भारतीय कृषि में महिलाओं की दयनीय स्थिति

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत अपने अस्तित्वकाल से ही कृषि प्रधान देश रहा है। यहां जिस तरह से पुरुष और महिलाओं के बीच श्रम का विकेंद्रीकरण किया गया है, उसमें महिलाओं के जिम्मे जो कार्य है, वह तुलनात्मक रूप में समग्रता के साथ पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों के पास अधिक है। इसमें शहरों की तुलना में ग्रामीण महिलाओं के पास कार्य की अधिकता है, इसके विपरीत औरतों की स्थिति दयनीय है। सबसे अधिक कार्य का बोझ होने के बावजूद श्रमशक्ति में पुरुषों से कम पारिश्रमिक उनकी दयनीय स्थिति को दर्शाता है।

शहरों में तो व्यावसायिक एवं मासिक वेतन कर्मचारी व्यवस्था में अधिकतर महिलाएं कार्यरत हैं, किंतु यह स्थिति गांवों में नहीं है। वहां महिलाएं कृषि क्षेत्र में पुरुषों के साथ बराबरी से तो कहीं उनसे भी अधिक भागीदारी कर वे अपनी बहुआयामी भूमिकाएं निभा रही हैं। बुवाई से लेकर रोपण, निकाई, सिंचाई, उर्वरक डालना, पौध संरक्षण, कटाई, निराई, भंडारण और कृषि से जुड़े अन्य कार्य जैसे कि मवेशी प्रबंधन, चारे का संग्रह, दुग्ध संग्रहण, मधुमक्खी पालन, मशरुम उत्पादन, सूकर पालन, बकरी पालन, मुर्गी पालन इत्यादि में ग्रामीण महिलाएं पूरी तरह सक्रिय हैं। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र के भीतर, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और क्षेत्रीय कारकों के आधार पर काम करने वाले वैतनिक मजदूरों, अपनी स्वयं की जमीन पर श्रम कर रहीं जोतकार और कटाई पश्चात अभियानों में श्रम पर्यवेक्षण और सहभागिता के जरिए कृषि उत्पादन के विभिन्न पहलुओं के प्रबंधन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है ही, लेकिन क्या इतना अधिक योगदान होने के बाद भी हम अपनी मातृशक्ति की श्रमपूंजी के साथ न्याय कर पा रहे हैं?

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़े बता रहे हैं कि भारत के 48 प्रतिशत कृषि संबंधित रोजगार में औरतें हैं, जबकि करीब 7.5 करोड़ महिलाएं दुग्ध उत्पादन तथा पशुधन व्यवसाय जैसी गतिविधियों में सार्थक भूमिका निभाती हैं। कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की 60 से 80 फीसदी तक हिस्सेदारी महिलाओं की है। पहाड़ी तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तथा केरल राज्य में महिलाओं का योगदान कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पुरुषों से कहीं ज्यादा है, इसमें सबसे अधिक पहाड़ी क्षेत्रों में है। इसी संदर्भ में फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के एक अध्ययन से पता चला है कि हिमालय क्षेत्र में प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष एक पुरुष औसतन 1 हजार 212 घंटे और एक महिला औसतन 3 हजार 485 घंटे कार्य करती है। इस आंकड़े के माध्यम से ही कृषि में महिलाओं के अहम योगदान को आंका जा सकता है। समूचे भारत वर्ष में उसके भूगोल और जनसंख्या के अनुपात से कृषि में महिलाओं के योगदान का आंकलन करें, तो यह करीब 32 प्रतिशत है। इस बीच यदि हम भा.कृ.अनु.प. के डीआरडब्ल्यूए की ओर से नौ राज्यों में किए गए एक पूर्व शोध अध्ययन को देखें तो प्रमुख फसलों के उत्पादन में महिलाओं की 75 फीसदी भागीदारी, बागवानी में 79 फीसदी और कटाई उपरांत कार्यों में 51 फीसदी की हिस्सेदारी है। पशु पालन में महिलाएं 58 फीसदी और मछली उत्पादन में 95 फीसदी भागीदारी निभाती हैं।

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में कुल श्रम शक्ति का 50 फीसदी हिस्सा महिलाओं का है। छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश में 70 फीसदी से ज्यादा महिलाएं कृषि क्षेत्र पर आधारित हैं, जबकि पंजाब, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु और केरल में यह संख्या 50 फीसदी है। मिजोरम, आसाम, छत्तीसगढ़, अरूणाचल प्रदेश और नागालैंड में कृषि क्षेत्र में 10 फीसदी महिला श्रमशक्ति है। देखने में निश्चित तौर पर यह आंकड़े काफी उत्साहजनक हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या महिलाओं को कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए उचित अवसर दिए जा रहे हैं?

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह भले ही आज कह रहे हों कि सरकार की विभिन्न नीतियों जैसे जैविक खेती, स्वरोजगार योजना, भारतीय कौशल विकास योजना, इत्यादि में महिलाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाने के लिए तथा उनकी जमीन, ऋण और अन्य सुविधाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने किसानों के लिए बनी राष्ट्रीय कृषि नीति में उन्हें घरेलू और कृषि भूमि दोनों पर संयुक्त पट्टे देने जैसे नीतिगत प्रावधान किए हैं। इसके साथ कृषि नीति में उन्हें किसान क्रेडिट कार्ड जारी करवाने के साथ ही इसके लिए कई प्रकार की पहल की जा चुकी हैं।

यहां केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री की कही बातों को जरा भी गंभीरता से लिया जाए और सरकार के इस संदर्भ में किए जा रहे प्रयासों यथा, जिनमें कि कृषि में महिलाओं की अहम भागीदारी को ध्यान में रखते हुए कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्गत केंद्रीय कृषिरत महिला संस्थान की स्थापना तथा इस संस्थान के माध्यम से महिलाओं से जुड़े विभिन्न आयामों पर 100 से अधिक संस्थानों द्वारा नई तकनीक के सृजन के लिए किए गए कार्य या अन्य प्रयास जिससे कि देश में 680 कृषि विज्ञान केंद्र स्थापित हैं। मोदी सरकार ने विभिन्न प्रमुख योजनाओं व कार्यक्रमों और विकास संबंधी गतिविधियों के अंतर्गत महिलाओं के लिए कम से कम 30 प्रतिशत धनराशि का आबंटन सुनिश्चित किया है इत्‍यादि कार्यों पर प्रमुखता से गौर करें तो इस पर भी कहना यही होगा कि आज भी सरकारी आंकड़ों में जितना अधिक महिलाओं के कृषि क्षेत्र में विकास की बातें कर उनका उत्साहवर्धन किया जा रहा है, जमीनी स्तर पर वह कहीं नजर नहीं आता है। जबकि यदि महिलाओं को अच्छे अवसर तथा सुविधाएं मिलें तो वे देश की कृषि को द्वितीय हरित क्रांति की तरफ ले जाने के साथ देश के विकास का परिदृष्य तक बदलने की कुव्वत रखती हैं। इसीलिए आज यह जरूरी होगा कि भारतीय कृषि में महिलाओं को दयनीय परिस्थितियों से बाहर निकालने के लिए मोदी सरकार को शासकीय आंकड़ों से इतर भी कुछ सर्वे करवा लेना चाहिए, ताकि इस क्षेत्र में भी विमुद्रिकरण की तरह ही पूरे देश में कुछ चमत्कार नजर आ सकें।

 

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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