सम्मेलन में चीन और पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ भारत की लड़ाई को कमजोर करने का प्रयास किया तो भारत ने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। इस अप्रत्याशित घटनाक्रम में जब भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से इनकार करके स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा।

एससीओ बैठक में रक्षा मंत्री ने साफ शब्दों में कहा कि आतंकियों, उनके समर्थकों फडिंग करने वालों और सीमा पार से आतंक फैलाने वालों को जवाबदेह ठहराना जरूरी है लेकिन, जब भारत ने यह प्रस्ताव दिया कि पहलगाम में हुए आतंकी हमले को संयुक्त बयान में शामिल किया जाए तो चीन और पाकिस्तान ने इसका विरोध किया। जबकि पाकिस्तान की ओर से यह कोशिश की गई कि बलूचिस्तान में हुई घटनाओं और वहां की स्थिति को संयुक्त बयान में जगह मिले। इससे साफ है कि यह सब कुछ एक सोची-समझी रणनीति थी। 

देखा जाए तो वर्तमान एससीओ अध्यक्ष होने के नाते सदस्यों के बीच संतुलन की जिम्मेदारी चीन की थी लेकिन उसने हमेशा की तरह पाकिस्तानी अजेंडे को आगे बढ़ाया। हालांकि भारत के दो टूक रुख से उसे करारा झटका लगा है क्योंकि संयुक्त बयान जारी न होना उसकी अध्यक्षता की एक बड़ी नाकामी है। वहीं, पुरानी चाल चलते हुए  बलूचिस्तान के मानवीय संकट को आतंकवाद का रूप देकर पाकिस्तान वहां के लोगों पर हो रहे अत्याचारों को छिपाना चाहता है। इसके अलावा, वह भारत पर झूठे आरोप लगाकर अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति बटोरने की पुरानी रणनीति पर चल रहा है। चीन इसमें पाकिस्तान का हर कदम पर समर्थन कर रहा है। इससे स्पष्ट हैं कि चीन एससीओ के गठन के मकसद को भुला दिया है।

बता दें कि एससीओ की स्थापना इसलिए की गई थी ताकि सोवियत संघ के विघटन के बाद एशियाई इलाके में शांति और सुरक्षा बनी रहे जबकि चीन और पाकिस्तान ने एससीओ की इस मूल भावना के विपरीत काम किया है। ऐसा इसलिए कि दोनों देश अमेरिका के एजेंट्स हैं। कोई पहले रह चुका है और कोई अब तलक है। यह स्थिति रूसी रणनीति के खिलाफ है क्योंकि अपने तुच्छ हितों के लिए चीन-पाकिस्तान के नापाक गठजोड़ ने ऑर्गनाइजेशन के मकसद को भुलाकर एक नया कूटनीतिक संकट पैदा कर दिया जिससे संगठन पर असर पड़ सकता है क्योंकि भारत का अब इसमें बने रहने का कोई औचित्य नहीं है।

भारत को उन सभी संगठनों से अलग हो जाना चाहिए जो अमेरिका विरोधी हो और जिसमें चीन-पाकिस्तान मौजूद हैं।

चूंकि भारत, अपने मित्र रूस के कहने पर इन संगठनों की सदस्यता लेता है, इसलिए भारत के हितों की रक्षा की जिम्मेदारी रूस की भी बनती है।

कहा जाता है कि जब कोई संगठन अपने ही मूल सिद्धांतो से पीछे हटने लगे तो फिर उसका अंतरराष्ट्रीय कद और प्रभाव भी गिरने लगता है। कहीं अमेरिकी इशारे पर एससीओ इसका शिकार न हो, इसके लिए दूसरे सदस्य देशों यथा रूस व रूसी गणराज्य से अलग हुए मध्य एशियाई देशों को चीन-पाकिस्तान की चालबाजियों को समझना होगा और इनकी स्थायी काट तलाशनी होगी क्योंकि ये अमेरिकी एजेंट्स की भांति कार्य करते हैं और रूस को मजबूत नहीं होने देना चाहते हैं। 

इसलिए भारत को चाहिए कि वह अमेरिका और चीन विरोधी देशों यानी ग्लोबल साउथ का एक अलग गुट बनाये और उन्हें सशक्त सैन्य नेतृत्व दे। वहीं अमेरिका-रूस के नेतृत्व वाले संगठनों की सदस्यता ले क्योंकि चीन व इस्लामिक देशों, यथा- पाकिस्तान, बंगलादेश (पूर्वी पाकिस्तान) के संयुक्त षड्यंत्रों और धर्म के नाम पर इन्हें समर्थन देने वाले देशों के समूल नाश के लिए यह जरूरी है। इससे इजरायल से बेहतर अंतररराष्ट्रीय पार्टनर कोई नहीं हो सकता। हां, अमेरिका-चीन के साथ चूहे-बिल्ली वाली कूटनीति जारी रहनी चाहिए और पाकिस्तान-बंगलादेश को कूटने वाली रणनीति से भी कोई समझौता नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, चीन से व्यापार घाटे को कम करने या उससे व्यापार शून्य करने की स्पष्ट रणनीति बनानी चाहिए ताकि हमसे कमाकर ही वह हमारे खिलाफ अपनी सेना को मजबूत नहीं कर पाए।

कमलेश पांडेय

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