सरना धर्म कोड से सुलगती सियासत कहीं स्वाहा न कर दे हिन्दू सोच को, ऐसी क्षुद्र सियासत से सचेत हो जाइए

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कमलेश पांडेय

आखिर हिंदुओं की मुख्यधारा से पहले सिख, फिर बौद्ध और जैन को तोड़ने के बाद अब जिस तरह से सरना की आड़ में आदिवासियों को तोड़ने की सियासी साजिश परवान चढ़ाई जा रही है, उससे एक बार फिर कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों की हिन्दू विरोधी मंशा उजागर हो जाती है लेकिन उनके समक्ष भाजपा का हथियार डाल देना भी उचित नहीं है। उसे कोशिश करनी चाहिए कि सरना तो अलग न ही हो और सिख, बौद्ध व जैन को भी हिन्दू धर्म में वापस लाया जाए। 

बता दें कि कांग्रेस पार्टी व झारखंड मुक्ति मोर्चा के द्वारा झारखंड विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए सरना धर्म का मुद्दा जिस तरह से उछाला जा रहा है और सरना धर्म कोड की बात की जा रही है, वह अंग्रेजों की 100-200 साल पुरानी मंशा को पूरे करने जैसा ही है. इनका यह कहना कि सरना धर्म देश का सबसे बड़ा आदिवासी धर्म है, यह गलत है। 

कड़वा सच तो यह है कि सरना हिंदुओं के आदिवासी समुदाय का एक पंथ है, जिसे अलग धर्म के रूप में मान्यता देने का मतलब उन्हें हिन्दू समाज से अलग करना है, उसी तरह से जैसे सिख, बौद्ध, जैन समाज को हिंदुओं से अलग कर दिया गया, जबकि कुछ कॉमन देवी-देवताओं की पूजा वो आज भी करते हैं। इसलिए इस संवेदनशील मुद्दे पर हिन्दू समाज को मुखर होना चाहिए और इन संवैधानिक षड्यंत्रों के खिलाफ मुखर आवाज उठानी चाहिए।

हालांकि, हिन्दू हितों से जुड़े कतिपय मुद्दों पर भाजपा की दुविधाग्रस्त सोच से हिंदुओं का भविष्य भी अंधकारमय हो सकता है, इसलिए उन्हें खुद एकजुट होना पड़ेगा और ऐसा करने वाले नेताओं को राजनीतिक सबक  सिखाना पड़ेगा  अन्यथा इनकी वाचाल सियासी हरकतें कभी बंद नहीं होंगी।

कहना न होगा कि झारखंड विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक पहचान की मांग को गरमा दिया गया है जिसके बाद भाजपा ने सरना  धार्मिक कोड पर विचार करने की बात कही है जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस लगातार कोड लागू करने की मांग कर रहे हैं। वहीं, भाजपा, कांग्रेस और जेएमएम जैसी पार्टियों ने इस मुद्दे पर अपने-अपने विचार रखे हैं, जिससे यह चुनावी बहस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। इस मांग के केंद्र में ‘सरना कोड’ है जिसका उद्देश्य आदिवासी धर्म ‘सरना धर्म’ को भारत में एक अलग पहचान दिलाना है। 

गौरतलब है कि गत 3 नवंबर को, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि भाजपा सरना धार्मिक संहिता के मुद्दे पर विचार करेगी और उचित निर्णय लेगी। वहीं, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह सरना कोड लागू करेगी। हालांकि भाजपा ने अतीत में सरना कोड का विरोध नहीं किया है, लेकिन वह इस विषय पर मुखर भी नहीं रही है। वहीं, दूसरी ओर, जेएमएम और कांग्रेस लगातार सरना धर्म संहिता को लागू करने की मांग करते रहे हैं और इसे अपने चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा बनाया है। 

बता दें कि सरना धर्म देश का सबसे बड़ा आदिवासी धर्म है जिसका पालन मध्य-पूर्वी भारत की आदिवासी आबादी जैसे मुंडा, हो, संताली और कुरुख द्वारा किया जाता है। इसमें प्रकृति की पूजा शामिल है। नवंबर 2020 में, झारखंड सरकार ने एक विशेष एक दिवसीय विधानसभा सत्र में, जनगणना 2021 में ‘सरना’ को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ और विपक्षी भाजपा ने भी इसका समर्थन किया हालांकि उसने सरकार की मंशा पर सवाल उठाया।

उल्लेखनीय है कि झारखंड में आदिवासी आबादी बहुत अधिक है, और वर्षों से आदिवासी समुदाय खुद को एक अलग समूह के रूप में देखता आया है जो एक अलग सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक पहचान की मांग करता रहा है। वहीं, एक अलग संहिता की मांग करने वाले आदिवासी समूहों ने तर्क दिया कि 1941 तक जनगणना में आदिवासियों के लिए एक अलग कॉलम था, जिसे आदिवासियों को मुख्य धारा में शामिल करने के लिए 1951 की जनगणना में हटा दिया गया था।

वहीं, 2011 की जनगणना में, जो लोग छह मान्यता प्राप्त धर्मों का हिस्सा नहीं थे, उनके पास ‘अन्य’ चुनने का विकल्प था और लगभग पचास लाख लोगों ने ‘अन्य’ कॉलम में खुद को ‘सरना’ के रूप में खुद को दर्ज कराया था। इनमें से 41 लाख 31 हजार 057 झारखंड से थे, जबकि शेष ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से थे। चूंकि झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है जिसकी राजनीति आदिवासी अधिकारों और कल्याण के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। 

लिहाजा, आदिवासियों के बीच एक बड़ा जनाधार रखने वाली पार्टी जेएमएम ने सरना कोड को चुनावी मुद्दा बनाने में अगुवाई की है। विधानसभा में प्रस्ताव पास कराने के बाद, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पिछले साल सितंबर 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर आगामी जनगणना में सरना को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने की मांग की थी।

तब सोरेन ने अपने पत्र में लिखा था कि- ‘1931 में आदिवासी आबादी 38.3% थी, लेकिन 2011 तक घटकर 26.02% रह गई।’ उन्होंने कहा कि समुदाय को एक अलग धर्म के तहत सुरक्षा की जरूरत है और केंद्र सरकार को राज्य के 2020 में केंद्र को भेजे गए प्रस्ताव पर कार्रवाई करनी चाहिए। वहीं, लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान, विपक्षी ‘इंडिया’ गठबंधन को आदिवासियों का समर्थन मिला और उसने राज्य की सभी पांच एसटी आरक्षित सीटें जीतीं।

यही वजह है कि भाजपा को भी अब इस मुद्दे के महत्व का एहसास हो गया है और पार्टी ने इस बारे में बोलना शुरू कर दिया है। झारखंड भाजपा ने कहा है कि, ‘हम सरना अनुयायियों के लिए भी लड़ रहे हैं, न कि उनके लिए जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया है। जिन्होंने सरना छोड़ दिया है और अन्य धर्म अपना लिए हैं, उन्हें एसटी आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।’ हालांकि, भाजपा का सरना कोड पर नवीनतम रूख आरएसएस से अलग है। 

उल्लेखनीय है कि आरएसएस पारंपरिक रूप से आदिवासी समुदायों को हिंदू धर्म का हिस्सा मानता रहा है। वह लंबे समय से अपनी आदिवासी शाखा वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से विभिन्न कार्यक्रमों के द्वारा उन्हें हिंदू धर्म में एकीकृत करने के लिए काम कर रहा है। आरएसएस के तहत काम करने वाले संगठन जनजाति सुरक्षा मंच के बिहार और झारखंड के क्षेत्रीय संयोजक संदीप उरांव ने भी कहा है कि, “सरना कोड को लागू करने से कई स्तरों पर समस्याएं पैदा होंगी। खासकर संविधान ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों को जो विशेष अधिकार दिए हैं, वो सब छिन जाएंगे। जिस क्षण आदिवासी सरना नामक एक अलग धर्म का हिस्सा बन जाते हैं, तो वे मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और जैनियों की तरह अल्पसंख्यक बन जाएंगे पर उन्हें संवैधानिक अधिकारों का लाभ कैसे मिलेगा, यह विचारणीय पहलू है? इसलिए हमलोग आदिवासी समुदाय के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए काम कर रहे हैं कि सरना कोड उनके अस्तित्व के लिए कैसे खतरा पैदा कर सकता है क्योंकि इससे धर्मांतरण का रास्ता साफ हो जाएगा और आदिवासी पहचान खो जाएगी।”

वहीं, जेएमएम ने आरोप लगाया है कि भाजपा का सरना कोड लागू करने का कोई इरादा नहीं है। यदि वह इस विषय पर गंभीर होती तो वे राज्य विधानसभा के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती और केंद्र से इसकी घोषणा कर देती। विधानसभा चुनाव तक प्रतीक्षा क्यों? ऐसे में सुलगता हुआ सवाल है कि जब सियासतदानों के ‘पथभ्रष्ट समूह’ के द्वारा ही सनातन धर्म (अब हिन्दू धर्म) के खिलाफ राजनीतिक षड्यंत्र किया जाएगा! उसके विभिन्न पंथों/सम्प्रदायों यानी उपधार्मिक समूहों को अलग-अलग धर्मों के रूप में मान्यता देकर उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाएगा! हिंदुओं को आपस में बांटने के लिए सभ्यतागत और संस्कृतिगत पम्पराओं की अनदेखी करते हुए बहुमत का सहारा लेकर उन्हें विभाजित किया जाएगा तो फिर वही होगा जिसे ‘भारतवासी हिन्दू’ सदियों से भुगत रहे हैं? ‘फूट डालो और राज करो’ की सत्तागत नीतियों के सहज शिकार बन जा रहे हैं! निकट भविष्य में इस सिलसिले के तेज होने के आसार हैं, क्योंकि साल दर साल वैश्विक रूप से सुपर पावर बनने की कतार में खड़े होते जा रहे भारत को कमजोर करने के लिए इससे नायाब हथकंडा कुछ हो ही नहीं सकता!

अतीत गवाह है कि कभी मुसलमान आक्रमणकारियों को बुलाकर हिन्दू राजाओं को मरवाया जाएगा तो कभी अंग्रेजों को बुलाकर हिन्दू रजवाड़ों को खत्म करने के लिए कपोलकल्पित कानूनों का सहारा लिया जाएगा और कभी विदेशियों द्वारा कांग्रेस जैसी सेफ्टी वॉल्व राजनीतिक पार्टी का गठन करके उसमें पिछलग्गू भारतीयों को जगह देकर जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा-सम्प्रदाय आदि के नाम पर सुनियोजित ‘ब्रिटिश कानूनी कूकर्मों’ पर सर्वसम्मति या बहुमत की मुहर लगवाई जाएगी! 

…..और हद तो यह कि आजाद भारत की संवैधानिक व्यवस्था के तहत भी उन्हें कुछ फेरबदल के साथ मान्यताएं देकर कानूनी रूप दे दिया जाएगा और फिर न्यायपालिका तर्क/न्याय देगी कि यह संविधान की मूल आत्मा है और अब इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता! मतलब कि भारत भूमि पर सनातन विरोधी षड्यंत्रों को कानूनी मान्यता देकर हमें कमजोर किया जा रहा है और हम इसका विरोध भी नहीं कर पा रहे हैं! यह कैसी बिडम्बना है? सुलगता सवाल है कि धर्मनिरपेक्ष भारत को जातिनिरपेक्ष भारत बनाने में किसको और क्या हर्ज है और फिर धर्म व जाति को राजनीतिक एजेंडा बनाने का क्या औचित्य है? ऐसा करने वाले दलों की मान्यता समाप्त क्यों नहीं की जाती!

सुलगता सवाल है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक मुद्दों पर मतदाताओं को गोलबंद किया जा रहा है, मुस्लिमों और ईसाइयों की जाति की बात नहीं करके सिर्फ हिंदुओं के जाति की बात की जा रही है! उनकी जातीय जनगणना की बात हो रही है! इतना ही नहीं, राष्ट्रवादी दलों के खिलाफ क्षेत्रीय मुद्दों पर बने क्षेत्रीय दलों को आगे करके राष्ट्रद्रोही सियासत की जा रही है और जनादेश को तार्किक ठहराकर हर तरह के पाप धोए जा रहे हैं लेकिन इनके खिलाफ कोई चूं-चपड़ की आवाज नहीं क्योंकि सब कुछ सुनियोजित और पूर्वप्रायोजित है। 

यदि आप पश्चिमी देशों और पड़ोसी देशों के भारत विरोधी साजिश से अनजान हैं और उनके ‘हवाला धन’ से चल रहीं कई कथित राजनीतिक पार्टियों, जिसकी अगुवाई कभी कांग्रेस तो कभी ‘भाजपा’ करती आई है, के हिन्दू विरोधी सियासी हथकंडों से नावाकिफ हैं तो आप अपना और अपने बच्चों के भविष्य को बर्बाद कर रहे हैं। आपको पता होना चाहिए कि भारत में अंतर्राष्ट्रीय शह पर हिन्दू विरोधी अभियान चलाया जा रहा है! हिंदुओं को परस्पर जोड़े रखने वाले ब्राह्मणों पर नीतिगत कुठाराघात किया जा रहा है!

आलम यह है कि हिन्दुओं को जाति-उपजाति और सम्प्रदायों में तोड़कर एक दूसरे के खिलाफ भड़काया जा रहा है, ताकि इस्लाम और ईसाई धर्म का अल्पसंख्यक गिरोह मजबूत हो सके! आखिर इन्हें कौन समझाएगा कि भारत में सिर्फ एक धर्म है और वो है ‘भारत धर्म’, यहां सिर्फ एक ही जाति है और वो ‘भारतीयता’ है! सभी भारत माता और हिमालय पिता की संतान हैं। यक्ष प्रश्न है कि जब सबके वोट की कीमत समान है, जब सबके खून के रंग समान हैं तो फिर अन्य विभिन्नताओं को संवैधानिक व कानूनी मान्यता क्यों? ये राजनीति का एजेंडा क्यों? बहुमत के लिए रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान की बात कीजिए। 

याद रखिए, यदि आप इन मुद्दों की बारीकियों को नहीं समझेंगे और लोगों को नहीं समझाएंगे तो मुगलों और अंग्रेजों की तरह अब काले अंग्रेज भी आतंकियों व नक्सलियों के द्वारा नष्ट कर दिए जाएंगे क्योंकि इनका भी एक राजनीतिक एजेंडा है जो पिछले 5-6 दशकों में भारत पर हावी प्रतीत हो रहा है! दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि कभी विदेशियों द्वारा स्थापित कांग्रेस पार्टी और अब ‘विदेशी बहू’ के ‘पारसी बच्चों’ द्वारा संचालित ‘कांग्रेस आई’ पार्टी, भी अपने ऐतिहासिक पतन के बाद शुरू हुए पुनरुत्थान के आलोक में भी भारतीय इतिहास और संस्कृति से सबक लेने को तैयार नहीं है! 

सवाल है कि नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक सत्ता में आने या बने रहने के लिए जिस वेस्टर्न पॉलिटिकल और इकोनॉमिक एजेंडे पर थिरकते रहने के लिए अभिशप्त हैं, उसमें बदलाव के बारे में क्यों नहीं सोचते? आखिर उन सबने कॉन्वेंट एजुकेटेड नौकरशाहों, जजों और उद्योगपतियों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रखी है, जो धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण की आड़ पर हिंदुओं को परस्पर तोड़कर निरंतर कमजोर करने में लगे हुए हैं! यदि ऐसा नहीं होता तो भारत में हिंदू धर्म से जुड़े सिख, बौद्ध और जैन पंथ/संप्रदाय को अलग से सिख धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के धार्मिक समुदाय के रूप में कानूनन मान्यता और अल्पसंख्यक दर्जा कदापि न दी जाती! और अब सरना धर्म कोड की बारी भी नहीं लाई जाती। आगे भी शैव, वैष्णव, आशाराम, राम-रहीम आदि के अनुयायियों को भड़काकर उनके मत को अलग धर्म के रूप में मान्यता दिलवाने की राजनीति की जा सकती है। इसलिए हिंदुओं का जगना जरूरी है!

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