
मनोज ज्वाला
एक जनवरी से प्रारंभ होने वाली अभारतीय पश्चिमी काल गणना को हम
ईस्वी संवत (सन्) के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई मजहब व ईसा
मसीह से है । इसे रोम के सम्राट जुलियस सीज़र द्वारा ईसा के जन्म के तीन
वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया । भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेजी
औअपनिवेशिक शासकों ने सन 1752 में किया । 1752 के पहले यह ईस्वी सन् आज
के 25 मार्च की तारीख से शुरू होता था; किन्तु 18 वीं शताब्दी से इसकी
शुरूआत एक जनवरी से होने लगी । जनवरी से जून तक के इसके सभी महीनों का
नामकरण रोमन देवी-देवताओं के नाम पर हुआ है । जबकि जुलाई और अगस्त माह
का नामकरण रोमन सम्राट जूलियस तथा उसके पौत्र ऑगस्टन के नाम पर हुआ है ।
शेष चार महीनों के नाम उन महिनों के क्रमानुसार हुआ है । ऐसे नामकरण का
आधार एकदम बेतुका है क्योंकि काल-गणना को प्रभावित-निर्धारित करने वाले
कारकों अर्थात ग्रहों-नक्षत्रों या अन्य खगोलीय पिण्डों से इसका कोई
सम्बन्ध नहीं है ।
यह काल-गणना मात्र दो हजार वर्षो के खण्डित काल को दर्शाती है ।
इससे पृथ्वी की आयु अथवा काल की प्राचीनता का कुछ भी पता नहीं चलता है ।
जबकि भारतीय काल-गणना के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख
49 हजार ११२ वर्ष होने के व्यापक प्रमाण हमारे ज्योतिषियों व
खगोलशास्त्रियों के पास उपलब्ध हैं । भूगोल व खगोल से सम्बन्धित प्राचीन
भारतीय ज्ञान-विज्ञान के दर्जनों ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें आदिकाल के अब तक
के एक-एक पल की गणना के सूत्र-समीकरण दिए गए हैं ।
यहां यह भी ध्यातव्य है कि जिस प्रकार ईस्वी संवत् का सम्बन्ध ईसा
से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत व हजरत मोहम्मद से
है और इसी कारण ये दोनों मजहबी संवत हैं । किन्तु विक्रम संवत् का
सम्बन्ध किसी भी मजहब से नहीं बल्कि समस्त विश्व-वसुधा के भूगोल- खगोल
की प्रकृति और काल को प्रभावित-निर्धारित करने वाले ब्रह्माण्डीय
ग्रहों-नक्षत्रो की स्थिति से है । यह सूर्य की परिक्रमा करने वाली
पृथ्वी सहित सौर मण्ड़ल के समस्त ग्रहों व नक्षत्रों की चाल से परिवर्तित
दिन-रात-सप्ताह-मास-वर्ष के रुप में होने वाले काल-परिवर्तन के
सिद्धांतों पर आधारित है । इसी कारण से भारतीय काल-गणना सर्वथा
वैज्ञानिक प्रामाणिक और सत्य व सनातन है । श्रीमदभागवत में एक प्रसंग है
कि राजा परीक्षित महर्षि व्यास के पुत्र महामुनि शुकदेव से पुछते हैं कि
काल क्या है और इसक सूक्ष्मतम व महत्तम रुप क्या है ? तब शुकदेव जी
उन्हें बताते हैं कि विषयों के रुपान्तरण को अभिव्यत करने वाला अमूर्त
तत्व ही काल है जिसका सूक्ष्मतम रुप परमाणु और महत्तम रुप ब्रह्मायु है ।
शुक मुनि की गणना से एक दिन रात में 3280500000 परमाणु काल होते
हैं जो एक 86400 सेकेण्ड के बराबर हैं । पश्चिम का आधुनिक विज्ञान एक
सेकण्ड से कम के समय-काल को नहीं माप सकता है क्योंकि समय को मपने की
उसकी न्यूनतम ईकाई सेकण्ड ही है । जबकि भारतीय ऋषियों ने सेकण्ड के
हजारों-हजार भाग को भी माप रखा है जिसके अनुसार एक परमाणु काल एक सेकण्ड
का 37968 वां हिस्सा है ।
भारतीय ज्ञान-विज्ञान की विविध स्थ्पनाओं में कालगणना पृथ्वी,
चन्द्र, सूर्य की गति के आधार पर होती रही तथा चंद्र व सूर्य की गति के
प्रभाव से उत्पन्न अंतर को पाटने के लिए ‘अधिमास’ का प्रावधान किया गया
है । संक्षेप में काल-मापन की विभिन्न इकाइयां एवं उनके आधार इस प्रकार
है-
दिन-रात और वार- पृथ्वी अपनी धुरी पर १६०० कि.मी. प्रति घंटा की
गति से घूमती है । इस घुर्णन गति से एक चक्र पूरा करने में उसे २४ घंटे
का समय लगता है। उस दौरान पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने रहता है उसे
‘अह:’ (दिन) तथा जो पीछे रहता है उसे ‘रात्र’ (रात) कहा गया है । इस
प्रकार १ अहोरात्र में २४ होरा होते हैं । अंग्रेजी भाषा का ‘आवर’
(hour) शब्द ही होरा का ही अपभ्रंश रूप है ।
सौर दिवस- सूर्य की प्रदक्षिणा करते हुए अपने अक्ष पर पृथ्वी को एक
चक्र घुमने में २४ घण्टे का जो समय लगता है उसे सौर दिवस कहते हैं ।
चान्द्र दिवस- चन्द्रमा ३६८० किलोमिटर प्रति घण्टा की गति से
पृथ्वी की परिक्रमा उसी तरह से करती है जिस तरह से सूर्य की परिक्रमा
पृथ्वी करती है । अपने अक्ष पर एक चक्र घुमने में चन्द्रमा को जितना समय
लगता है उसे एक ‘चान्द्र दिवस’ कहते हैं । चान्द्र-दिवस को ही १२-१२ अंश
तक चन्द्रमा की क्रमिक अवस्था के अनुसार तिथि कहते हैं जैसे- प्रथमा,
द्वितीया तृतीया चतुर्थी……. एकादशी…अमावस्या….पूर्णिमा आदि।
सप्ताह- सारे विश्व में सप्ताह के दिन व क्रम भारतीय काल-गणना की
विधि के अनुसार ही प्रचलित हैं । हमारे वैदिक ऋषियों ने पृथ्वी से
उत्तरोत्तर दूरी के आधार पर ग्रहों का क्रम निर्धारित कर रखा है. यथा-
सूर्य. शनि, गुरु, मंगल, शुक्र, बुद्ध और चन्द्रमा । चन्द्रमा पृथ्वी के
सबसे निकट है तो शनि सबसे दूर । ऋषियों ने दिनों का नामकरण भी बहुत
सोच-स्मझ कर ग्रहों की प्रधानता के आधार पर किया है । चूंकि दिन का
प्रत्येक 24 घंटा या होरा किसी न किसी ग्रह-उपग्रह से प्रभावित रहता है
जो उस अवधि का अधिपति होता है अतएव 24 घंटे पूरे होने के बाद अगले दिन
के प्रथम घण्टा-होरा का जो अधिपति ग्रह होता है, उसी के नाम पर उस दिन का
नाम रखा गया है । सूर्य अर्थात रवि से चूंकि समस्त सृष्टि उत्त्पन्न हुई,
इस कारण रवि के नाम से प्रथम दिन की शुरुआत कर अगले सभी दिनों का नामकरण
उस दिन के प्रथम घण्टा- होरा के अधिपति ग्रह के नाम से किया गया है ।
जैसे- चन्द्र अर्थात सोम से सोमवार मण्गल से मंगलवार बुध से बुधवार
वृहस्पति से वृहस्पतिवार तथा शुक्र से शुक्रवार और शनि से शनिवार ।
पक्ष-पृथ्वी की परिक्रमा में चन्द्रमा का १२ अंश तक चलने की अवधि को
एक तिथि कहते हैं । जब चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के मध्य पहुंचता है तब
रात अंधेरी होती है और उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। इसे ० (अंश) कहते
है। वहां से १२ अंश चलकर जब चन्द्रमा सूर्य से १८० अंश के अंतर पर
पहुंचता है, तो उस तिथि को पूर्णिमा कहते हैं जिसकी रात उजियारी होती है।
इस प्रकार एक प्रथमा से अमावस्या वाली १५ तिथियों को कृष्ण पक्ष और पुनः
प्रथमा से पूर्णिमा वाली १५ तिथियों को शुक्ल पक्ष कहा गया है ।
मास- मासों की संख्या और उनका नामकरण आकाश में अवस्थित नक्षरों के
गुण व प्रभाव के आधार पर किया गया है । मालूम हो कि चंद्रमा २७-२८ दिनों
में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है । खगोल में यह भ्रमण-पथ इन्हीं तारों
के बीच से होकर गुजरता है और इस पथ में पड़नेवाले तारों से निर्मित
तारकपुंज नक्षत्र कहलाते हैं जिनकी संख्या २८ है-
इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं । महीने की
पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र
के अनुसार है । देखिए कितना सटीक है यह नामकरण- चित्रा नक्षत्र के नाम पर
चैत्र मास (मार्च-अप्रैल), विशाखा नक्षत्र के नाम पर वैशाख मास
(अप्रैल-मई), ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम पर ज्येष्ठ मास (मई-जून), आषाढ़ा
नक्षत्र के नाम पर आषाढ़ मास (जून-जुलाई), श्रवण नक्षत्र के नाम पर
श्रावण मास (जुलाई-अगस्त), भ नक्षत्र के नाम पर भाद्रपद मास
(अगस्त-सितम्बर), अश्विनी नक्षत्र के नाम पर आश्विन मास
(सितम्बर-अक्तुबर, कृत्तिका के नाम पर कार्तिक मास (अक्टूबर-नवम्बर),
मृगशीर्ष के नाम पर मार्गशीर्ष (नवम्बर-दिसम्बर), पुष्य नक्षत्र के नाम
पर पुष मास आदि ।
चन्द्र वर्ष एवं सौर वर्ष- चन्द्रमा ३५४ दिन, ८ घंटे, ४८ मिनट ३६
सेकंड में पृथ्वी की बारह बार परिक्रमा कर लेता है । इस अवधि को एक
‘चान्द्र वर्ष’ कहते हैं । इसी तरह से पृथ्वी के द्वारा सूर्य की एक
परिक्रमा पूरी करने में ३६५ दिन ५ घण्टे ४८ मिनट ४६ सेकेण्ड का समय लगता
है । इस अवधि को एक ‘सौर वर्ष’ कहते हैं । इस प्रकार सौर वर्ष और चांद्र
वर्ष में प्रति वर्ष १० दिन, २१ घंटे का अंतर पड़ता है जिसे हमारे ऋषियों
ने प्रत्येक तीसरे वर्ष पर एक अतिरिक्त माह अर्थात ‘अधिमास’ का प्रावधान
कर समायोजित कर रखा है । जबकि पश्चिम के ईसाई लैलेण्डर में इस अन्तर को
फरवरी माह के दिनों की संख्या हर तीसरे वर्ष २८ के बजाय २९ निर्धारित कर
के समायोजित किया गया है ।
ब्रह्माण्डीय वर्ष- वैदिक ऋषियों की मान्यता है कि सम्पूर्ण
सृष्टि पंच मण्डलीय क्रम से संचालित है- चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल,
सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल । चन्द्रमा अपने अक्ष पर
गतिशील है जो पृथ्वी की परिक्रमा करता है; पृथ्वी अपने अक्ष पर घुमती
हुई सूर्य की परिक्रमा करता है ; सूर्य भी अपने अक्ष पर धुमते हुए
आकाशगंगा (परमेष्टि) के केन्द्र में परिभ्रमण करता है ; जबकि आकाशगंगा
ब्रह्माण्ड (स्वयंभूव मण्डल) की प्रदक्षिणा करता है और ब्रह्माण्ड
परमब्रह्म की । इन सभी पिण्डों के परिभ्रमण की गति अलग-अलग है इस कारण उन
पर काल के आयाम और आकार-प्रकार भी अलग-अलग हैं जो परिभ्रमण में लगने वाले
समय के सापेक्ष हैं । ऋषियों ने काल के ऐसे उच्च-स्तरीय ब्रह्माण्डीय
आकार-प्रकार को भी मन्वंतर परार्द्ध कल्प आदि नामों से मापा है जो
विज्ञान-सम्मत होने के साथ-साथ अदभूत व दिव्य हैं । ०१ ब्रह्माण्डीय
वर्ष में ३६० सौर वर्ष हुआ करते हैं ।
मन्वन्तर- सूर्य जितने समय में परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के
केन्द्र की एक प्रदक्षिणा पूरा करता है उसे ऋषियों ने मन्वन्तर काल कहा
है । ७१ चतुर्युगों का एक मनवंतर काल होता है जिसकी माप 30, ६७, २०000
(तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार) सौरवर्ष है । आज का अत्यधुनिक विज्ञान
भी इसकी पुष्टि करता है । मनवंतरों की संख्या १४ है जो एक-एक मनु के नाम
से इस प्रकार हैं- १. स्वयंभूव २. स्वारोचिष ३. औत्तमी ४. तामस ५. रैवत
६. चाक्षुष ७. वैवस्वत ८. सावर्णि ९. दक्ष १०. ब्रह्म ११. धर्म सावर्णि
१२. रुद्र १३. रौच्य १४. भौत
कल्प- परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है । यानी
आकाश गंगा अपने से ऊपर वाली आकाशगंगा की परिक्रमा कर रही है और इस एक
परिक्रमण में लगे समय को कल्प कहा गया है । १४ मनवंतरों का एक कल्प होता
है । एक मन्वंतर से दूसरे मन्वंतर के बीच की अवधि को संधिकाल कहते हैं जो
एक सतयुग के बराबर होता है और हर मन्वंतर के आदि में भी व अंत में भी
होता है । इस प्रकार से १४ मन्वंतरों और १५ संधियों के कुल 4 अरब 32
करोड़ सौर वर्षों (4,32,00,00,000) का एक कल्प हुआ जिसे वैदिक ॠषियों ने
ब्रह्मा का एक दिन अर्थात ‘ब्रह्म-दिवस’ कहा है । गीताऔर भागवत पुराण
में भी ऐसा ही उल्लेख है । कल्प ३० हैं जिनमें से श्वेतवाराह कल्प अभी चल
रहा है । प्रत्येक कल्प में १४-१४ मनु होते हैं जो एक-एक मनवंतर के
स्वामी होते हैं । मालोम हो कि ‘गिनीज़ बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स’ ने
कल्प को समय का सर्वाधिक लम्बा मापन घोषित किया है।
ब्रह्मवर्ष- ब्रह्मा का एक वर्ष 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ मानवीय वर्ष
के बाराबर है जिसे ब्रह्मवर्ष कहा गया है । ऐसे १०० ब्रह्मवर्षों की
लम्बी अवधि ब्रह्मा की आयु है जो
31 नील 10 खरब 40 अरब (31,10,40,000000000) मानवीय वर्ष के बराबर है ।
परार्द्ध- ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयु को ऋषियों ने ५०-५० ब्रह्म-वर्ष
के दो भागों में विभाजित किया हुआ है- पहले ५० वर्ष के प्रथम परार्द्ध और
अगले ५० वर्ष के द्वितीय पर्रार्द्ध । अभी द्वितीय पर्रार्द्ध चल रहा है
। अर्थात ब्रह्मा के आज तक ५० वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, ५१वें वर्ष का
प्रथम कल्प अर्थात् श्वेतवाराह कल्प प्रारंभ हुआ है। वर्तमान मनु का नाम
‘वैवस्वत मनु’ है और इनके २७ चतुर्युगी बीत चुके हैं, २८ वें चतुर्युगी
के भी तीन युग समाप्त हो गए हैं, चौथे अर्थात् कलियुग का प्रथम चरण चल
रहा है।
वर्तमान समय – वर्तमान कलियुग का आरंभ भारतीय गणना से ईसा से 3102
वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। उस समय
सभी ग्रह एक ही राशि में थे । इस संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध
खगोलवेत्ता बेली का कथन दृष्टव्य है- “हिन्दुओं की खगोलीय गणना के अनुसार
विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरम्भ ईसा के जन्म से 3102 वर्ष
पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था । इस प्रकार
यह कालगणना मिनट तथा सेकेण्ड तक की गई । आगे वे यानी हिन्दू कहते हैं,
कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पञ्चांग या टेबल भी
यही बताते हैं। ब्राह्मणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा
पूर्णत: प्रमाणित होती है । इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के
प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है ।”
वैदिक ऋषियों अर्थात भारतीय मनीषा की इस काल-गणना को देखकर यूरोप
के प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड-विज्ञानी कार्ल सेगन ने अपनी पुस्तक ‘cosmos’ में
कहा है- “विश्व में हिन्दू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जो यह प्रतिपादित
करता है कि इस ब्रह्माण्ड में उत्पत्ति और क्षय की एक सतत प्रक्रिया चल
रही है । यही एक धर्म है, जिसने समय के सूक्ष्मतम से लेकर बृहतत्तम माप,
जो समान्य दिन-रात से लेकर 8 अरब 64 करोड़ वर्ष के ब्रह्मोरात्र
(ब्रह्मा के दिन रात) तक की गणना की हुई है, जो आधुनिक खगोलीय मापों के
निकट है । यह गणना पृथ्वी व सूर्य की उम्र से भी अधिक है ; जबकि वैदिक
ऋषियों के विज्ञान में और भी लम्बी गणना के माप हैं ।”
ऋषियों की अद्भुत वैज्ञानिक व्यवस्था-
हमारे महान ऋषियों ने जहां खगोलीय गति के आधार पर काल का मापन किया
हुआ है वहीं काल की अनंत यात्रा एवं वर्तमान समय के साथ उसकी निरन्तरता
बनाये रखने और समाज में सर्वसामान्य व्यक्ति को भी इसका ज्ञ्न कर्ते
रहने की थी, जिसकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता है । हमारे देश
में कोई भी कार्य होता हो चाहे वह भूमिपूजन हो, वास्तुनिर्माण का प्रारंभ
हो- गृह प्रवेश हो, जन्म, विवाह या कोई भी अन्य मांगलिक कार्य हो, वह
करने के पहले कुछ धार्मिक विधि करते हैं । उसमें सबसे पहले संकल्प कराया
जाता है । यह संकल्प मंत्र यानी अनंत काल से आज तक की समय की स्थिति
बताने वाला मंत्र है। इस दृष्टि से इस मंत्र के अर्थ पर हम ध्यान देंगे
तो बात स्पष्ट हो जायेगी ।
संकल्प मंत्र में कहते हैं….
ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे-
अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र में वर्तमान ब्रह्मा की
आयु का द्वितीय परार्ध ; अर्थात वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे
हो गये हैं। श्वेत वाराह कल्पे-कल्प याने ब्रह्मा के 51वें वर्ष का पहला
दिन है।
वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उसमें सातवां
मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
अष्टाविंशतितमे कलियुगे- एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी होती हैं,
उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है।
कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक चरण गतिमान है ।
कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5117 चल रहा है।
जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम
अमुक स्थाने – कार्य का स्थान
अमुक संवत्सरे – संवत्सर का नाम
अमुक अयने – उत्तरायन/दक्षिणायन
अमुक ऋतौ – वसंत आदि छह ऋतु हैं
अमुक मासे – चैत्र आदि 12 मास हैं
अमुक पक्षे – पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)
अमुक तिथौ – तिथि का नाम
अमुक वासरे – दिन का नाम
अमुक समये – दिन में कौन सा समय
अमुक – व्यक्ति – अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से
कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है।
इस प्रकार जिस समय संकल्प करता है, उस समय से पहले के आदिकाल और
बाद के अनन्तकाल तक का स्मरण सहज व्यवहार में भारतीय जीवन पद्धति में इस
व्यवस्था के द्वारा आया है।
इसीलिए आज जब हम सब अपने को वैज्ञानिक युग में बताते हैं और अंधविश्वासों
को छोड़ रहे हैं तो विश्व के सबसे बड़े अंधविश्वास कि 1 जनवरी को नयावर्ष
प्रारंभ होता है , को छोड़कर पूर्णतः विज्ञान पर आधारित और इतिहास की
अनेक प्रेरक घटनाओं का स्मरण दिलाने वाले वास्तविक नववर्ष याने
चैत्रशुक्ल प्रतिपदा को ही नववर्ष मनाएं ।
मनोज ज्वाला जी द्वारा भारतीय काल-गणना का ज्ञानवर्धक संकलन और चैत्र-शुक्ल प्रतिपदा के महत्व पर लिखा आलेख प्रशंसनीय है। उन्हें मेरा साधुवाद।