राजनीति

राष्ट्रीय एकता की समस्या : हिन्दू और मुसलमान

communalrightsआधुनिक भारत एक संप्रभु राष्ट्र है, लेकिन भीतर-भीतर तमाम अंतर्विरोध भी हैं। क्षेत्रीयताएं उपराष्ट्रीयताएं जैसी हैं, इनका और भी संकीर्ण राजनैतिकरण हुआ है। भाषाई हिंसा है। राष्ट्र-भाषा हिन्दी बोलने वाले असम में मार दिए जाते हैं और महाराष्ट्र में पीटे जाते हैं। जाति अलग अस्मिता है, जाति के दल हैं, दलों की पहचान जाति है। इन सबके साथ और सबसे भिन्न हिन्दू-मुसलमान की दूरी है। राजनैतिक शब्दावली में यह साम्प्रदायिकता की समस्या है। राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में यह भारत की आंतरिक शक्ति को तोड़ने वाली है। हिन्दू और मुसलमान को पृथक-पृथक कौम मानने वालों की निगाह में भारत में कम से कम दो संस्कृतियां है। इसका अर्थ साफ है कि भारत के भीतर कम से कम दो राष्ट्र हैं। राजनीति साम्प्रदायिक भावनाओं का इस्तेमाल करती है, उन्हें दो कौम बताती है, एक को अल्पसंख्यक बताती है, विशेषाधिकार देती है, दूसरे को बहुसंख्यक बताती है। पंथ, मजहब ही पहचान या अस्मिता के कारण बताए जा रहे हैं। गांधी जी ने ‘हिन्दस्वराज’ (पृष्ठ-51) में तथ्य की बात लिखी दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया है हिन्दुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।

आस्था, धर्म, मजहब या रिलीजन राष्ट्र गठन का आधार नहीं होते। आस्था हरेक व्यक्ति का निजी विश्वास है। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है, अद्वितीय है। समान ईश-आस्था वाले भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। लेकिन आस्था के आधार पर समाज चलाने वाले पुरोहित, पादरी या मौलवी आस्थावादियों के जीवन में हस्तक्षेप करते आये हैं। आस्था वाले समाज अप्रत्यक्ष ईश्वर या देवता का आदर ज्यादा करते हैं, प्रत्यक्ष मनुष्य की महिमा-गरिमा को चोट पहुंचाते हैं। आस्था स्थाई भी नहीं होती। विज्ञान और दर्शनशास्त्र के ज्ञान आस्था ढहाते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही बहुदेववाद है, एकेश्वर-एक ईश्वरवाद भी है। आस्था है कि संसार को विश्वकर्मा नाम के एक देवता ने बनाया। ऋग्वेद के ऋषि उनकी स्तुतियां करते हैं लेकिन दार्शनिक होने के कारण प्रश्न उठाते हैं कि सृष्टि रचना के समय वे कहां बैठे? वह वन या वृक्ष अथवा आदि द्रव्य (मूल पदार्थ) क्या है? जिससे दुनिया बनी? (ऋ0 10.81.2 व 4) यहां आदर है, और प्रश्न भी हैं? आदरभाव संस्कृति का हिस्सा है, प्रश्नानुकूल भाव वैज्ञानिक चित्त की सूचना देता है। हिन्दू को सुविधा है कि वे अपनी आस्था को विज्ञान-दर्शन की प्रयोगशाला में जांचते हैं। मुसलमान ऐसा नहीं कर सकते। पवित्र कुरान अल्लाह की वाणी है। गीता में श्रीकृष्ण के उपदेश है। श्रीकृष्ण भगवान है। गीता के इतिहास और कथन की जांच होती है, हो रही है लेकिन कुरान की नहीं हो सकती। मुसलमान और हिन्दू की आस्था में फर्क हैं। हिन्दू उनकी आस्था का आदर करें, जो ऐसा नहीं करते उन्हें मुसलमान की कठिनाई समझने का प्रयास करना चाहिए। मुसलमानों को भी हिन्दू जीवन रचना और धर्म-दर्शन का सम्मान करना चाहिए।

हिन्दू धर्म और इस्लाम परस्पर विरोधी नहीं है। हिन्दू और मुसलमान भी परस्पर विरोधी नहीं है। गांधी जी ने ठीक लिखा है बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे। हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गये। सांतवी सदी के पूर्वाध्द तक भारत में मुसलमान नहीं थे। भारत के अधिकांश मुसलमान भारत के ही पूर्वजों की संताने हैं। धर्मांतरण से आस्था बदली है। वंशवृक्ष की जड़े एक हैं। यही अनुभूति दोनों को एक करने वाली है। बावजूद इसके वे लड़ते हैं। गांधी जी की दृष्टि में धर्म, मजहब की उपयोगिता है। वे हिन्दू और इस्लाम दोनो आस्थाओं के लिए धर्म शब्द का इस्तेमाल करते है। बताते हैं कि धर्म एक ही जगह पहुंचाने के अलग अलग दो रास्ते हैं। सवाल है कि दोनो धर्म कहां और किस जगह पहुंचने के रास्ते हैं? गांधी जी यह बात नहीं बताते। हिन्दुओं का बहुत बड़ा विवेकशील हिस्सा धर्म को इसी संसार को खूबसूरत बनाने की परिवर्तनशील आचार संहिता मानता है, अधिकांश विवेकशील मुसलमान मजहब इस्लाम को एक मुकम्मल जीवनशैली मानते हैं। प्रकृति परिवर्तनशील है। जीवनशैली जड़ नहीं हो सकती। हिन्दुओं ने ऋग्वैदिक काल से ही लगातार प्रकृति का अनुसरण किया है, अपनी जीवनशैली का अनुकूलन भी किया है। बेशक सभी मुसलमान अपनी आस्था और प्रतिबध्दता के चलते ऐसा पूरा अनुकूलन नहीं कर पाये लेकिन करोड़ो शिक्षित मुसलमान आधुनिकता के साथ आगे बढ़े हैं।

खिलाफत आन्दोलन दुनिया का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक जुनून था। तुर्क सम्राट मुसलमानों के खलीफा धर्मगुरू थे। उनकी मजहबी सत्ता को चुनौती दी गई थी। भारत के मुसलमान इस सवाल पर आहत थे। अंग्रेजी सत्ता के अत्याचार और शोषण भौतिक थे। अंग्रेजों के विरूध्द जारी आन्दोलन में हिन्दू और मुसलमान दोनाें का हित था लेकिन यह नई गाज गिरी। गांधी जी ने खिलाफत आन्दोलन को महत्वूपर्ण बताया। तुर्की अलग मुल्क और भारत अलग लेकिन मुसलमान दोनो देशों में हैं। दोनो की राष्ट्रीयताएं भिन्न हैं, मजहब एक है। लेकिन खिलाफत का सवाल राष्ट्रीयता से बड़ा हो गया। तुर्क साम्राज्य के भीतर बहुत सारी कौमें इस्लामी आस्था वाली थीं लेकिन कौमें राष्ट्रीयता के आधार पर तुर्को से लड़ रही थी। अरबों और तुर्को में भी लड़ाई थी। दोनो मुसलमान थे। गांधी जी ने अरबों की लड़ाई को ठीक ठहराया लेकिन अरबों को भी खलीफा के अधीन बने रहने का नया सिध्दांत गढ़ा। अरब आटोमन (तुर्क साम्राज्य-सम्राट के अधीन) न रहना चाहें तो क्या उन्हें जोर जबर्दस्ती से उनके साथ रखा जा सकता है। मैं अरबों की स्वाधीनता छीन लेने की बात का समर्थन नहीं कर सकता। बेशक, यह बात ठीक है, लेकिन उन्होंने आगे कहा वे स्वतंत्र रहें लेकिन खलीफा की सत्ता स्वीकार करके ही। (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय, 17.119) मजहब राष्ट्रीयता से बड़ा नहीं होता। अरब यह बात जानते थे, लेकिन खिलाफत आन्दोलन के संदर्भ में वे अरबों पर भी एक खलीफा थोप रहे थे।

सवाल यह है कि क्या गांधी साम्प्रदायिक थे? उन्होंने अपना उद्देश्य साफ किया, भारत के मुसलमानों के इतिहास के इस संकट काल में उनकी सहायता करके मैं उनकी मैत्री प्राप्त करना चाहता हूँ। (वही 17.502) गांधी का लक्ष्य बड़ा है। वे स्वराज की लड़ाई के लिए मुसलमानों के साथ प्रगाढ़ मैत्री चाहते थे। इस दोस्ती का उपकरण मजहब था, मजहबी भावनाएं थी। यहां राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रश्न नदारद हैं। गांधी जी के पक्ष में सोंचे तो कह सकते हैं कि राष्ट्र के प्रश्न गांधी जी के हृदय में हैं, वे इसी के लिए खिलाफत के समर्थक थे। विपक्ष में सोंचे तो कह सकते हैं कि गांधी जी घोर साम्प्रदायिक आन्दोलन का समर्थन कर रहे थे और यह उनकी ऐतिहासिक भूल थी। लेकिन गांधी जैसे महान व्यक्ति पर विचार करते समय पक्ष और विपक्ष में सोचने से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। उनके कथन और कर्म को समग्रता में ही जांचा जाना चाहिए। गांधी की समझदारी सुस्पष्ट थी। उन्होंने कहा, मुसलमान वक्ताओं ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि कोई भी विदेशी शक्ति भारत पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन करने की चेष्टा करेगी तो उसके प्रतिरोध में एक-एक मुसलमान बलिदान हो जायेगा। किंतु उन्होंने यह बात भी स्पष्ट रूप से कही यदि कोई बाहरी शक्ति इस्लाम की प्रतिष्ठा की रक्षा और न्याय दिलाने के लिए भारत पर आक्रमण करेगी, तो वे उसे वास्तविक सहायता न भी दें, पर उसके साथ उनकी पूरी सहानुभूति होगी। (वही, 17.527-28) डॉ0 अम्बेडकर के भी निष्कर्ष यही थे। गांधी जी इस्लामी आस्था से सुपरिचित थे। उनके सामने स्वाधीनता आन्दोलन की तैयारी की जरूरते थी। इसके लिए मुस्लिम समुदाय के समर्थन की दरकार थी। इसीलिए वे उनके हृदय परिवर्तन में जुटे थे। वे खिलाफत आन्दोलन में जुटे लेकिन परिणाम अच्छे नहीं आये। उन्होंने नवम्बर 1917 में लिखा, हिन्दू-मुसलमानों के बीच जो गांठ पड़ गई है, उनके दिल में जो कड़वाहट पैदा हो गई है – इसे कैसे दूर किया जाए? इन दोनों कौमों के बीच मित्रभाव की स्थापना करना ही मेरे जीवन का कार्य है। (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 14.77) गांधी जी आजीवन इस लक्ष्य की पूर्ति में जुटे रहे। वे निराश भी हुए लेकिन पराजय नहीं स्वीकार की। परिस्थितियाँ कमोवेश वैसी ही है। लेकिन कई चीजे बदली भी हैं। पाकिस्तान का गठन मजहबी था। पाकिस्तान राष्ट्र नहीं बन पाया। भारत के मुसलमान पाकिस्तानी मुसलमानों की तुलना में ज्यादा मजे में हैं, उन्हें सभी नागरिक अधिकारों के साथ ही तमाम विशेषाधिकार भी हासिल हैं। वातावरण हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्ष में है। इस दिशा में प्रयत्न जारी रखने की ही जरूरत है।

– हृदयनारायण दीक्षित