कहानी राजेश खन्ना की

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  रामकृश्ण

राजेश खन्ना से मेरी पहली मुलाकात चेतन आनन्द की फि़ल्म आखरी ख़त के सेट पर हुर्इ थी. उसका नाम तब जतिन था. यूनाइटेड प्रोडयूसर्र टेलेन्ट कान्टेस्ट में उसे यधपि सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था लेकिन महीनों तक उस संस्था से सम्बद्ध निर्माताओ को उसकी ओर  एक नज़र देखने तक की फुरसत नहीं मिल पायी. इन्द्राणी मुखर्जी आखरी ख़त की हीरोइन थी और मेरे घर हर दूसरे-तीसरे दिन उसका आना-जाना जैसे एक पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम बन चुका था. ऐसे ही किसी मौके पर एक बार वह मुझसे बोली थी – चलो, अपने नये हीरो से तुम सबको मिलवाऊं. बड़ा भोलाभाला है वह, एकदम मासूम.  सेट पर मेरे साथ भी डायलाग बोलने मे उसे शर्म आती है, अगर कोर्इ अजनबी पहुंच जाये तब तो अपना मुंह छिपा कर ग्रीनरूम की ओर भागने के अलावा उसके सामने कोर्इ चारा ही नहीं बचता. लेकिन है बेहद शरीफ़ और वज़ादार. तुमको उससे मिल कर खुशी होगी.

राजेश का नाम मैंने पहले न सुना हो, ऐसी बात नहीं थी. चेतनजी के साथ मेरा पुराना घरोपा था. जिन दिनों वह हकीकत का निर्माण कर रहे थे उन दिनों भी उसकी चर्चा अक्सर सुनने में आया करती थी. आखरी ख़त  की कथाभूमि बताते हुए एक बार चेतनजी ने मुझे बताया भी था कि चूंकि उस फि़ल्म का केन्द्रीय चरित्र तीन साल का बन्टी है और उसी के इर्दगिर्द फि़ल्म की पूरी कहानी घूमती ह,ै इससे उसमें लब्धप्रतिष्ठ कलाकारों को लेने का कोर्इ सवाल ही नहीं पैदा होता.  सहायक भूमिकाओं के लिये जिन नये अभिनेताओं का स्क्रीन टेस्ट वह ले चुके थे उनमें राजेश का नाम अग्रतम था.  तब तक उसकी एक भी फि़ल्म परदे पर नहीं आ पायी थी, हालांकि राज़ नामक किसी फिल्म के लिये वह अनुबंधित किया जा चुका था. राज़ भी चूंकि आखरी खत के काफ़ी बाद प्रदर्शित हो पायी थी, इससे राजेश को परदे पर प्रस्तुत करने का पहला सेहरा चेतन आनन्द के सिर पर ही बांधा जायेगा.

उस समय राजेश से मेरी मुलाकात ज़रूर हुर्इ, लेकिन इन्द्राणी के माध्यम से नहीं बलिक चेतनजी के साथ. सुबह मैंने उन्हें टेलिफ़ोन कर दिया था कि स्टूडियो जाते समय वह रास्ते में मुझे ले लें. शूटिंग शायद महबूब स्टूडियो में हो रही थी और जुहूस्थित रूइया पार्क से बांदरा जाते समय मेरा घर दोनों के बीच में पड़ता था. इन्द्राणी की संस्तुति का उल्लेख करते हुए मैंने चेतनजी को बताया था कि दर-असल मैं उनकी फि़ल्म के नायक से मिलने के लिये उत्सुक हूं, फि़ल्म की शूटिंग देखने में मुझे कोर्इ उत्सुकता नही. उन दिनों महीने में एक बार मैं किसी नये कलाकार का इन्टरव्यू स्केच प्रसारित किया करता था, और राजेश उसके लिये मुझे पूरी तरह मौज़ंू प्रतीत हुआ था.  चेतनजी से पता चला कि उस दिन उसका कोर्इ शेडयूल था ही नहीं.

लेकिन महबूब स्टूडियो पहुंचने के पहले ही चेतनजी आश्वस्त करते हुए मुझसे बोल उठे थे –  परेशानी की कोर्इ बात नही. जतिन को मैं स्टूडियो में ही बुलवा लेता हूं. पबिलसिटी के नाम पर तो वह दौड़ा हुआ चला आयेगा.

और यह कहते हुए उन्होंने तत्काल अपने एक सहकर्मी को राजेश के घर रवाना कर दिया था. तब तक उस के पास टेलिफ़ोन सुविधा उपलब्ध नहीं हो पायी थी.

आध घन्टे के अंदर ही राजेश स्टूडियो प्रांगण के अन्दर था – पीले रंग वाली एक बिलकुल मामूली टैक्सी पर. देखते ही इन्द्राणी उसे मेरे पास ले आयी थी. बड़ा शर्माया सा चेहरा था उसका, झुकी झुकी आंखें और होठों पर सिमत हास्य की एक महीन सी रेखा. अपनी कुछ तस्वीरें भी वह साथ लाया था जिसे पहुंचते ही उसने मेरे हाथों में थमा दिया. सबके सामने उसे सहज होने में ज़रूर ही कुछ देर लगी थी. फिर जैसे जैसे बातें आगे बढती गयी वह धीरे-धीरे खुलता गया, लेकिन खुलने के बाद भी उसकी बातचीत के अन्दाज़ में क़तर्इ कोर्इ तबदीली नहीं आ पायी थी. चेहरे पर वही भोलापन था, आंखों में वही मासूमियत और बातचीत के लहज़े में वही शर्मीली अदा. बाद में चेतनजी को अपना तत्संबंधित आकलन जब मैंने बताया तो उन्होंने अपनी चिरपरिचित मंद मुस्कान के साथ जवाब दिया था – जितना नादान तुम उसे समझते हो उतना मासूम वह है नहीं. आंखों की पुतलियां और होठों के अन्दर छिपी मुस्कान निरन्तर उसके अन्तस की चुगली करती रहती हैं. पहली नज़र में भोला-भाला हम उसे निशिचत ही कह सकते हैं, लेकिन वह भोला कम है और भाला ज्यादा – इतना याद रखना.

चेतनजी की इस राय के बावजूद दूसरे-तीसरे ही दिन उससे संबंधित सामग्री मैंने अपने पत्रों को रवाना कर दी थी और महीना-पन्द्रह दिनों के अन्दर ही उसका प्रकाशन भी हो गया था. आलेख की कतरनें मैंने इन्द्राणी के सिपुर्द कर दी थीं जिन्हें उसी दिन उसने राजेश तक पहुंचा दिया था. बाद में पता चला कि उस इंटरव्यू की फ़ोटोप्रतियां उसने अपने पोर्टफ़ोलियो-अलबम में शामिल कर ली थीं और हर खासोआम फि़ल्म निर्माता के सम्मुख सबसे पहले वह उसी का प्रदर्शन किया करता था.

इस बीच राजेश की प्रेरक, प्रियतमा, प्रेयसी और कुछ ही अन्तराल के बाद संभाव्य परिणय के कगार पर पहुंचने वाली अभिनेत्री अंजू महेन्द्रू से भी मेरी थोड़ी बहुत राहरस्म हो गयी थी. अंजू फिलिमस्तान के सर्वेसर्वा रायबहादुर चुन्नीलाल की नवासी और सुप्रसिद्ध संगीतकार मदनमोहन की भांजी थी और उसी के प्रयत्नों से फि़ल्मी दुनिया में राजेश को प्रवेश मिला था. बम्बर्इ के फि़ल्म संसार में लिव-इन रिलेशनशिप की शुरूआत इन्हीं दोनों के माध्यम से हुर्इ थी. इस तरह के विवाहेत्तर संबंध पहले कभी न रहें हों, यह बात नहीं. मोतीलाल और शोभना समर्थ की अंतरंगता इस बात की ज्वलन्त मिसाल हैं. दोनों बरसों साथ साथ रहे, लेकिन तत्संबंध में कोर्इ कानाफूसी तक नहीं हुर्इ. खुल्लमखुल्ला और चोरी-छिपे प्यार करने में ज़मीन आसमान का अन्तर होता है, और अंजू-राजेश ने अपने संबंधों पर कभी परदा डालने की कोशिश नहीं की.  अब तो बम्बर्इ की फि़ल्मी सरज़मीन पर यह परिपाटी बिलकुल आम हो चुकी है और आज के दिन शायद ही कोर्इ ऐसा अभिनेता वहां मिलेगा जिसके पहलू में कोर्इ अंकशायिनी न हो.  लेकिन तब तक इस प्रचलन को किंचित सामाजिक मान्यता नहीं प्राप्त हो पायी थी और इसी से उसके प्रति लोगों का कुतूहल था.

तीसरी कसम के बाद बासु भट्टचार्य ने जिस फि़ल्म का निर्देशन किया था उसका नाम था उसकी कहानी, और अंजू उस फि़ल्म की नायिका थी. तीसरी कसम के अलावा बासु ने जितनी फि़ल्में बनायीं उन सब की मुख्य पात्राआे के साथ वह अपने अंतरंग संबंध स्थापित करने में आश्चर्यजनक रूप से समर्थ और सक्षम रहता आया था – फिर वह चाहे तनुजा (अनुभव) हो, शर्मिला टैगोर (आविष्कार और गृहप्रवेश) हो या फिर रेखा (आस्था).  अपनी प्रत्येक फि़ल्म की इनडोर शूटिंग उसने हमेशा अपनी हीरोइनों के शाानदार घरो में की, जहां बगैर एक धेला खर्च किये बने बनाये सेट उसे सहज-स्वाभाविक रूप से मिल जाते थे. इतना ही नहीं, अपनी यूनिट का पूरा खाना भी वह उन्हीं अभिनेत्रियो से बनवाया करता था जिनके इर्दगिर्द फि़ल्म की कहानी घूमती थी, और अचरज की बात यह कि ऐसे अजीबोगरीब कामों को अंजाम देने में न कभी किसी ने कोर्इ आपत्ति  प्रदर्शित की और न ही किसी तरह का विरोध प्रकट किया – वह भी तब जब उस खानपान का पूरा व्ययभार भी उन्हीं लोगो के पल्ले पड़ता था.

बासु ने इंदिरा गांधी को केनिद्रत करके जो फ़ीचर फि़ल्म बनायी थी उसकी यूनिट के खानपान का प्रबंध भी प्रधानमंत्री आवास द्वारा किया जाता था. जिन दिनों उस फि़ल्म के निर्माण का कार्य चल रहा था उन दिनों एक भीगी बिल्ली की तरह इनिदरा बासु के निर्देशों का पालन करती थीं, इस बात का विश्वास कर सकता है कोर्इ क्या? कहते हैं, एक बार सुबह चार बजे इनिदरा को सो कर उठने की हिदायत बासु ने दी थी, ओर वह न केवल समय के पहले जग कर तैयार हो गयी थीं बलिक शांतिवन में सम्पन्न होने वाली फि़ल्म की शूटिंग में भी उन्होंने सोत्साह भाग लिया था. प्रत्यक्षदार्शियों का कहना है कि जब बासु ने उनको निर्देशित किया कि अपने आंचल से वह अपने पिता की समाधि पर पड़ी धूल को साफ़ करें तो पहले तो उन्होने कुछ हिचक प्रदर्शित की थी लेकिन अन्तत: उन्हें वह दृश्य फि़ल्माना ही पड़ा था. अमृता प्रीतम के सहयोग से वह फि़ल्म पूरी भी हो गयी थी – मुझे स्वयं उसके कुछ हिस्सों को देखने का मौका मिला था – लेकिन उसका प्रिन्ट अब कहां और किस हालत में है इसका अतापता शायद किसी को भी नहीं.

बात चल रही थी उसकी कहानी की. उस फि़ल्म में अंजू के अतिरिक्त किन दूसरे कलाकारों ने अभिनय किया किया था, इसकी याद अब मुझे नहीं. उत्तरप्रदेश फि़ल्म पत्रकार संघ के प्रायोजित कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने के उद्देश्य से मुझे अचानक लखनऊ लौट आना पड़ा था, और उस अवधि में फि़ल्मी दुनिया के साथ मेरे सारे औपचारिक-अनौपचारिक सम्पर्क-संबंध पूरी तरह क्षीण होकर रह गये थे, हां, इतना स्मरण ज़रूर है कि अंजू की तरह कैफ़ी आज़मी की भी वह पहली फि़ल्म थी. उसके पहले कैफ़ी एक शाइर के रूप में भले ही पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुके हो, लेकिन लिरिकिस्ट के रूप में उनका नाम कोर्इ नहीं जानता था.

अंजू उन दिनों एक खुली, खिली और बिन्दास की हद तक खिलंदड़ी लड़की थी. अपनी मां के सामने भी धड़ाधड़़ सिगरेट के छल्ले  बनाने में उसे किंचित कोर्इ संकोच नहीं होता था. अपने आभिजात्य का भी उसे पूरा ज्ञान था और उसे भुनाने में भी उसने कभी कोर्इ कोर-कसर नहीं छोड़ी. अब तो उसके चेहरे-मोहरे में काफ़ी कटु कठोरता आ गयी है, लेकिन उन दिनों पहली नज़र में वह प्यारी भी लगती थी और कामोíीपक भी. उसके नाना चूंकि फिलिमस्तान जैसे स्टूडियो के मालिक थे, उससे उसका प्रभाव भी काफ़ी व्यापक था.  इसी गुण से शायद राजेश उसकी ओर आकृष्ट हुआ होगा, क्योंकि सामाजिक स्तर पर दोनों में किंचित कोर्इ साम्य नहीं था. आखरी खत के लिये भी उसने अपने मामा मदनमोहन के माध्यम सेे चेतनजी तक सिफ़ारिश पहुंचायी थी, अन्यथा राजेश का चुना जाना ज्यादा आसान नहीं था. मदनमोहन चेतनजी के अभिन्न मित्रों में थे और हिमालय प्रोडक्शंस की कर्इ नामी फि़ल्में उन्हीं के संगीत से सजी-संवरी थीं.

आखरी खत के निर्माण के बाद एक-दो बार मुझे राजेश से मिलने के और अवसर मिले, लेकिन किसी स्टूडियो में नहीं बलिक अंजू के घर पर. अंजू के सामने वह इतना निरीह और दबा-दबा प्रतीत होता था कि लगता था जैसे कोर्इ खरगोश अचानक शेर के पिंजड़े में पहुंच गया है. अंजू की मां शांति महेन्द्रू भी उसके साथ इस तरह व्यवहार करती थीं जैसे वह उनकी बेटी का प्रेमी नहीं बलिक कोर्इ ज़रखरीद गुलाम हो. यह सब देख कर बासु से मैंने उसी समय कह दिया था कि इन लोगों का प्रेम प्रसंग ज्यादा दिनों तक चलने वाला नही. और अन्तत: हुआ भी वही. जैसे जैसे बाक्स आफि़स पर राजेश के सेंसेक्स का भाव ऊपर उठता गया वैसे वैसे अंजू से भी उसकी दूरी बढ़ती गयी, और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों एक दूसरे के लिये बिलकुल अजनबी बन गये.

राजेश के कैरियर-ग्राफ़  का उभाड़ शकित सामन्त की फि़ल्मो के द्वारा हुआ. कटी पतंग, आराधना  और अमरप्रेम ऐसी ही फि़ल्में थीं. कटी पतंग के प्रिमायऱ में उसके सम्वादकार व्रजेन्द्र गौड़ के आग्रह पर मैं भी शामिल हुआ था. फि़ल्म की कहानी भले ही गुलशन नन्दा के उपन्यास पर आधारित हो लेकिन राजेश और आशा पारेख का अभिनय उसमे निशिचत ही उल्लेखनीय था. शकित सामन्त किसी ज़माने में व्रजेन्द्र के सहायक हुआ करते थे और निम्मी-सज्जन अभिनीत कस्तूरी में उन्होंने व्रजेन्द्र के थर्ड असिस्टेंट के रूप में अपना काम शुरू किया था. हावड़ा बि्रज और चाइना टाउन जैसी रहस्यात्मक और कश्मीर की कली जैसी रोमांटिक फि़ल्मों के निर्माण में अतीव सफलता हासिल करने के बाद उन्होने सामाजिक धरातल के कथानकों पर ज़ोर आज़माना शुरू कर दिया था, और उस दिशा में कटी पतंग उनकी पहली चर्चित फि़ल्म थी. फि़ल्म के प्रिमायर पर हालांकि उनके साथ सरसरी तौर पर मेरा परिचय पहले ही हो चुका था, लेकिन उसमें नैकटî आया व्रजेन्द्र के खारस्थित आवास में उनसे मिलने के बाद.

शकित सामन्त बहुत ही धीर-गंभीर, सुलझे और समझदार फि़ल्म निर्माता थे. बोलते वह बहुत कम थे, लेकिन उनकी वाणी में सार होता था. उनकी औपचारिक बातचीत में भी अदम्य अनौपचारिकता रहती थी, और इसी से हर आदमी न केवल उनके प्रति सहजरूप से आकृष्ट हो उठता था बलिक उनसे मिलने के बाद उसे यही प्रतीति होती थी जैसे वह अपने किसी अनन्य आत्मीय और शुभचिन्तक से मिल रहा हो. उन दिनों वह मेरे अपार्टमेन्ट से कुछ ही दूरी पर स्थित मीराबाग़ कालोनी मे रहते थे, हालांकि उनका कार्यालय अंधेरी-स्थित नटराज स्टूडियो में अवस्थित था. संगीतकार रवि भी मीराबाग़ में ही रहते थे, जिनके यहां अक्सर मेरा आना जाना रहा करता था. एक दिन जब रस्मी तौर पर मैं शकित से मिलने उनके घर पहुंचा तो देखा कि व्रजेन्द गौड़ भी वहां उपस्थित हैं. उत्तरप्रदेश फि़ल्म पत्रकार संघ के वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा शीघ्र ही होने वाली थी, इसलिये व्रजेन्द्र ने मुझे सुझाव दिया कि क्योें न उसकी सूची मेे हम कटी पतंग को भी शामिल कर लें. उस वर्ष की सर्वोत्तम चित्रकृति के रूप में चूंकि हम पहले ही तरुण मजूमदार की राहगीर का चयन कर चुके थे इससे कटी पतंग को तत्संबंधित पुरस्कार देने का कोर्इ प्रश्न ही नही उठता था, लेकिन राजेश और शर्मिला को विेशेष पुरस्कारों से अलंकृत करने के संबंध में हम लोगों की सहमति हो गयी. लखनऊ वापस पहुंचते ही दोनों के चयनित होने की औपचारिक सूचना मैंने उनको दे दी और उन्होंने भी वापसी डाक से तत्सबंध में अपना स्वीकृतिपत्र भेजते हुए इस बात का अनुल्लंघनीय वायदा किया कि बगैर किसी शक या शुबहा हमारे प्रशसित-पर्व में वह शिरकत करेंगे.

शकित सामन्त और व्रजेन्द्र गौड़ दोनों ही उस समारोह में समिमलित हुए थे, लेकिन राजेश और शर्मिला का आखरी दम तक कोर्इ अता-पता नहीं चल पाया. न कोर्इ खत, न तार और न कोर्इ टेलिफ़ोन. शकित स्वयं उनके इस गैर-जिम्मेदाराना रवैया से व्यथित थे. दो दिन पहले तक शकित के सम्मुख वह अपने उस कथन को रेखांकित करते रहे थे जिसमें उन्होंने पक्का वायदा किया था कि पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वह निशिचत ही यथासमय लखनऊ पहुंच जायेंगे. उनके हवार्इ टिकटों की बुकिंग भी करायी जा चुकी थी, और इस बात में रत्ती भर सन्देह नहीं रह गया था कि वह निशिचतरूप से अपने उस वायदे का पालन करेंगे.

शर्मिला से तो चूंकि तब तक मेरी ज्यादा राहरस्म नहीं हो पायी थी इससे उसकी अनुपसिथ्ति मुझे ज्यादा नागवार नहीं लग पायी, लेकिन राजेश के न आने से मैं ज़रूर आश्चर्यचकित रह गया था. कटी पतंग लोकप्रियता के द्वार पर ज़ोरशोर से अपनी दस्तक देने वाली उसकी पहली फि़ल्म थी, और अगर उसी से संबधित पुरस्कार की अवहेलना करने का प्रयास उसने किया तो आगे वह क्या कर बैठेगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था. शकित सामन्त को सामान्यत: किसी ने झुंझलाते नही देखा, लेकिन उस समय वह भी राजेश द्वारा व्यक्त हमारी उस अवमानना से तिलमिला कर रह गये थे. चलते समय जब मैंने उनको इशारा किया कि इस गैरजिम्मेदारी के लिये हम हरगिज़ उसको माफ़ करने के लिये प्रस्तुत नही तो उन्होंने न केवल हमारे उस प्रस्ताव को अपनी मूक सहमति प्रदान की थी बलिक पूरी तरह उसका समर्थन भी किया था.

दूसरे-तीसरे ही दिन तार द्वारा – और फिर पंजीकृत डाक से – हमने राजेश और शर्मिला दोनों के नाम शो-काज़  नोटिसें ज़ारी कर दी थीं. नोटिसों में कहा गया था कि अपने वायदे के बरखिलाफ़ समारोह में अनुपस्थित रह कर चूंकि उन्होने सर्वथा निन्दनीय अपराध किया है इसलिये क्यो न हम उनके विरुद्ध अपेक्षित कार्रवार्इ की पहल करें. हमने सोचा था कि हमारे उस पत्र को पाकर वस्तुसिथति से हमें अवगत कराते हुए अपने कृत्य के लिये वह कम से कम क्षमा याचना ज़रूर करेंगे और फिर मामला अपने आप समाप्त हो जायेगा, लेकिन तत्संबंध में भी हमें निराशा हुर्इ. शर्मिला का एक मुख्तसर सा जवाब ज़रूर आया था जिसमे उसने अपने न आने के कारणों का उल्लेख किया था, लेकिन राजेश की ओर से हमें मौन के अलावा और कुछ नहीं मिल पाया.

बाद में पता चला कि राजेश को उसके कतिपय शुभचिन्तकों ने सलाह दी थी कि किसी प्रादेशिक स्तर का अवार्ड पाने के बजाए वह फि़ल्मफ़ेयर जैसे किसी बड़े पुरस्कार को पाने की कोशिश करे, क्योकि एक बार भी अगर उसने कोर्इ छोटा-मोटा पुरस्कार ग्रहण कर लिया तो वह उसी स्तर में केनिद्रत होकर रह जायेगा. बम्बर्इ के कतिपय पत्रकारों ने उससे जब तत्संबंधित सवाल किये तो उसने अपनी इसी अवधारणा की पुष्टि की थी.

हमारे लिये तो अपने मुंह पर तमाचा खाने जैसी यह बात थी. उत्तरप्रदेश फि़ल्म पत्रकार संघ तब तक राष्ट्रव्यापी ख्याति अर्जित कर चुका था. मात्र हिन्दी भाषी प्रदेशों और बंगाल में ही नहीं वरन धुर दक्षिण के तमिलनाडु अंचल तक उसकी धाक इतनी अधिक जम चुकी थी कि एस.एस. वासन, ए.वी. मैयप्पन और बी. नागी रेडडी जैसे मूद्र्धन्य निर्माता भी हमारे पुरस्कारो को प्राप्त करने में अपना गौरव समझने लगे थे. हमेशा उनका यही प्रयत्न रहता था कि उनके द्वारा निर्मित फि़ल्में किसी न किसी तरह हमारी पुरस्कार सूची में शामिल हो सके, और अपने मंतव्य में अक्सर उन्हें वंछित सफलता भी मिल जाती थी. आज भी अगर कोर्इ चेन्नर्इ जाकर जेमिनी, ए.वी.एम और विजयवाहिनी जैसे स्टूडियोज़ की परिक्रमा करने का प्रयास करे तो उसे उनके कार्यालय-परिसर में आसानी के साथ हमारे प्रशसितपत्र और पुरस्कार प्रतिमाएं सादर और सानुराग सुसजिजत और प्रतिषिठत दिख जायेंगी. इतना ही नहीं, स्वयं भारत सरकार का फि़ल्म प्रभाग और विभिन्न राज्यस्तरीय शासकीय प्रतिष्ठान भी अपनी डाक्युमेन्टरी फि़ल्मों के लिये हमारी प्रशसित को प्राप्त करने के निमित्त इतने आकुल और व्याकुल रहा करते थे कि हमें यह निर्णय लेने में कठिनार्इ होती थी कि उनमें से आखिर किसके द्वारा निर्मित वृत्तचित्र को हम पुरस्कृत करें.

ऐसी अवस्था में राजेश के उस अहम्मन्य व्यवहार का करारा जवाब देने के अतिरिक्त हमारे सम्मुख कोर्इ पर्याय नहीं शेष रहा था. अन्तत: हमे यह निर्णय लेने के लिये विवश होना पड़ा कि अगले एक साल तक उत्तरप्रदेश से प्रकाशित होने वाला कोर्इ भी पत्र न उससे संबंधित कोर्इ समाचार छापेगा, न उसके द्वारा अभिनीत किसी फि़ल्म की समीक्षा की जायेगी, और न उसके फोटोग्राफ़ों का प्रकाशन किया जायेगा.

निशिचत ही यह निर्णय हमारे लिये न केवल परेशानियों से भरपूर था बलिक उसके कार्यान्वयन में जो शंकाएं-आशंकाएं निहित थीं उनसे आंख मूंदना भी सहज संभव नहीं था. पहली बात तो यह कि काग़ज़ों पर भले ही हमारा संगठन प्रदेश के फि़ल्म पत्रकारों का प्रतिनिधि संगठन रहा हो, लेकिन उसमें कितने पत्रकार थे और कितने दुमछल्ले, इस तथ्य को वास्तविक रूप से मैं ही जानता हूं. फिर प्रदेश के विविध केन्द्रों से प्रकाशित होने वाले सभी पत्र हमारे संगठन से सम्बद्ध हों, ऐसी बात भी नहीं थी. व्यकितगत रूप से हालांकि उनके सम्पादकों के साथ मेरे पर्याप्त मधुर संबंध थे, लेकिन जल्दबाज़ी में लिये गये हमारे उस क़दम को उनका समुचित समर्थन मिल भी पायेगा या नहीं यह बात निशिचत ही सन्देह के परे नहीं थी. ऐसी अवस्था में इलाहाबाद, बनारस, कानपुर और आगरा जैसे प्रकाशन केन्दों की परिक्रमा करते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओें से खुद अपने स्तर पर संबंध-सम्पर्क बनाने की पहल मुझे करनी पड़ी, और मुझे यह बताने में खुशी हो रही है कि प्रदेश के किसी भी प्रमुख पत्र-सम्पादक ने उस आड़े वक्त पर हमारी सहायता के लिये आगे बढ़ने में किंचित कोर्इ संकोच नहीं किया. निस्संदेह यह हमारी एक बड़ी जीत थी. ऐसा न पहले कभी हुआ था, और न आगे कभी सुनने में आ पाया. लाखो-कराड़ों से खेलने वाले फि़ल्मी-सितारों के साथ सम्पन्न हमारी उस संघर्षगाथा को ऐतिहासिक महत्व दिया जा सकता है. बम्बर्इ, दिल्ली, कलकत्ता और मद्रास से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं ने भी हमारे उस निर्णय का न केवल तहे-दिल से स्वागत किया बलिक तत्संबंध में हमारे पक्ष का अनुमोदन करते हुए अपेक्षित टिप्पणियां करने में भी उनके सम्पादक किसी से क़तर्इ पीछे नहीं रहे.

सरकार और सरकारी अधिकारियों के साथ तो हम शुरू से ही पंगा लेते रहे थे, लेकिन वह पहला अवसर था जब किसी फि़ल्मी सितारे को हमने अपने प्रहार का निशाना बनाया हो. इस बात में किंचित सन्देह नहीं कि अगर हमारे साथी सम्पादकों ने उस दिशा में हमारा साथ न दिया होता तो हम कहीं के न रहते. फि़ल्म संसार के लोगों के पास अटूट धन होता है और उस धन के बल पर वह किसी का भी भविष्य बनाने-बिगाड़ने में पूरी तरह सक्षम और समर्थ रहते आये हैं – खासतौर पर अपने उन प्रचारकों का जो पत्रकार होने का लबादा ओढ़ कर उनके आगे पीछे मंडराते रहते हैं. इस बात का अच्छा खासा अनुभव मुझे अपने दीर्घ बम्बर्इ प्रवास-काल में हो चुका था. बम्बर्इ-स्थित कर्इ मित्रों ने उस दिशा में मुझे आगाह भी किया था, उनकी धारणा थी कि हमारा ऐसा कोर्इ क़दम अन्तत: टांय-टांय फिस्स होकर रह जायेगा. लेकिन मुझे तो शुरू से ही संघर्षों में कूदने का शौक रहा है, और इसी से उनकी कोर्इ भी उकित मुझे प्रभावित नहीं कर पायी.

राजेश के लिये हमारा यह निर्णय निशिचत ही परेशानी का बायस बन गया. उत्तरप्रदेश फि़ल्मों के वितरण और प्रदर्शन का सबसे बड़ा केन्द्र था. अगर वहीं उसकी फि़ल्मों का प्रचार-प्रसार रुक गया तो उसकी लोकप्रियता का दीवाला निकलने में कोर्इ कोर-कसर नहीं बच पायेगी. यहां के प्रदर्शक अपने वितरकों को बार बार लिखते जा रहे थे कि तत्संबंध में तत्काल अगर कोर्इ समुचित क़दम नहीे उठाया गया तो टिकट खिड़की पर उनकी फि़ल्मों को पिटने से रोक पाना किसी के लिये संभव नहीं हो पायेगा. प्रतिबंध कार्यानिवत होने के महीने भर के ही अन्दर शकित सामन्त ने मुझसे सम्पर्क स्थापित करते हुए बताया कि राजेश अपनी कारगुज़ारी के लिये बेहद शर्मिन्दा है और हमारे अगले समारोह में  शामिल होने के लिये वह सतत आतुर रहेगा – फिर भले ही उसे कोर्इ पुरस्कार मिले या न मिले. अगले दो-चार दिनो के अन्दर ही हमें राजेश का औपचारिक माफ़ीनामा भी मिल गया. साथ में शकित सामन्त द्वारा हस्ताक्षरित एक लघु नोट भी संलग्न था जिसके माध्यम से उन्होने सूचित किया था कि राजेश को लखनऊ लाने का पूरा जि़म्मा अब वह अपने ऊपर लेते है और भविष्य में इस तरह की कोर्इ गफ़लत करने की ग़लती वह नहीं करेगा.

राजेश की उस क्षमा-याचना और शकित सामन्त द्वारा दिये गये आश्वासन के फलस्वरूप अपना प्रतिबंध हमने तात्कालिक रूप से उठा लिया था. उस प्रतिबंध से और कोर्इ लाभ किसी को भले ही न हो पाया हो लेकिन इतना अवश्य हुआ कि दिल्ली-यूपी सर्किट के फि़ल्म वितरकों ने उन पत्र-पत्रिकाओ को भी अपनी प्रचार सामग्री भेजनी शुरू कर दी जो उनके लिये तब तक पूरी तरह अछूत थे, और उस सामग्री में यदाकदा विज्ञापनों का भी न्यूनाधिक समावेश रहता था. फिर धीरेधीरे उनकी उस प्रवृत्ति में अपेक्षित वृद्धि भी होती रही, और उसके परिणामस्वरूप बनारस और इलाहाबाद से अनेक साप्ताहिक और मासिक  फि़ल्म पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो सका.

वह कालखण्ड राजेश के उत्थान और उत्कर्ष को पूरी तरह समर्पित था. उसकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता इस तेज़ी के साथ बढ़ रही थी कि ठीक तरह लोग उसका आकलन करने में भी अपने को समर्थ नहीं पा रहे थे. हाथी मेरा साथी को देखने के बाद स्वयं नरगिस ने मुझसे कहा था कि राजेश जैसा हरदिल अजीज़ अभिनेता न पहले कभी हुआ है और न भविष्य में कभी उसके होने की कोर्इ संभावना है. पांच साल के बच्चे से लेकर पछत्तर साल के वृद्धजनों तक वह समानरूप से लोकप्रिय था, युवतियां उसके नाम की माला जपती थीं और नवयुवा उसके हावभाव और कपड़ोंलत्तों का अनुसरण कर अपने को गौरवानिवत समझते थे.

ठीक उसी कालावधि में राजेश को लेकर शकित सामन्त की दूसरी फि़ल्म परदे पर उतरी. नाम था आराधना. उसमें भी शर्मिला टैगोर उसकी हीरोइन थी, और दोनों ने फि़ल्म में सच ही गज़ब का काम किया था. आराधना  ने उस समय  टिकट खिड़की के सारे रेकार्ड तो तोड़े ही, साथ ही राजेश को भी एक नये नाम से जोड़ दिया. वह नाम था सुपर-स्टार. का. इसके पूर्व भी ऐसे समर्थ और सक्षम अभिनेता हिन्दी फि़ल्म संसार के क्षितिज पर उतर चुके थे जिनकी कोर्इ मिसाल नहीं थी. लेकिन न पृथ्वीराज या मोतीलाल को कभी उक्त नाम से संबोधित किया गया था, न दिलीप कुमार, देव आनन्द और राज कपूर के ऐतिहासिक त्रिभुज को.  इन कलावन्तों को मान-सम्मान भले ही पर्याप्त मात्रा मे प्राप्त रहा हो – अब भी उनके प्रेमियो की संख्या कम नहीं होगी, लेकिन जो लोकप्रियता अपने ज़माने में राजेश को सहज-सरल रूप से उपलब्ध हुर्इ थी उसका अनुमान लगाना आज की पीढ़ी के लिये किंचित सम्भव नहीं. वह एक पुच्छल तारे की तरह हिन्दी फि़ल्मों के क्षितिज पर अवतीर्ण हुआ था, और फिर उसी तीव्र गति के साथ वहां से अन्तर्धान हो गया.

इस संबंध में एक चुटकुला बरबस ही मुझे याद आ रहा है.  ठाकुर नारायणसिंह नामक झांसी के एक रर्इस को शैलेन्द्र ने अपनी फि़ल्म तीसरी कसम में एक ज़मीन्दार की भूमिका मे अभिनय करने के लिये चयनित किया था. अनेक कारणवश उस फि़ल्म में तो ठाकुर साहब को अपनी अभिनय क्षमता दिखाने का अवसर नहीं मिल सका, लेकिन रजतपट पर अपना जलवा दिखाने की उनकी तमन्ना कभी मिट नहीं पायी. एक दिन जब शशि कपूर मेरे अतिथि के रूप में ठहरे हुए थे, ठाकुर साहब भी अचानक लखनऊ पहुंच गये. शशि से उनका तअरर्फ़ कराते हुए जब मैने बताया कि  फि़ल्मों में काम करने के लिये हालांकि वह बहुत आतुर हैं लेकिन उन्हें कोर्इ समुचित निर्माता नहीं मिल पा रहा, तो शशि ने पल भर का विलम्ब किये बगैर उनको राय दी थी कि अपने नाम के साथ अगर वह खन्ना का पुछल्ला लगा लें तो उनके दरवाज़े पर फि़ल्म निर्माताओं की लाइन लगने में कभी कोर्इ देर नहीं लगेगी.

तो, यह बाज़ार भाव था उन दिनों राजेश खन्ना का, और उस बाज़ार भाव की भरी दोपहरी में हमने आराधना  का पुरस्कार प्रदान करने के लिये उसे लखनऊ आमंत्रित किया था.

फि़ल्मी दुनिया में राजेश की लोकप्रियता का उन दिनों यह आलम था कि सूरज उसके उठने के साथ उगता था, और चांद के असितत्व का तभी पता चल पाता था जब वह अपने शयनगृह में आरामफ़र्मा हो जाये. इस मध्यावधि में राजेश ही सूरज था, और राजेश ही चांद. उसके इस अक्षुण्ण वर्चस्व को चुनौती देने वाला न कोर्इ अभिनेता मायानगरी की अलकपुरी में अवतरित हो पाया था, और न कोर्इ फि़ल्मकार. लाखों के स्थान पर करोड़ों का मेहनताना लेने की परम्परा उसी ने शुरू की थी, लेकिन तब भी उसके द्वार पर लगने वाली निर्माताओं की भीड़ में निरन्तर इजाफ़ा होता जा रहा था. उसका नाम एक तरह से बाक्स-आफि़स का पर्याय बन चुका था और जो निर्माता उसे अनुबंधित करने में सफल हो जाता था उसकी तिजोरियां फि़ल्म का मुहूत्र्त सम्पन्न होने के पहले ही धनधान्य से लबालब हो उठती थीं.

उस साल राज कपूर की सर्वाधिक महत्वाकांक्षी फि़ल्म, मेरा नाम जोकर, को हमने वर्ष की श्रेष्ठतम चित्रकृति के रूप में अलंकृत किया था. समारोह में समिमलित भी हुए थे राज कपूर. जैसा फि़ल्म इतिहास के अध्येताओं को स्मरण होगा, चिरस्मरणीय होने के बावजूद उस फि़ल्म को टिकट खिड़की पर घोर निराशा झेलनी पड़ी थी. आर.के. फि़ल्म्स के बैनर तले बनने वाली वह शायद अकेली ऐसी प्रस्तुति थी जिसको चारों ओर से विफलता का सामना करना पड़ा होगा. फि़ल्म की उस अप्रत्याशित असफलता से राज कपूर व्यथित भी थे, और चिनितत भी. साहूकारों का उधार चुकाने के लिये उन्हें अपना स्टूडियो तक गिरवी रखना पड़ गया था. ऐसे फ़ाइनेन्सर और डिस्ट्रीब्यूटर भी जो किसी ज़माने में अपने को उनका अजीज़ ही नहीं बलिक मुरीद कहते हुए नहीं थकते थे उन्हें सामने आता देख बड़ी बेररमी के साथ अपनी कन्नी काट दिया करते थे. उन्हें डर लगता था कि कहीं वह और उधार न मांग बैठें.

इस तरह हमारे उस समारोह में एक तरफ़ जहां राज कपूर जैसे अस्ताचलगामी सूर्य की आभा अपनी स्वर्णिम प्रभा के साथ भाग लेने के लिये पूरी तरह तत्पर थी, वहीं दूसरी ओर राजेश खन्ना जैसे  मध्याहनकाल के प्रखर और प्रचन्ड सूरज का रक्ताभ प्रकाश भी था जिसकी तप्त रोशनी लखनऊ के फि़ल्म प्रेमियों के मध्य अपनी उपसिथति दर्ज़ कराने के लिये सतत सकि्रय और सन्नद्ध प्रतीत हो रही थी. दोनो की अपनी अहमियत थी, दोनों के अपने प्रशंसक थे. उनमें से किसे कितना महत्व दिया जाये, यह सवाल सहज ही एक बड़े प्रश्नचिहन के रूप में हमारे सम्मुख आ उपस्थित हुआ. राज कपूर की उपमा अगर घ्रुवतारे से की जा सकती थी, तो राजेश एक ऐसा धूमकेतु था जिसका उदभव सैकड़ों बरसों में कहीं एक बार होता है. मुझे मालूम था कि मात्र दर्शकों में ही नहीं बलिक हमारे अपने कार्यकर्ताओं में भी राजेश को चाहने वाले तो हज़ारों की संख्या में मिल जायेंगे, लेकिन राज कपूर की महिमा का आदर करना उन्हीं लोगों के लिये सहज संभव हो पायेगा जो फि़ल्म कला के गंभीर ज्ञाता और अध्येता हैं. ऐसी अवस्था में कहां बचेगी हमारी इज्ज़त और कहां जायेगा हमारा वह निनाद जिसके माध्यम से हम अपनी संस्था को रचनात्मक फि़ल्म समीक्षा का पुरोधा घोषित करते रहे हैं.

और इस आशंका की जीती-जागती मिसाल मुझे सवेरे ही मिल गयी थी जब अपने अतिथियों का स्वागत करने मैं एयरपोर्ट गया था. लखनऊ पहुंचने के कुछ दिन पूर्व राज कपूर ने मुझे टेलिफ़ोन किया था कि उनके लखनऊ प्रवास के अन्तर्गत किसी अच्छे मसाजर  – मालिशिए – की व्यवस्था हम उनके लिये कर दें. काफ़ी खोजबीन करने के बाद उस मालिशिए से मुलाकात भी हो गयी थी. लखनऊ के प्रतिषिठत बलरामपुर अस्पताल में उन दिनों वह सेवारत था, और कमलापति त्रिपाठी जैसे अगि्रम पंकित के राजनेताओे के आफिशियल मसाजर होने की गौरव-गरिमा उसे प्राप्त थी. जब मैंने बताया कि राज कपूर की मालिश करने के लिये भी एक-दो दिन का समय उसे निकालना पड़ेगा तो आन्तरिक आहलाद से वह लबरेज़ हो उठा था. बोला था – राज साहब जैसी महान हस्ती की सेवा करने का मौका मुझे मिले, इससे बड़ा तोहफ़ा मेरे लिये और क्या हो सकता है. अपनी सबसे अच्छी पोषाक से लैस होकर मेरे साथ वह एयरपोर्ट भी गया था, जहां राज कपूर से मैंने उसकी मुलाकात करवा दी थी. फिर राज के साथ ही उसे मैंने कार्लटन होटल भिजवा दिया था, जहां हमारे अन्यान्य पुरस्कार-विजेता ठहरे थे. कुछ देर बाद मैं स्वयं भी होटल की प्रबंध-व्यवस्था का ज़ायज़ा लेने वहां पहुंच गया. मैने सोचा था कि उस समय राज की मालिश करने में वह पूरी तरह तल्लीन होगा, लेकिन पता चला कि अपना हुनर दिखाने के लिये राज कपूर की अपेक्षा उसने राजेश खन्ना को अधिक वरीयता प्रदान की.  उस वक्त उसी के समक्ष वह अपने कौशल की नुमाइश कर रहा था, जबकि राज कपूर – हिन्दी फि़ल्म संसार के अविजित शो-मैन  राज कपूर – अपने कमरे की फ़र्श पर नंगधड़ंग लेटे हुए उसकी प्रतीक्षा में रत थे.

यह हादसा निशिचत ही मेरे लिये एक चुनौती था. प्रशसित समारोह के मंच पर भी अगर  ऐसे किसी कृत्य की पुनरावृत्ति हो गयी तो फिर क्या होगा? सुरक्षा का समुचित प्रबंध होते हुए भी राजेश के कमरे के आगे-पीछे उसके प्रशंसकों की भीड़ बढ़ती जा रही थी, और राज कपूर का कक्ष प्राय: पूरी तरह वीरान था. मालिशिए के न पहुचने के कारण राज कपूर निस्संदेह पर्याप्त खिन्न थे. जब मंै उनके पास पहुंचा तब बगैर  तेल मालिश कराये नहा-धोकर हमारी प्रस्तावित विचार संगोष्ठी में भाग लेने के लिये वह तैयार मिले.  चलते चलते जब मैने उनसे कहा कि अपने कमरे में वह ताला लगा दें तो बड़ी रूखी मुस्कराहट के साथ वह बोल उठे थे – उसकी कोर्इ ज़रूरत नहीं. जो दो-चार सौ रूपये मैं अपने साथ लाया हूं वह चले भी जायें तो मुझे क्या फ़रक पड़ेगा?

दूसरी ओर राजेश खन्ना जब एकत्र भीड़ को चीरते हुए सेमिनार-स्थल पर जाने के लिये कमरे के बाहर निकला तो किसी मनचले ने उसके हाथ में बंधी बहुमूल्य घड़ी ही पूरी तरह गायब कर दी. इस घटना की ओर उसका ध्यान आकृष्ट करते हुए हम में से किसी ने जब अपना आक्रोष व्यक्त करने की कोशिश की तो राजेश बड़ी मासूमियत के साथ बोल उठा था – इसमें कोर्इ नयी बात नही, ऐसा तो अक्सर ही मेरे साथ होता रहता है. बाद में उसने बताया कि उस घड़ी की कीमत उस ज़माने में भी ढार्इ लाख रूपयों से अधिक थी और किसी आउटडोर शूटिंग के दरम्यान उसे वह स्वयमेव स्वीज़रलैंड से खरीद कर लाया था.

जैसा मैं इंगित कर चुका हूं, उस समय हमारी सबसे बड़ी समस्या यह थी कि राजेश की लोकप्रियता को सीमा-पार करने से कैसे रोका जाये. अगर ऐसा नहीं किया गया तो मंच पर पदार्पण करने के बाद वह निशिचत ही राज कपूर पर हावी हो जायेगा, और यह बात हमे सपने में भी मंज़ूर नहीं थी. वर्ष के श्रेष्ठतम अभिनय का पुरस्कार पाने के नाते स्वभावत: वह किसी विशिष्ठ स्थान पर बैठने का अधिकारी था. पूर्व निर्धारण के अनुसार समारोह-अध्यक्ष के रूप में तत्कालीन राज्यपाल गोपाल रेडडी की कुरसी धुर केन्द्र में रक्खी गयी थी. उनके दाहिनी ओर सर्वश्रेष्ठ फि़ल्म के निर्माता राज कपूर का आसन था, और बार्इ ओर राजेश खन्ना को बैठाने की योजना थी. लेकिन प्रेक्षागृह में पहुंचने के बाद मैंने उस क्रम में किंचित परिवत्र्तन कर डाला. गोपाल रेडडी और राज कपूर की कुरसियां तो जहां की तहां रहने दीं, लेकिन राजेश को पंकित के अन्त में ही बैठने का स्थान मिल पाया. धूमकेतु की अपेक्षा ध्रुवतारे को अधिक वरीयता देने के अर्थ ही यही थे कि हम राज कपूर को अधिक महत्व दे रहे हैं, और हमारी वह युकित कारगर भी सिद्ध हुर्इ. दर्शकों द्वारा दी जाने वाली जितनी तालियां राज कपूर को मिलीं उसकी शतांश भी राजेश खन्ना के पल्ले नहीं पड़ पायीं.  राजेश यह देख कर थोड़ा हतप्रभ तो ज़रूर हुआ होगा, लेकिन प्रत्यक्षत: उसके चेहरे पर एक  शिकन तक नहीं दिख पायी.

रात का डिनर जहांगीराबाद रियासत के राजमहल में आयोजित था. राजा जमाल रसूल खां हमारे पुराने ख़ैरख्वाह थे, अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति के जीते-जागते प्रतीक. जब कभी वह लखनऊ में रहे, खिलाने पिलाने के लिये हमें किसी दूसरे का मुंह नहीं देखना पड़ा. उनकी दावतों में स्काच की नदियां यों बहती थीं जैसे वह दारू न होकर बिसलेरी का पानी हो. दावत को अंजाम देने के लिये  खासतौर पर लखनऊ के उन पुश्तैनी बावर्चियो को बुलाया गया था जिनके पुरखे किसी ज़माने में जाने-आलम नवाब वाजिदअली शाह के दस्तरख्वानों को सजाने का फ़ख्र हासिल कर चुके थे. ज़ाहिर है कि उस मौके पर जो व्यंजन बनाये गये थे उनसे अवध का पाक कौशल मुखर होकर प्रतिध्वनित हो रहा था. कहते हैं, उन बावर्चियों के द्वारा जो मुर्ग मुसल्लम तैयार किया जाता था उसके बनाने में एक टिन घी खर्च होता था और चौबीस घन्टों का वक्त. पृथ्वीराज कपूर जैसे भोजनभक्त  भी जमाल रसूल के यहां परोसे गये उन व्यंजनो का ज़ायका चखने के बाद बरबस बोल उठे थे कि वैसा लजीज़ खाना तो उन्हें र्इरान के शाह रज़ा पहलवी के दस्तरख्वान पर भी नहीं मिल पाया था जहां अपनी तेहरान यात्रा के दरम्यान वह मदऊ किये गये थे.

बहरहाल, आधी रात के बाद जब अधिकांश अतिथिगण राजा साहब को अलविदा कहते हुए अपने होटल की ओर रुख्सत हो चुके थे तब भी राज कपूर, राजेश खन्ना और धर्मयुग के उप-संपादक प्रेम कपूर (जिन्हें कमलेश्वर के उपन्यास, बदनाम गलियां, के आधार पर बदनाम बस्ती  नामक प्रयोगात्मक फि़ल्म बनाने के लिये हमने पुरस्कृत किया था) वहां से उठने के लिये तैयार नहीं हुए.  राजमहल के विस्तृत बैठकखाने में राज कपूर उसकी गुदगुदी फ़र्श पर चित्त होकर पसर गये और उनके बदन को दबाने की शुरूआत कर दी राजेश खन्ना और प्रेम कपूर ने – बिलकुल केरली स्टाइल में.  यह क्रम सुबह के चार बजे तक चला. फिर चला राजेश खन्ना के अभिनय का दौर. उन दिनों ह्रिशिकेष मुखर्जी-निर्देशित उसकी बावर्ची  नामक फि़ल्म सेट पर थी, और राज कपूर के निर्देष पर उसने उस फि़ल्म के अनेक डायलाग सुना डाले. पांच-छ: बजे सवेरे जब सबको होटल लौटने की सुध आयी तो राजेश ड्राइंगरूम के कोने में सजिजत वीनस की एक वृहदाकार प्रतिमा को एकटक निहारता रह गया. उस मूर्ति को जमाल रसूल के दादा पेरिस से लाये थे और उससे उनके परिवार का अगाध लगाव था. लेकिन राजेश ने करबद्ध होकर जब उसे अपने साथ बम्बर्इ ले जाने की कामना व्यक्त की तो राजा साहब उसकी याचना को टाल नहीं पाये. कहा जाता है कि लौटते समय हवार्इ जहाज़ की अपनी सीट पर तो राजेश ने उस मूर्ति को आसीन किया था, और खुद उसकी रक्षा करते हुए खड़े खड़े अपनी यात्रा सम्पन्न की थी. बाद में काफ़ी समय तक वह प्रतिमा राजेश के शयनकक्ष की शोभा बढ़ाती रही और डिम्पल कापडि़या से विवाह करने के बाद ही उसे आशिर्वाद के स्वागत कक्ष में स्थानान्तरित किया गया. सुनते हैं वह मूर्ति आज भी राजेश के आवास की शोभा बढ़ा रही है और हर आगंतुक उसकी ओर दृषिटपात कर अब भी आश्चर्यचकित रह जाता है.

राजेश खन्ना अभिनीत अमर प्रेम  कुछ ही महीने बाद रिलीज़ होने वाली थी. उसका निर्माण-निर्देशन भी शकित सामन्त ने किया था. उसी की ओर इंगित करते हुए, होटल से विदा होने के पूर्व,  राजेश बोल उठा था – वह फि़ल्म गज़ब की बनी है, भार्इ साहब. देखिएगा तो देखते ही रह जाइएगा. खुद शकितदा का कहना है कि अपनी जि़न्दगी में उससे अच्छा अभिनय मैने किसी दूसरी फि़ल्म में नहीं किया. मैं चाहता हूं कि उसके लिये एक बार फिर आप मुझे अवार्ड दें और उसे हासिल करने के लिये मुझे दुबारा लखनऊ आने का मौका मिल सके.

एयरपोर्ट पर भी अपनी याचना को नवीकृत करने में उससे कोर्इ चूक नहीं हुर्इ. जहाज़ की ओर जाते जाते तक वह यही दुहराता रहा – अगले साल फिर मुझे लखनऊ आना है. बुलाइगा न?

और अपने अगले समारोह में भी हमने उसे बुलाने का उपक्रम ज़रूर किया, लेकिन इसलिये नहीं कि उसने तत्संबंध में कोर्इ आग्रह या अनुरोध किया था बलिक इसलिये कि उस फि़ल्म में उसका अभिनय सचमुच कमाल का.

शकित सामन्त भी आमंत्रित किये गये थे, और साथ में शर्मिला टैगोर भी. शकित को अमर प्रेम के निर्माण का पुरस्कार मिला था, और शर्मिला को नायिका का. दोनों ही ने अपने स्वीकृति-पत्र यथासमय उपलब्घ करा दिये थे, और उनकी प्रापित के बाद ही उन पुरस्कारों को अनितम रूप प्रदान किया गया था. लेकिन राजेश की ओर से हमारे पत्र की न प्रापित स्वीकृति हमें मिली और न किसी तरह का कोर्इ सन्देश. नियमानुसार अपना पत्र हमने पंजीकृत डाक से भेजा था, साथ ही एक्सप्रेस डेलिवरी से उसकी अगि्रम सूचना. उनका कोर्इ प्रत्युत्तर पाने में भी जब हमें विफलता मिली तो तार के माध्यम से हमने अपने सन्देशों की पुनरावृत्ति की. एक तार, दो तार और फिर तीसरा तार – लेकिन सभी तार पूरी तरह अनुत्तरित रहते गये. ऐसे मौकों पर नामांकित पुरस्कार विजेताओ से टेलिफ़ोन पर कोर्इ संबंध स्थापित करने का प्रयत्न हम नहीं करते थे, क्योकि उसका कोर्इ सबूत हमारे पास नहीं बच पाता था. एक बार स्वयं देव आनन्द ने अपने किसी सहकारी के माध्यम से हमारे पुरस्कार की स्वीकृति-सूचना हमें दी थी, लेकिन उनके उस सन्देश को हमने पूरी तरह ख़ारिज कर दिया था. फिर जब उन्होंने स्वयं अपने हस्ताक्षरों से उसकी पुष्टि की तभी हम  औपचारिक रूप से उस पुरस्कार की घोषणा कर पाये.

ऐसी अवस्था में वर्ष के श्रेष्ठतम अभिनय-पुरस्कार के चयन की प्रकि्रया हमें दोबारा कार्यानिवत करनी पड़ी, क्योकि तत्संबंध में राजेश की औपचारिक स्वीकृति के अभाव में उसके नामांकन को अनितम रूप देना किंचित संभव नहीं था. इस बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता होने का गौरव प्राप्त हुआ संजीव कुमार को – बासु भêाचार्यकृत अनुभव में अपने उल्लेखनीय अभिनय के लिये. तत्संबंध में प्रेषित हमारे पत्र का जवाब भी हमें सप्ताह भर के अन्दर ही मिल गया. संजीव ने हमारे प्रस्तावित पुरस्कार को न केवल आभारपूरित शब्दों में स्वीकार किया था बलिक समारोह में स्वयं उपस्थित होकर उसे व्यकितश: ग्रहण करने की संवैघानिक प्रतिबद्धता भी उसने रेखांकित की थी.

राजेश ने जिस तरह हमारे पत्रों की अवहेलना की थी, उससे हम आश्चर्य-चकित थे. उसने स्वयं ही बार बार हमारे प्रशसित समारोह में शिरकत करने की हामी भरी थी, और फिर खुद ही अपने वचन से मुकर गया था. दो साल पहले हुर्इ घटनाओ को देखते हुए उसका यह व्यवहार हमारी समझ के परे था.शकित सामन्त से पूंछताछ करने की कोशिश की तो उनसे भी सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाया, हालांकि वह स्वयं हमारे फ़ंक्शन में भाग लेने के लिये पहले ही वचनबद्ध हो चुके थे. कुछ ही दिनों पहले राजेश ने डिम्पल कापडि़या से परिणय किया था, इससे पहले तो हमने यही सोचा कि तत्संबंधित रागरंग में रत होने के कारण हमारे पत्रों पर अपना ध्यान आकृष्ट करना शायद उसके लिये संभव न हो पाया हो. लेकिन तभी एक मित्र से पता चला कि उन दिनों भी अपनी फि़ल्मों की वह बाकायदा शूटिंग कर रहा है.

खैर, राजेश का नामांकन तो उसकी अपनी ही गफ़लत से ख़ारिज हो चुका था,  उसकी जगह ले ली थी संजीवकुमार ने. संजीवकुमार लोकप्रियता में भले ही उन्नीस रहे हों, लेकिन अभिनय प्रतिभा मेंं वह निशिचत ही राजेश से बीस थे. शर्मिला को भी पहुंचना ही था, इससे अभिनय विधा के दोनों शीर्षस्थ कलाकारों के आगमन की बात पूरी तरह पक्की थी. ख्वाज़ा अहमद अब्बास, एन.सी. सिप्पी, शकित सामन्त और बासु भêाचार्य जैसे फिल्मकारों और दिनेश ठाकुर, रेहाना सुल्तान, हंगल और उर्मिला भê प्रभृत अभिनयकर्मियों के अतिरिक्त संगीतकार जयदेव, गीत-संवादकार कपिलकुमार, नृत्य-निर्देशक लच्छू महाराज, छायाकार ए. भêाचार्जी, कला-निर्देशिका रिंकी, फि़ल्म-सम्पादक मोहन राठौड़ और ध्वनि-संयोजक मीनू बावा सदृश परदे के पीछे अपने कौशल का जलवा बिखरने वाले कला-विश्ेाषज्ञों का आना भी प्राय: तय था, इससे राजेश की संभावित अनुपसिथति हमें पूरी तरह भूल चुकी थी.

समारोह सम्पन्न होने की पूर्ववत्र्ती रात मुझे दिल्ली के ओबराय हो्रटल से एक टेलिफ़ोन मिला. हवार्इ जहाज़ से आने वाले हमारे सभी पुरस्कार विजेता दिल्ली पहुंच चुके थे इसकी सूचना हमें पहले ही मिल चुकी थी, फिर आधी रात के बाद आने वाला यह टेलिफ़ोन आखिर किसका हो सकता है, मैंने सोचा. तभी उधर से आवाज़ आयी – मै शर्मिला बोल रही हूं, शर्मिला टैगोर.

शर्मिला का नाम सुनते ही मैं चौकन्ना हो उठा. शर्मिला जैसी अभिनेत्री, और इतनी रात में? ज़रूर ही कोर्इ गोलमाल है, मैं आशंकित हो गया. तभी वह बोल उठी थी — आप काका से बात कर लीजिए, प्लीज़.  बहुत ज़रूरी काम है. उसके सुइट का नम्बर है ….

राजेश फि़ल्मी दुनिया में काका के नाम से मशहूर था, और उसके सभी परिचित इसी नाम से उसे संबोधित करते थे.

अनेक कारणों से टेलिफ़ोन पर राजेश के साथ सम्पर्क स्थापित करने में मुझे काफ़ी समय लग गया. अन्तत: जब उससे मुलाकात हुर्इ भी तो सवेरे के चार बज चुके थे. बहुत लड़खड़ाते स्वरों में वह बोला था — मैं नहीं आ पाऊंगा, भार्इ साहब. आपसे मुआफ़ी की इलितज़ा करता हूं.

— क्यों? — मैंने उससे पूंछा था.

— मदरास से सीघे लखनऊ का टिकट नहीं मिल पाया. एयरपोर्ट पर बताया गया था कि दिल्ली पहुंचने पर कनेकिटंग फलाइट मुझे मिल जायेगी, लेकिन यहां आने पर पता चला कि लखनऊ जाने वाले जहाज़ में कोर्इ सीट अवेलेबल ही नहीं रह गयी है. अब तो बम्बर्इ वापस लौटने के अलावा कोर्इ चारा नहीं बचा. बाकी लोग पन्द्रह-बीस मिनट पहले ही पालम के लिये निकल चुके हैं, और मैं यहां बैठ कर अपनी तकदीर को गालियां दे रहा हूं.

यह कहते हुए एक झटके के साथ उसने अपना रिसीवर आफ़ कर दिया था, इससे आगे कुछ कहने सुनने का मौका ही मुझे नहीं मिल पाया. तब भी उस घटना या दुर्घटना के पीछे जो राज़ थे, उनकी जानकारी मुझे जल्दी ही सुलभ हो गयी.

दर असल लखनऊ पहुंचने पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने मुझे बताया था कि अनितम समय तक दिल्ली हवार्इ अडडे पर राजेश और डिम्पल के नामों की घोषणाओ के बावजूद उन दोनों में से किसी ने डिपार्चर काउन्टर पर अपनी  रिपोर्ट नहीं दर्ज़ करायी. बाद में दैनिक जागरण के तत्कालीन प्रबंध निदेशक योगेन्द्र मोहन ने भी इस तथ्य की पुष्टि की. वह भी दिल्ली से लखनऊ  उसी जहाज़ से आये थे. योगेन्द्र ने कहा कि उन दोनों के लिये निद्र्धारित सीटें लखनऊ तक पूरी तरह खाली आयी थीं, उन पर कोर्इ दूसरा मुसाफि़र नहीं बैठा था.

यह दोनों सूचनाएं मेरे लिये किसी अनजाने रहस्य से कम नहीं थीं, और उनकी खोजबीन करने में मुझे निशिचत ही कुछ समय लग गया.

राजेश उन दिनों मदरास में किसी फि़ल्म की शूर्टिग कर रहा था. नव-परिणीता डिम्पल भी उसके साथ थी. जैसा कि राजेश के प्रचार अधिकारी धीरेन्द्र किशन ने मुझे बाद में बताया, दोनो ही अपनी प्रस्तावित लखनऊ-यात्रा को लेकर अत्यधिक उत्साहित थे. अपने पिछले लखनऊ-प्रवास का पूरा लेखाजोखा राजेश ने डिम्पल के सम्मुख प्रस्तुत किया था और उस समय जमाल रसूल खां के रसूख, उनकी शाइस्तगी, उनके शायराना मिजाज़ और उनके दस्तरख्वान की जो तस्वीरें उसने अपनी पत्नी के सामने पेश की थीं उनसे खुद डिम्पल चकाचौंध होकर रह गयी थी.

लेकिन राजेश के सपनों की रेशम डोर उस समय अचानक टूट कर रह गयी जब उसने अन्य पुरस्कार-विजेताओं के साथ संजीव कुमार को भी पालम हवार्इ अडडे के फ़ायर में प्रवेश करते देखा. राजेश और डिम्पल का प्लेन मदरास से वहां पहुंचा था, और संजीव कुमार की फलाइट बम्बर्इ से. अराइवल लाउंज में अचानक ही जब दोनों की मुठभेंड़ हो गयी तो राजेश चौंक उठा. शर्मिला, बासु, सिप्पी और अब्बास के साथ यह संजीव कैसे? फिर अपनी शंका की निवृत्ति करने की गरज़ से वह संजीव से पूंछ ही बैठा – यहीं दिल्ली तक आये हो या और कहीं जाने का इरादा है?

— लखनऊ जा रहे हैं हम लोग. यू.पी. के जर्नलिस्टो ने मुझे साल का बेहतरीन ऐक्टर माना है न, उसी का अवार्ड लेने मैं वहां जा रहा हूं. और तुम ….

राजेश संजीव के इस सवाल का जवाब नहीं दे पाया. डिम्पल को साथ लिये हुए वह फ़ौरन ही ओबराय होटल की ओर निकल भागा और वहां पहुंचने के बाद अपने कमरे के किवाड पूरी तरह बन्द कर लिये. डिम्पल उससे पूंछती ही रह गयी कि अचानक यह क्या हो गया आखि़र, लेकिन उसने कोर्इ जवाब देने की ज़रूरत ही नहीं महसूस की. उसे यह समझ में ही नहीं आ पा रहा था कि श्रेष्ठतम अभिनय के लिये उसके नामांकन के बाद संजीव को तत्संबंधित पुरस्कार कैसे दिया जा रहा है?

कुछ देर बाद  शर्मिला के साथ सम्पर्क स्थापित करते हुए उसने वस्तुसिथति की जानकारी लेने का प्रयास किया, लेकिन अपने उस मंतव्य में भी उसे कोर्इ सफलता नहीं मिल पायी. शकित सामन्त अगर साथ में होते तो निशिचत ही उसकी शंका का समाधान हो गया होता, लेकिन संयोग से उन्हें जिस फलाइट से दिल्ली पहुंचना था वह किसी तकनीकी खराबी की वजह से अधरास्ते ही वापस लौट गयी थी इससे वह विकल्प भी शेष नहीं रह पाया था.

उस रात शर्मिला का टेलिफ़ोन जब मुझे मिला उस समय अपने इसी मानसिक संत्रास से वह गुज़र रहा था.

राजेश को दर-असल इस बात पर पूरा विश्वास था कि साल भर पहले जब वह खुद ही हमारे समारोह में शामिल होने का वायदा कर चुका है तो निरर्थक पत्र-व्यवहार की आवश्यकता ही क्या? उसे इस बात का क़तर्इ इल्म नहीं था कि अन्यान्य पुरस्कारों के विपरीत हमारे पुरस्कारों का नामांकन पूर्व-निर्धारित नियमों के अनुसार ही सम्पन्न किया जाता है और उस दिशा में किसी कोताही की क़तर्इ कोर्इ गुंजाइश नहीं.

लोगों से पता चला कि वापस बम्बर्इ लौटने के बजाये वह फिर पूरे दो दिन ओबराय होटल मे ही टिका रहा – इस तथ्य के बावजूद कि अनेकानेक फि़ल्म निर्माता उस समय वहां उसकी प्रतीक्षा में रत थे. उसे डर था कि खुदा-न-ख्वास्ता वापस जाते समय अगर उसका आमना-सामना फिर लखनऊ से लौटने वाली टोली के साथ हो गया तो किस तरह उन लोगों को वह अपना मुंह दिखायेगा. वह ऐसे दिन थे जब उसके पल-पल की कीमत लाखों में आंकी जाती थी, और किसी फि़ल्मकार को शूटिंग के लिये अगर उसमें से चन्द घन्टे भी मिल जाते थे तो वह अपने को निहाल समझता था. कहते हैं, उन दो दिनों राजेश को न अपने शूटिंग शेडयूल की कोर्इ याद आयी और न विभिन्न निर्माताओं के साथ किये गये अपने वायदों की. डिम्पल की उपसिथति का उसे संज्ञान रहा या नहीं यह भी विवाद का विषय है, क्योंकि कतिपय विश्वस्त सूत्रो के अनुसार उस अवधि में उसने स्काच की बोतलों के अतिरिक्त किसी दूसरे की ओर ताकने की ज़रूरत भी नहीं महसूस की थी.

कुछ दिनों बाद मोहन सहगल जैसे निर्माता-निर्देशक उस घटना पर कटाक्ष करते हुए हंसी हंसी में मुझसे पूंछ बैठे थे – रूपये-दो रूपयों की क़लम के सहारे अपनी जि़न्दगी बिताने वाले तुम्हारे जैसे अदना जर्नलिस्ट को इस बात की हिम्मत आखिर कैसे हुर्इ जो लाखों-करोड़ो से खेलने वाले राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार से पंगा लेने की हिमाकत तुम कर बैठे?

जवाब में मैंने कहा था – पंगा लेने की हिम्मत वही जुटा सकता है, मोहनजी, जिसके पास खोने के लिये कुछ न हो. इसी से तो लक्ष्मी और सरस्वती के अनुयायियों में जब कोर्इ संघर्ष होता है तो आम तौर पर लक्ष्मीपूजक ही मुंह के बल गिरते देखे गये हैं.

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  1. महोदय राम कृष्ण जी,

    आर के सिंह जी ने जो बाते कहीं वही हमारे मस्तिष्क में भी कौंध रहीं थी| हो सकता है, कि राजेश (जतिन) जी उस समय भाड़े कि टैक्सी ले कर आये हो, परन्तु आर के सिंह जी द्वारा जानकारी पर प्रकाश मांगने पर जिस तरह आप विचलित और भडकी हुए लग रहे हैं उस से तो लगता है कोई पाप हो गया हो या आपकी कथावस्तु की सत्यता पर ही सवाल उठा दिया हो.. अगर आप अपने विचार सार्वजानिक मंच पर रख रहे हैं तो पाठकों का अधिकार है के वे उसे अंगीकार करें या अस्वीकार एवं कुछ बिन्दुयों पर उत्सुकतावश और जानकारी या स्पष्टीकरण मांगना भी उनका अधिकार है|.कोई भी लेखक अपने लेखो को पत्रकारिता कि भांति पाठकों पर नहीं थोप सकता |

    …या कभी ऐसा भी लगता है …कि सफलता का सुरूर दिमाग पर चढा हो तो हर दूसरा और दूसरे कि बात छोटी लगती है…..

    राम कृष्ण जी आप उम्र एवं अनुभव में बड़े हैं. फलों से लदी डाली तो झुकी होती है…अपने विचारों एवं आचारों के बड़प्पन से इस समाज और हमारा कुछ उद्धार करने कि कृपा करें…

    कुछ गलत कहा हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ

    आर त्यागी

  2. मेरे इन दो टिप्पणियों पर श्री राम कृष्ण जी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दो मेल भेजे हैं राम कृष्ण जी से क्षमा याचना करते हुए मैं वे दोनों मेल यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ.
    १.पहली टिप्पणी के बाद ,प्रिय बंधु : आपका पत्र पढ़ कर ख़ुशी हुई. मेरे आलेख आप नियमित रूप से पढ़ते हैं यह मेरे लिए गर्व की बात है.
    राजेश लखपति था या करोडपति इसका संज्ञान मुझे नहीं है. मैंने तो जो कुछ देखा था वही लिख दिया. हो सकता है टेलेंट कान्टेस्ट में उसे नौलखा गाडी से आते हुए आपने देखा हो, लेकिन वह गाडी उसकी थी या किसी दूसरे की यह आपको ही मालूम होगा. बहरहाल उन दिनों वह कालबादेवी स्थित ठाकुरद्वार इलाके की किसी चाल में रहता था इतना कुछ मुझे ज़रूर बताया गया था और चेतनजी ने खुद यह बात बताई थी. आपकी परिकल्पना को मैं चैलेंज नहीं करूंगा क्योंकि खुद मैं उसके उस निवास पर कभी नहीं गया. हो सकता है चेतनजी को पूरी बात ठीक से मालूम न हो.
    बंटी फिल्म निर्माण के समय पंद्रह महीने का ही था. हमारे प्रशस्ति समारोह में चेतनजी के साथ जब वह शामिल हुआ तब तक वह निश्चित ही तीन साल का हो चुका होगा. इसी से मेरे लिखने में कोई गलती हो गयी होगी. अनजाने में किये गए इस अपराध के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ.
    इसी तरह समय समय पर अपनी टिप्पणिओं से उपकृत और अनुग्रहीत करते रहें यह प्रार्थना ज़रूर है.
    विश्वास है सानंद होंगे.
    सतत विनत – रामकृष्ण.
    २.दूसरी टिप्पणी के बाद,प्रिय बंधु : हर काम के लिए हर आदमी के अलग-अलग मानदंड होते हैं. जैसे आपको इस बात का अधिकार है कि अपने उपदेशामृत से हमारे जैसे नाकारा लेखकों को अपनी बे-मांगी नसीहतों से आप आप्लावित करते रहें, वैसे ही मुझे भी यह अधिकार है कि मैं उन्हें रद्दी की टोकरी में डालता चलूँ. इस स्पष्टवादिता के लिए क्षमा प्रार्थी तो हूँ, लेकिन उसे देने या न देने के आपके अधिकार का मैं निरंतर स्वागत करूंगा. आप चाहें तो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं या उनके प्रकाशन संस्थानों को यह निर्देश कर सकते हैं क़ि भविष्य में वह मेरी किसी रचना का उपयोग न करें. मैं आपके इस क़दम की शिकायत कभी नहीं करूंगा, इस बात का मैं विश्वास दिलाता हूँ. भविष्य में मैं आपके किसी भी आक्षेप का जवाब देने में समर्थ नहीं रहूँगा इस बात को भी कृपया नोट कर लें — विनीत – रामकृष्ण.

  3. राजेश खन्ना पर आपका आलेख पड़ा ,उससे आपकी बेखोफ कलम की ताक़त का अंदाज़ा जरुर हुआ और आपने उस कलम का बेहतरीन इस्तेमाल किया ,मुझे राजेश खन्ना के किसी भी तरह के वेयाव्हार से कोई निस्बत नहीं उस वक़्त वो राजेश खन्ना नहीं कोई और था ,उससे पहिले दिलीप कुमार साहब थे तो आज शाहरुख़ खान हैं कुछ भी बदलाव नहीं हे ,सफलता और उससे उपजा सुरूर शराब से कहीं ज्यादा होता हे …आज भी हर जगह हर छेत्र मैं ऐसी ही सफलता को प्राप्त राजेश खन्ना अपनी बदमिज़ाजी से चूर मोजूद हैं एक राजेश खन्ना कभी भी मर सकता हे पर उस पर वक्ती तौर पर सवार ,अहंकार ,अकूत धन और शराब-शबाब-कबाब सदा जिन्दा हैं और रहेंगे …सिर्फ चेहरे बदलेंगे आइना नहीं ,बरहाल मेरी कोशिश रहेगी अबसे की आपके लिखे और लेखों का भी लुत्फ़ उठायुं अगर उन्हें प्राप्त कर सका …बधाई …

  4. मैं तो इन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बारे में जो भी जानकारी हासिल करता हूँ ,वह पत्र पत्रिकाओं और टीवी के माध्यम से होता है.राजेश खन्ना के बारे में भी बड़ी गाडी में जाने का आधार यही जानकारियाँ थी.मैं अब इसी प्रसंग में गूगल में प्रकाशित उसके जीवनी का कुछ अंश ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूँ,Born 29 December 1942 as Jatin Arora,[2][22] Khanna was adopted and raised by foster parents – Chunni Lal Khanna and Leela Wati Khanna,[23] who were relatives of his biological parents, after his father had migrated from pre-partitioned Pakistan to Gali Tiwarian in the city of Amritsar in 1940.[24]Khanna lived in Thakurdwar near Girgaon, Mumbai (then called Bombay) and attended St. Sebastian’s Goan High School there, along with his friend Ravi Kapoor, who later took the stage name Jeetendra, and whose mothers were friends.[25] Khanna gradually started taking interest in theatre and did a lot of stage and theatre plays in his school[26] and college days and won many prizes in the inter college drama competitions.[27] Khanna became a rare newcomer who struggled in his own MG sports car to get work in theatre and films in the early sixties.[28] Khanna did his first two years of Bachelor of Arts at Wadia College in Pune from 1959 to 1961.[29]Both friends later studied in K. C. College, Mumbai.[30] Khanna also tutored Jeetendra for his first film audition. Khanna’s uncle changed Khanna’s first name to Rajesh when Khanna decided to join films. His friends and his wife called him Kaka.[31]
    राम कृष्ण जी से ख़ास अनुरोध है की वे इस अंश को देखे.
    ऐसे तो किसी व्यक्ति का सही मूल्यांकन उसकी मृत्यु के बाद ही संभव होता है,पर इस तरह का आलेख जिसमें लगाये गए आरोपों का स्पष्टीकरण वह व्यक्ति न कर सके,जिसके विरुद्ध वे आरोप हैं,क्या ठीक है?

  5. श्री रामकृष्ण जी अपने इस संस्मरण में अनेक बहुमूल्य जानकारी दी.राजेश खन्ना के चरित्र के कुछ अछूते पहलूओं पर भी प्रकाश डाला,पर मुझे भी यह समझ में नहीं आया कि जो जतिन खन्ना टैलेंट टेस्ट में भी बड़ी सी गाडी में बैठ कर गया था,जहाँ उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया था,वही जतिन उर्फ़ राजेश खन्ना एक साधारण सी पीली टैक्सी में क्यों आया? ऐसे भी जहाँ तक मैंने पढ़ा है वह ऐसे धनाढ्य परिवार का दत्तक पुत्र था,,जहाँ उसे हर तरह की सुविधा प्राप्त थी.यह तो नहीं मालूम कि-अंजू महेन्द्रू की आर्थिक दशा उससे बेहतर थी या नहीं,पर इतना अवश्य था कि राजेश खन्ना की आथिक अवस्था उस समय भी बहुत अच्छी थी. मेरी आयु स्व. राजेश खन्ना जी से आधी है. लेकिन पचपन में उनकी फिल्म “बाबर्ची” देखकर उनके निभाए किरदार जैसा निजी जीवन में बनने का प्रयास किया है और अब अपनी रूपये-दो रूपये कलम से किसी मदद करने प्रयास करता हूँ.

    श्री रामकृष्ण जी, जब मोहन सहगल जी ने हंसी हंसी में आप से पूछा था कि-रूपये-दो रूपयों की क़लम के सहारे अपनी जि़न्दगी बिताने वाले तुम्हारे जैसे अदना जर्नलिस्ट को इस बात की हिम्मत आखिर कैसे हुई जो लाखों-करोड़ो से खेलने वाले राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार से पंगा लेने की हिमाकत तुम कर बैठे? तब आपने जवाब में कहा था – पंगा लेने की हिम्मत वही जुटा सकता है, मोहनजी, जिसके पास खोने के लिये कुछ न हो. इसी से तो लक्ष्मी और सरस्वती के अनुयायियों में जब कोई संघर्ष होता है तो आम तौर पर लक्ष्मीपूजक ही मुंह के बल गिरते देखे गये हैं. आपका यह जबाब बहुत ही सही है और अच्छा लगा. आपके लेख में स्व. राजेश खन्ना के बारें में काफी जानकारी प्राप्त हुई.

  6. रामकृष्ण जी ने हमेशा की तरह अपने इस संस्मरण में अनेक बहुमूल्य जानकारी दी.राजेश खन्ना के चरित्र के कुछ अछूते पहलूओं पर भी प्रकाश डाला,पर मुझे यह समझ में नहीं आया कि जो जतिन खन्ना टैलेंट टेस्ट में भी बड़ी सी गाडी में बैठ कर गया था,जहाँ उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया था,वही जतिन उर्फ़ राजेश खन्ना एक साधारण सी पीली टैक्सी में क्यों आया?ऐसे भी जहाँ तक मैंने पढ़ा है वह ऐसे धनाढ्य परिवार का दत्तक पुत्र था,,जहाँ उसे हर तरह की सुविधा प्राप्त थी.यह तो नहीं मालूम कि अंजू महेन्द्रू की आर्थिक दशा उससे बेहतर थी या नहीं,पर इतना अवश्य था कि राजेश खन्ना की आथिक अवस्था उस समय भी बहुत अच्छी थी.
    दूसरी बात जो खटकी,वह यह की बंटी (आख़िरी ख़त का बाल कलाकार ) की उम्र उस समय पंद्रह महीने थी न कि तीन वर्ष,जैसा कि राम कृष्ण जी ने लिखा है.
    आशा है ,राम कृष्ण जी इन दो पहलुओं पर प्रकाश डालेंगे.

  7. रूपहले पर्द पर कई दषक तक प्रेम और रोमांस को अपने मखमली दमदार अभिनय से नई ऊॅचाईया और नई पहचान दिलाने वाले, नौजवानो को अपनी फिल्मो के माध्यम से प्यार करना सीखाने वाले, अपनी दोनो आंखो को पलभर के लिये बंद कर, हाथ की दो अंगुलियो को नचा कर अपने दमदार अभिनय की बिजली दर्षको पर गिराने वाले हिंदी सिनेमा के पहले लव गुरू, काका अर्थात राजेश खन्ना जी हम सब को छोड़कर दूर बहुत दूर चले गये। राजेष खन्ना जी एक ऐसे कलाकार थे जिन्होने अपनी न जाने कितनी फिल्मो के माध्यम से प्यार और रोमांस नई ऊॅचांई दी इस के अलावा हिंदी सिनेमा को वो जिस ऊॅचाई पर ले गये वो आज नये कलाकारो के लिये मिसाल होने के साथ साथ आदर्ष भी है।

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