राजनीति

मजबूत लोकतंत्र के लिए छात्र संघ जरूरी

-संजीव कुमार सिन्हा

इन दिनों देश के कई विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव हो रहे हैं। लेकिन अभी भी अधिकांश विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनावों पर रोक लगी है। ‘शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ के चुनाव होने चाहिए या नहीं’ यह बहस बहुत पुरानी है और आज भी इस पर जोरदार बहस चलती रहती है।

हम गर्व के साथ कहते हैं कि भारत को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है लेकिन लोकतंत्र की पहली सीढ़ी को ही हम बाधित करने पर तुले हुए हैं। इसमें कोई दोमत नहीं कि छात्र संघ लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करता है क्योंकि इससे जनता का राजनीतिक प्रशिक्षण सुनिश्चित होता है और नेतृत्व क्षमता विकसित होती है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज देश के करीब तीन सौ विश्वविद्यालयों और पन्द्रह हजार कॉलेजों में से 80 फीसदी विश्वविद्यालयों में छात्र संघ नहीं है। अनेक राज्यों ने छात्रसंघों के चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिए है। यह छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार पर हमला है। यह अपने आप में विरोधाभासी प्रतीत होता है कि एक तरफ तो आप 18 वर्ष की उम्र के छात्र-युवकों को जन-प्रतिनिधि चुनने हेतु वोट देने का अधिकार देते हैं और वहीं दूसरी ओर छात्र संघ चुनाव पर रोक लगा दी जाती हैं। यह कहां का न्याय है कि देश का छात्र संसद और लोकसभा के लिए जन-प्रतिनिधि चुन सकता है लेकिन अपने कॉलेज में छात्र-प्रतिनिधि नहीं चुन सकता।

छात्र संघ चुनाव के विरोध में सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से आरोप लगाए जाते हैं कि इसमें धनबल और बाहुबल का बोलबाला हो गया है तथा इससे पढ़ाई का माहौल दूषित होता है। यहां प्रश्न उठता है कि बिहार में लगभग पच्चीस वर्षों से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए तो क्या यहां के परिसर हिंसामुक्त हो गए और दिल्ली विश्वविद्यालय जहां प्रतिवर्ष छात्र संघ चुनाव होते हैं, वहां की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गई? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पिछले पन्द्रह सालों से प्रत्यक्ष छात्र संघ चुनाव पर रोक लगी है। सर्वोच्च न्यायालय ने छात्र संघ चुनाव में सुधार को लेकर लिंग्दोह समिति का गठन किया था, जिसकी सिफारिशें छात्र संघ चुनाव के लिए अनिवार्य हो गई है। इस समिति के मुताबिक एक प्रत्याशी केवल पांच हजार रुपए ही खर्च कर सकता है, वह दुबारा चुनाव नहीं लड़ सकता, उसकी उम्र 25 वर्ष तक होनी चाहिए, यदि शोध छात्र हों तो 28 वर्ष तक, मुद्रित पोस्टर पर रोक लगे, इत्यादि। ध्यान से देखें तो इस समिति की सिफारिशें अव्यावहारिक ही नजर आती है। जेएनयू एक कॉम्पैक्ट कैम्पस है इसलिए वहां पांच हजार रुपए में प्रचार हो सकता है लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय, जिसके छात्र संघ से संबंधित 51 कॉलेज दिल्ली भर में फैले हैं, क्या महज पांच हजार रुपए में सप्ताह भर में प्रचार हो सकते हैं? लिंग्दोह की सिफारिश की विडंबना देखिए कि लगभग चार दशकों तक नियमित रूप से संपन्न हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ चुनाव, जहां समूचे चुनाव का प्रबंधन छात्रों के हाथों में ही होता है और जिसे आदर्श छात्र संघ माना जाता है, इस समिति की सिफारिशों के चलते ही स्थगित है। जेएनयू मूलत: एक शोध संस्थान है। वहां जेनुइन छात्र ही प्रवेश लेते हैं लेकिन 28 वर्ष की उम्र सीमा का बैरियर लगाकर क्यों छात्रों को लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है?

भारत में छात्र आंदोलनों का एक गौरवमयी इतिहास है। छात्रों ने हमेशा समाज-परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। महात्मा गांधी के आह्वान पर लाखों छात्रों ने अपने कैरियर को दांव पर लगाते हुए स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार किया। वर्ष 1973 में गुजरात विश्वविद्यालय में मेस खर्च की राशि बढ़ाए जाने के विरोध में छात्र आंदोलन हुआ और अगले साल 1974 में बिहार में शुल्क वृद्धि के खिलाफ छात्रों ने आंदोलन प्रारंभ किया। बाद में यह राष्ट्रीयव्यापी आंदोलन हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल को इसी आंदोलन के बूते चुनौती दी गई और व्यवस्था परिवर्तन साकार हुआ। केन्द्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। गौरतलब है कि छात्र संघ से निकले अनेक नेता राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में अन्य की अपेक्षा अच्छी भूमिका निभा रहे हैं-अरुण जेटली, सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद, विजय गोयल, शरद यादव, नितीश कुमार, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, अजय माकन आदि। असम में छात्र आंदोलन से निकले लोगों ने ही सरकार चलाई। छात्र नेता प्रफुल्ल महंत मुख्यमंत्री बने। नब्बे के दशक के प्रारंभ में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरोध में छात्रों ने आरक्षण विरोधी आंदोलन को परवान चढ़ाया। लेकिन कैम्पसों में सक्रिय देश के प्रमुख छात्र संगठनों ने आरक्षण का समर्थन कर देश को झुलसने से बचा लिया। सन् 1988 में बोफोर्स कांड को लेकर भ्रष्टाचार के विरोध में देश भर में छात्र संगठनों द्वारा संघर्ष चलाया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की पहल पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की विशाल आम सभा दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई। नब्बे के दशक में शिक्षा के व्यावसायीकरण के विरोध में छात्रों ने कैम्पसों में अभियान चलाया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में निजीकरण के खिलाफ सशक्त आंदोलन खड़ा हुआ। इस सदी के प्रारंभ में सन् 2002 में शिक्षा और रोजगार के सवाल को लेकर विद्यार्थी परिषद् के बैनर तले 75,000 छात्रों ने संसद के सामने दस्तक दी।

आज विश्वविद्यालयों में शिक्षा का व्यावसायीकरण जोरों पर है। शुल्क में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। शिक्षा के मंदिर दुकान में तब्दील हो गए हैं। अयोग्य छात्र भी पैसे के बूते डिग्रियां खरीद रहा है जबकि प्रतिभाशाली छात्र पैसे के अभाव में उच्च शिक्षा से वंचित हो रहा है। वास्तव में, शिक्षा आम आदमी की पहुंच से दूर हो गया है। प्रतिभाशाली छात्र असमानता का शिकार हो रहा है। शिक्षण संस्थानों का उद्देश्य शैक्षिक गुणवत्ता के बजाय धन कमाना हो गया है। सवाल है कि ऐसी परिस्थितियों में विश्वविद्यालय प्रशासन की मनमानी के खिलाफ कौन आवाज बुलंद करेगा? एक आम छात्र के हक के लिए कौन सामने आएगा? जाहिर है छात्रों को ही अपने अधिकार के लिए एकजुट होना होगा।

आज जब समाज-जीवन और राष्ट्रीय राजनीति में भी विकृतियां दिखाई दे रही है तो उसका प्रतिबिम्ब छात्र राजनीति पर भी पड़ना स्वाभाविक है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कई शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ चुनाव में अपराधीकरण की प्रवृति व्याप्त है। यह सचमुच चिंता का विषय है लेकिन रोग को दूर करने के बजाए रोगी को मारना, यह कैसा न्याय है? यहां सवाल उठता है कि क्या लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हिंसा नहीं होती? तो फिर छात्र संघ चुनाव पर ही क्यों रोक लगाए जाते हैं? कारण साफ है कि छात्र समुदाय स्वभाव से ही सत्ता और व्यवस्था विरोधी होता है। यदि छात्र एकजुट हो गए तो सरकार और प्रशासन की मनमानी कैसे चलेगी?