फिर दुर्गति की ओर तीसरा मोर्चा

-सुरेश हिन्दुस्थानी-

Third-Frontराजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत होकर बनाए जाने वाले तीसरे मोर्चे की उम्मीदें एक बार फिर से चकनाचूर होने की दिशा में अपने कदम बढ़ा चुकी हैं। राजनीतिक आंकलनकर्ताओं को इस बात का पूर्व भी कुछ कुछ अंदाजा था कि तीसरा मोर्चा इस बार भी आकार लेने से पहले ही बिखर जाएगा और वर्तमान में जो संकेत मिल रहे हैं उससे ऐसा ही लग रहा है कि तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाले दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इस बार भी फलीभूत होती नहीं दिख रहीं थीं, इसलिए कम से कम दो दलों ने अपने अपने राग अलापने प्रारंभ कर दिए हैं। तीसरे मोर्चे की कवायद करने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले वाले मुलायम सिंह यादव ने जो सपना संजोया था, वह सपना किस परिणति को प्राप्त होगा, इसके नतीजे अभी से दिखने लगे हैं। कहा जा सकता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राजनीतिक आकाश में अतिमहत्वाकांक्षी नेता बनकर उभर रहे हैं। बिहार में जब से उनकी जीतनराम मांझी से खटापट हुई है, तबसे वे अपने भविष्य के प्रति अत्यंत चौकन्ने तो हैं ही साथ ही नीतीश कुमार फिलहाल किसी पर भरोसा करने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में लालूप्रसाद यादव के विरोध में ताल ठोककर खड़े नीतीश कुमार आंख मूंदकर लालू पर भरोसा करेंगे, ऐसा कभी नहीं लगा। उसी प्रकार लालू की नौटंकी भी दिखाई दे रही है। लालू प्रसाद यादव ने समय की धारा को समझते हुए जिस प्रकार से तीसरे मोर्चे में अपनी सक्रियता दिखाई, उससे राष्ट्रीय जनता दल को भले ही फायदा न होता, लेकिन वे अपने परिवार को राजनीति की मुख्य धारा में शामिल करने का प्रयत्न जरूर करते। राजद प्रमुख की सबसे बड़ी मजबूरी यह है कि वे चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य घोषित हो चुके हैं। इस मोर्चे में शामिल होने की जल्दबाजी ग्यारह दलों ने की, इसे इन क्षेत्रीय दलों राजनीतिक मजबूरी कहें या फिर सत्ता पाने की ललक, लेकिन इतना तो जरूर है कि इन सभी दलों को अपना भविष्य सुरक्षित नजर नहीं आ रहा। इन दलों की मजबूरी यही है कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यह तीसरे मोर्चे का नाटक किया गया। अपने अपने राज्यों में राजनीतिक शक्ति माने जाने वाले दलों ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह स्थापित करने के लिए एक बार फिर से तीसरे मोर्चे का गठन करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास किया है। राजनीतिक संभावनाओं को तलाश करता यह मोर्चा अपने भविष्य को लेकर सशंकित अवश्य होगा। तीसरे मोर्चे के सभी राजनेता राजनीतिक जगत में समान अस्तित्व रखते हैं। हर चुनाव में तीसरे मोर्चा का बनना और बिखर जाना ही इस मोर्चे की नियति है और आवश्यकता होने पर यह दल कांग्रेस की झोली में गिर जाते हैं।

क्या यह तीसरे मोर्चे की वही राजनीति नहीं है, जो पिछले 25 वर्षों से देश में हर चुनाव से पहले शुरू होती है और चुनाव आते-आते बिखर जाती है? वस्तुत: इन प्रश्नों का जवाब हां ही है। इस तथाकथित तीसरे मोर्चे के धुरंधर भारतीय राजनीति की जमीनी सच्चाइयों को समझना नहीं चाहते। बेशक, ये अपने-अपने राज्यों में ताकतवर हैं, मगर राष्ट्रीय स्तर पर उनकी राजनीति राष्ट्रीय दलों के विरोध के आधार पर नहीं चल सकती, जो कि उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम है। यह तब चलेगी, जब वे बताएंगे कि देश के विकास का उनका कार्यक्रम क्या है? वे पहले से ही साफ करेंगे कि उनका एक नेता कौन होगा? यह इसलिए कि देश ने इन्हें पद के लिए लड़ते-झगड़ते देखा है। इसके साथ ही इनको यह भी समझना ही चाहिए कि सत्तर के दशक के गैर-कांग्रेसवाद की बात और थी, जब इंदिरा गांधी की सत्ता को तक उखाड़ दिया गया था, पर अब वह बात नहीं रही। उस वक्त जनसंघ इनके साथ था। 1989 में जब कांग्रेस चुनाव हारी थी, उस समय भाजपा इनके ही साथ थी। अब ये गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपावाद की राजनीति कर रहे हैं और सच यह है कि केंद्र में ऐसी कोई सरकार अब बन ही नहीं सकती, जिसमें भाजपा या कांग्रेस में से कोई एक किसी न किसी रूप में शामिल न हो। साफ है कि इस गठजोड़ के नेता इस जरूरी तथ्य से अपरिचित नहीं होंगे। यानी, ये यह करेंगे कि पहले तो गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपावाद के नाम पर चुनाव लड़ेंगे, फिर चुनाव के बाद सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ खड़े हो जाएंगे, जो मतदाताओं के साथ छल होगा। आशय यही है कि यह तीसरा मोर्चा कुल मिलाकर अवसरवादी गठजोड़ ही है।

बिना किसी स्पष्ट विजन के दो बार संसदीय राजनीति में तीसरे मोर्चा की सरकार तो बनी लेकिन स्वहित व जोड़ तोड़ की राजनीति से आपस में राजनीतिक वर्चस्व की टकराहट हुई जिससे कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। तीसरे मोर्चे की राजनीति के इतिहास के पन्ने अवसरवाद की राजनीति से भरे हैं। तीसरे मोर्चे में शामिल सभी राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद अपनी तरफ खींचना चाहेंगे। संभावित तीसरे मोर्चे के घटकों में आपसी अंतर्विरोध इतने हैं कि उनमें तालमेल बिठाना आसान नहीं है। मोर्चे में सभी अपने आप को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानते हैं। एक ही मांद में आखिर कितने शेर रहेंगे? मोर्चे के इन नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं है, जो आज की जनभावना को स्वर दे सके।

तीसरे मोर्चे का गठन घटक दलों की मजबूरी ही रहा है। अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में बंधे ये सभी दल, देश भर के चुनावी समर में भागीदार नहीं होते। लेकिन लक्ष्य तो एक ही है, सत्ता। केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा हो या नहीं, भागीदार तो बन ही सकते हैं। तीसरा मोर्चा हमेशा राष्ट्रीय दलों से खिन्नाये दलों का दिशाहीन झुँड ही रहा है। ना सबकी जरूरतें एक जैसी हैं और ना ही प्रतिबद्धता। अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से सभी एक-दूसरे का इस्तेमाल करते हैं। भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की उपादेयता प्रश्न चिन्हों से घिरी है। हमारे देश का राजनीतिक इतिहास साक्षी है कि तीसरा मोर्चा सदैव ध्रुवीय राजनीति का शिकार हुआ है।

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