केंद्रीय मंत्री मण्डल ने गरीबों को सस्ते अनाज का कानूनी अधिकार दिलाने के मकसद से खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंजूरी देकर एक अच्छा काम कर दिया है। यूपीए की प्रमुख सोनिया गांधी की इस मंशापूर्ति के चलते अब देश की 63.5 फीसदी आबादी को कानूनी तौर पर तय सस्ती दर से खाद्य सुरक्षा का अधिकार मिल जाएगा। अब कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह इस महत्वाकांक्षी विधेयक को इसी लोकसभा सत्र में पारित कराकर अमल में लाए क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार की पृष्ठभूमि में पिछला चुनाव जीतने के मुख्य कारणों में मनरेगा और किसानों की 60 हजार करोड़ की कर्जमाफी है। भ्रष्टाचार, कालाधन और लोकपाल के जंजाल में उलझी कांग्रेस को उबारने का कोई कारगर उपाय है तो वह देश के ग्रामीण क्षेत्र की 75 फीसदी आबादी और शहरी क्षेत्रों में 50 फीसद आबादी को खाद्य सुरक्षा के दायरे में ले आए। यूपीए घटक दलों के नेता और योजना आयोग इस महत्वपूर्ण योजना को इसलिए टालना चाहते थे, जिससे सरकार को अनाज की उपलब्धता और सब्सिडी खर्च 27,663 करोड़ रूपए का अतिरिक्त भार उठाना न पडे़। मंदी के घटाटोप के चलते गरीबों को दी जाने वाली इस छूट को राजकोषीय घाटे का आधार बन जाने का बड़ा कारण भी जताया जा रहा था।
पिछले आमचुनावी घोषणा-पत्र में कांग्रेस ने सभी गरीबों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की गारंटी दी थी। इस वायदे पर अमल के लिए सोनिया गांधी की अध्यक्षता में काम कर रही राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) ने प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत देश की करीब 75 प्रतिशत गरीब जनता को सस्ता अनाज मुहैया कराने की सिफारिश केंद्रीय मंत्री मण्डल को की थी। पहले, कयास लगाए जा रहे थे कि यह सुझाव अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री, योजना आयोग के अध्यक्ष अहलूवालिया और शरद पवार के गले नहीं उतर रहा है। इसीलिए नहले पर दहला जड़ते हुए प्रधानमंत्री ने खुद की ही अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति को एनएसी के सुझाव पर सुझाव देने के लिए आगे कर दिया था। इसके प्रमुख कर्ताधर्ता सी रंगराजन ने एनएसी के प्रस्ताव को ठुकराते हुए दो टूक सलाह दी कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा केवल गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों तक सीमित रहनी चाहिए। इसे बेवजह ज्यादा विस्तार दिया गया तो सरकार पर आर्थिक संकट गहराएगा। रंगराजन का तर्क था कि केवल जरूरमंद परिवारों को 2 रूपए किलो के भाव पर गेंहू और 3 रूपए किलो पर चावल का अधिकार दिया जाए। बांकी आबादी के लिए सस्ते कानून की योजना का क्रियान्वयन सरकारी आदेश के तहत सुरक्षित रखा जाए।
अब ये अटकलें सही साबित होती लग रही हैं कि सोनिया गांधी खाद्य सुरक्षा विधेयक के जरिए 2014 में होने वाले आम चुनाव में राजनीतिक मकसदों को भुनाना चाहती हैं। जबकि वैश्विक कॉरपोरेट जगत के दबाव में काम करने वाले मनमोहन सिंह, शरद पवार और आहलूवालिया की इच्छा थी कि आर्थिक सुधार न केवल जारी रहें, बल्कि इन्हें विभिन्न छूटों, कर कटौतियों और ऋण-मुक्तियों की सौगातें देकर प्रोत्साहित किया जाता रहे। इस नजरिये से इस मुददे को फिलहाल टालने के लिए बड़ी साफगोई से रंगराजन ने आर्थिक आधार पर गरीबों की पहचान की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालकर विधेयक को लटकाने का काम कर दिया था। किंतु सोनिया गांधी ने अपनी इस स्वप्निल परियोजना को पलीता लगने से बचा लिया। गोया, अब राजनीति और अर्थशास्त्र के द्वंद्व पर विराम लग गया है और उम्मीद है कि इसी चालू सत्र में यह विधेयक पारित होकर कानूनी दर्जा प्राप्त कर लेगा।
इस द्वंद्व का विशलेषण करें तो पता चलता है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने तो देश की लगभग 75 फीसदी आबादी को सस्ते राशन का पात्र मानकर, उन्हें दो रूपये प्रति किलो की दर से गेहूं और तीन रूपये प्रति किलो की दर से चावल प्रति परिवार 35 किलो देने का प्रस्ताव दिया था। जबकि आर्थिक सलाहकार परिषद् के सी रंगराजन ने अपनी विशेष रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि केवल वास्तविक जरूरतमंदों को अनाज मुहैया कराया जाए। इस सिफारिश के दायरे में 46 फीसदी ग्रामीण आबादी और 28 फीसदी शहरी आबादी आ रही थी। समिति का दावा था कि उसने गरीबों के साथ कुछ सीमांत परिवारों को भी प्रस्तावित कानून के भीतर समेटने की कोशिश की है। सीमांत परिवारों के शामिल होने पर 10 फीसदी और गरीब विधेयक का हिस्सा बनाए जा सकते थे। लेकिन इसके ऊपर के लोगों को सस्ता अनाज देना रंगराजन न केवल अव्यावहारिक मानते थे, बलिक राष्ट्र की अन्य कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जोखिम भी मानकर चल रहे थे। रंगराजन की मंशा को ही शरद पवार तरजीह दे रहे थे।
अब ,खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे के अनुसार इसके पहले चरण के तहत प्राथमिकता और सामान्य परिवारों को मिलाकर कुल आबादी के 72 फीसद हिस्से को छूट वाले आनाज के कानूनी दायरे में लाया जाएगा। दूसरे चरण 2013-14 तक 75 फीसद आबादी को इसके दायरे में लाया जाए। इस विधेयक में बेसहारा और बेघर लोगों, भुखमरी और आपदा प्रभावित लोगों जैसे विशेष समूह के लोगों के लिए भोजन उपलब्ध कराने का भी प्रावधान है। साथ ही इसमें गरीब गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक के लागू होने के बाद 7 करोड़ 40 लाख टन अनाज की जरूरत होगी। जबकि वर्तमान हालातों में समर्थन मूल्य के जरिये सरकार 5 करोड़ 76 लाख टन अनाज ही खरीद पाती है। यही नहीं 75 फीसदी गरीबों को सस्ता अनाज देने पर अब छूट (सब्सिडी) का आंकड़ा 83 हजार करोड़ रूपये पर जा अटकेगा। रंगराजन इसी छूट को कल्याणीकारी योजनाओं के प्रभावित होने का आधार मानकर चल रहे थे। जहां तक 83 हजार करोड़ की छूट राशि का सवाल है तो यह उस 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की राशि एक लाख 76 हजार करोड़ से बहुत कम है, जिसे एक झटके में ही चुनिंदा नेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों के गठजोड़ ने हड़प कर विदेशी बैंकों में जमा कर दिया। राष्ट्रकुल खेलों और उत्तरप्रदेश में हुए अनाज घोटाले की तुलना में 83 हजार करोड़ की गरीबों के लिए छूट के कोई मायने नहीं हैं। यदि प्रति वर्ष एक निश्चित धनराशि गरीबों के भोजन की जरूरत बनेगी तो उन भ्रष्ट योजनाकारों को भी आसमानी-सुलतानी योजनाएं बनाने की जरूरत नहीं रह जाएगी, जो केवल कागजी होती हैं और भ्रष्ट गुंताड़ियों का गठजोड़ बाला-बाला इन योजनाओं को डकार जाता है।
यह सही है अगर अनाज ज्यादा खरीदा जाएगा तो उसके भण्डारण की भी अतिरिक्त व्यवस्था को अंजाम देना होगा। क्योंकि उचित व्यवस्था की कमी के चलते बीते साल हमारे गोदामों में करीब 168 लाख टन गेहूं खराब हो गया था। यह भारतीय खाद्य निगम के कुल जमा गेहूं का एक तिहाई हिस्सा था। इस अनाज से एक साल तक 2 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता था। लेकिन यह अनाज केवल भण्डारों के अभाव में खराब होने की बनिस्पत भण्डारण में बरती गई लापरवाही के चलते खराब हुआ। उस दौरान कुछ पुख्ता जानकारियां ऐसी भी आई थीं कि पंजाब में भारतीय खाद्य निगम ने कुछ गोदाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किराए पर भी उठा दिए थे। इन कारणों से कंपनियों का माल तो सुरक्षित रहा किंतु गरीबों का निवाला सड़ता रहा।
हमारी राज्य सरकारें भी आबंटित कोटा वक्त पर नहीं उठातीं। क्योंकि पीडीएस के अनाज का ढुलाई खर्च उन्हें उठाना होता है। पिछले वर्ष हापुड़ में बारिश से जो गेहूं नष्ट हुआ था, वह उत्तरप्रदेश के गरीब तबके का था और आबंटित हो चुकने के बावजूद उसे समय पर उठाया नहीं गया था। उच्चतम न्यायालय भी केंद्र सरकार को भण्डारण और वितरण के ठोस इंतजाम करने की हिदायत पहले ही दे चुका है। दरअसल अब सरकार को भण्डारण के इंतजाम पंचायत स्तर पर करने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो अनाज का दोतरफा ढुलाई खर्च तो बचेगा ही, इस प्रक्रिया में अनाज का जो छीजन होता है उससे भी निजात मिलेगी। लेकिन नौकरशाही ऐसा करने नहीं देगी ? क्योंकि ढुलाई और छीजन दोनों ही स्थितियों में उसकी जेबें गरम होती हैं। वैसे पंचायत स्तर पर ऐसे भवन उपलब्ध हैं जिनमें सौ-सौ, दो-दो सौ क्विंटल अनाज रखा जा सकता है। यह सुविधा ग्राम स्तर पर दी जाती है तो इससे मिलने वाले किराये से ग्रामीणों की माली हालत में भी इजाफा होगा और सरकार का परिवहन खर्च भी बचेगा। अनाज का छीजन भी नहीं होगा।
खाद्य सुरक्षा के नए विधेयक में खाद्यान्न के बदले नगद सब्सिडी का भी विकल्प सुझाया गया है। किंतु यह विकल्प व्यावहारिक नहीं है। इससे तो पीडीएस प्रणाली और भ्रष्ट हो जाएगी। इस तरह की सोशेबाजी सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के नजरिये से प्रस्तावों में शामिल की गई है। जबकि यह खर्च गरीबों के उत्थान के मद में दिखाया जाएगा। बहरहाल खाद्य सुरक्षा विधेयक का जो प्रारूप सामने लाया गया है, उसकी गरीबों के लिए सार्थकता है। इसे जल्द लोकसभा में पारित कराकर अमल में लाने की जरूरत है।
अगर मैं यह कहूं की यह पूरी खाद्य सुरक्षा योजना बकवास है और देश पर एक बड़ा बोझ और घोटालों को बढ़ावा देने वाली योजना है तो शायद ही कोई मेरे साथ सहमत हों,पर वास्तविकता यही है.यह पूरी योजना वर्तमान जन वितरण प्रणाली द्वारा लागू की जाने वाली है.आज हमारे जन वितरण प्रणाली की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है.अतः कितने बड़े घोटाले को जन्म देने जा रहीव है यह योजना ,वह तो भविष्य ही बताएगा. दूसरी जो ख़ास बात जिस पर किसी का ध्यान नहीं है वह हैअलग अलग राज्यों की अपनी खाद्य समस्याएं .गुजरात और झारखंड की समस्याएं एक नहीं हो सकती .दिल्ली और कोलकता की समस्याएं भी अलग होंगी.दूसरी समस्या यह होंगी की बहुत ही मजबूरी में ही लोग इन राशन दूकानों से सड़े अनाज खाने के लिए उठाएंगे.ज्यादातर अन्न यो ही पड़ा पड़ा सड़ता रहेगा.
भार्गव जी आपसे कुछ सवाल:
१) आरक्षण केवल स्वतंत्रता के प्रथम १० वर्षों तक ही दिया जाना था ! एक आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति भी आरक्षण का लाभ ले रहा है क्यूँ ले रहा है और कैसे ले रहा है, आज क्या परिस्थितियां हैं आप मुझसे बेहतर जानते हैं!
२) अगर खाद्य सुरक्षा बिल लाया गया है तो क्या ये सच नहीं है की कुछ और घोटालों के लिए जमीन तैयार की जा रही है ? क्यूँ नहीं किसानों के हक़ की बात की जा रही और लोगों के स्वाभिमान को जगाने का प्रयास किया जा रहा? बिना कोई काम धाम किये मुफ्त में ही जब इतना कुछ किसी को मिल जाए तो लोग काम क्यूँ करेंगे?
३) अगर जितना पैसा खाद्य सुरक्षा के नाम पर लगाया जाएगा उतना ही पैसा किसी ऐसी परियोजना में लगाया जाए जिससेकुछ सीखकर जरूरतमंद लोग अपना जीवनयापन को बेहतर बना सकें तो क्या ये देश के लिए लाभकारी नहीं होगा?