जीत तो आस्था की ही हुई है

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– आशुतोष

साठ साल से भी ज्यादा समय से पहले जिला और फिर उच्च न्यायालय में रामजन्मभूमि और बाबरी ढ़ांचे का विवाद चला। मुकदमा लड़ने वालों की पीढ़ियां बीत गयीं पर मुकदमे में गवाही तक पूरी न हो सकी। त्वरित सुनवाई के लिए गठित विशेष पीठ ने भी फैसले तक पहुंचने में १७ वर्ष लगाये।

7 जनवरी 1993 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने उच्चतम न्यायालय से संविधान की धारा 143 के अंतर्गत विवादित स्थल की ऐतिहासिकता के विषय में परामर्श मांगा कि क्या वहां कोई मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह पता लगाने की जिम्मेदारी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ को सौंप दी। तीन न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई शुरू हुई। पीठ से न्यायाधीश सेवानिवृत्त अथवा स्थानान्तरित होते रहे और पीठ की संरचना बदलती रही। मुकदमे के दौरान 12 बार पीठ का पुनर्गठन हुआ। हर बार गठन में एक मुस्लिम न्यायाधीश को अवश्य जोड़ा गया।

डॉ शंकर दयाल शर्मा जिस संवैधानिक पद पर थे वहां उनसे इस विवादित मुद्दे पर निरपेक्ष फैसला लेने की आशा देश कर रहा था। यह स्वाभाविक भी था। राष्ट्रपति महोदय ने अपने पद की गरिमा बनाये रखते हुए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व तथ्यों की न्यायसंगत जांच का निश्चय करते हुए इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की सहायता चाही थी। लेकिन आज जब इस मामले पर पीठ का फैसला आया है तो डॉ शंकर दयाल शर्मा को इस दुनियां से गये हुए ग्यारह वर्ष हो चुके हैं !

फैसला आने से घड़ी भर पहले तक सभी वुद्धिजीवी, राजनैतिक दल तथा स्वयंभू मनीषी पत्रकार न्यायालय का फैसला मानने की बात कर रहे थे। जैसे ही फैसले में विवादित स्थल को हिन्दुओं को सौंपे जाने की जानकारी मिली, सबकी भाषा बदल गयी। अब वे आरोप लगा रहे हैं कि यह न्याय नहीं है बल्कि आस्था के आधार पर फैसला किया गया है। प्रश्न खड़ा किया जा रहा है कि ‘देश न्याय के आधार पर चलेगा या आस्था के आधार पर’। अगर आस्था को आधार बना कर फैसले होने लगे तो लोकतंत्र बचाना मुश्किल हो जायेगा।

‘न्याय बनाम आस्था’ के प्रश्न उठाने वाले इन बुद्धिजीवियों को उन प्रश्नों के उत्तर भी खोज रखने चाहिये जो उनके इस स्टैंड के चलते जन्म लेने वाले हैं। साथ ही सवाल यह भी है कि यदि यह केवल न्याय का मामला है और आस्था से इसका कोई लेना-देना नहीं है तो वे इतने विचलित क्यों है। अगर यह वाद केवल एक बूढ़ी इमारत का है जो इतनी जर्जर हो चुकी थी कि अगर कारसेवक उसे नहीं गिराते तो वह अपने ही बोझ से ढ़ह जाती, तो इन सेकुलरों की इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों है।

जिस जर्जर अवस्था में वह विवादित ढ़ांचा पहुंच चुका था उसमें उचित तो यही था कि जनता के जान-माल की रक्षा के लिये किसी दुर्घटना से पहले नगर पालिका का दस्ता उसे गिरा कर वहां समतल मैदान बना देता। रामलला उस जीर्ण-शीर्ण मंदिर में विराजमान थे इसलिये उसके पुनर्निर्माण का भी विकल्प मौजूद था । भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में, यहां तक कि मुस्लिम देशों में भी सार्वजनिक निर्माण के लिये मस्जिदों को हटाया जाता रहा है इसलिये उसे विस्थापित करने में कोई खास कानूनी बाध्यता भी नहीं आने वाली थी। फिर भी उसको बचाये रखने के लिये सारे प्रयत्न किये गये तो इसका कारण केवल मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रदर्शित ‘आस्था’ ही था।

न्यायालय में प्रस्तुत किये गये प्रमाणों के आधार पर उक्त भूमि पर मस्जिद के निर्माण से पूर्व मंदिर के मौजूद होने के तथ्यों को स्वीकार करते हुए मस्जिद का दावा पूरी तरह खारिज कर दिया गया है। दावा खारिज होने के बावजूद उन्हें एक-तिहाई भूमि देने का एकमात्र कारण न्यायालय द्वारा उनकी ‘आस्था’ का आदर करने के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? यह तो कोई अनपढ़ भी बता सकता है कि जिसका दावा खारिज किया गया हो वह भूमि का हकदार नहीं हो सकता।

आज जो लोग ‘यह देश न्याय से चलेगा अथवा आस्था से’ का नारा बुलंद कर रहे हैं उन्हें यह याद रखना चाहिये कि अयोध्या का यह विवाद ही नहीं बल्कि ऐसे अनेकों अवसर भारत के इतिहास में दर्ज हैं जब केवल उनकी ‘आस्था’ का आदर किया गया है और देश ने उसकी कीमत चुकाई है। बहुत लंबे इतिहास में न भी जायें तो भारत की आजादी के ठीक पहले उत्पन्न ‘हिन्दुस्थान में दो राष्ट्र रहते हैं’ और ‘मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं जिन्हें अलग होमलैंड चाहिये’, यह ‘न्याय’ पर आधारित था या ‘आस्था’ पर ?

भारत का राष्ट्रगीत ‘वन्देमातरम’ न गाना, इसके पीछे न्याय का कौन सा तर्क है ? शाहबानो का मसला अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट कर ‘न्याय’ की रक्षा की गयी थी या ‘आस्था’ की ? उस समय क्यों किसी ने नहीं पूछा कि ‘देश कानून से चलेगा या आस्था से’ ? कश्मीर में लगने वाला नारा – ‘आजादी का मतलब क्या – या लिल्लाहे, लिल्लिल्लाह’ ‘आस्था’ है या ‘न्याय’। दुनियां के किस संविधान में ‘आजादी’ का यह मतलब है।

बनारस के कब्रिस्तान में खामोश लेटे कयामत का इन्तजार कर रहे दो मरहूमों की कब्रें वहां से हटाने की मांग का संबंध ‘आस्था’ से है या ‘न्याय’ से ? शिया और सुन्नी तथा देवबंदी औऱ बरेलवी के बीच होने वाले फसाद कानून की वजह से होते हैं या आस्था की वजह से ? बामियान में बुद्ध की प्रतिमाएं जब तोप से उड़ायी गयी तो सवाल आस्था का था या नहीं ? और जब डेनमार्क के किसी अखबार में मुहम्मद साहब का कार्टून छपता है या तस्लीमा नसरीन कोई टिप्पणी करती है तो यहां के लोग क्यों आगबबूला हो जाते हैं ? वे कोई गैरकानूनी काम तो नहीं कर रहे थे। अपने देश के कानून के हिसाब से यह उनका संविधान प्रदत्त अधिकार था। ऐसे समय में वे आस्था की दुहाई क्यों देने लगते हैं ? आस्था के प्रति उनका यह प्रेम तब कहां खो जाता है जब मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाते हैं ? तब वे क्यों अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने लगते हैं ?

सैकड़ों ऐसे सवाल खड़े किये जा सकते हैं, उदाहरण दिये जा सकते हैं जब देश में मुस्लिम समुदाय की आस्थाओं की रक्षा के लिये देश ने कीमत चुकायी है और बहुसंख्यक समुदाय ने उदारतापूर्व इसे स्वीकार किया है। लेकिन वही बहुसंख्यक समुदाय जब अपनी आस्थाओं की बात करता है तो सब कानून की दुहाई देने लगते हैं। आचरण का यह दोहरापन नागरिक जवाबदेही को नकारता है।

रामजन्मभूमि प्रकरण पर उच्च न्यायालय का यह फैसला निस्संदेह कानून की परिधि से बाहर जाकर दिया गया है लेकिन यह इसलिये हुआ है ताकि सीमा पार जाकर भी मुस्लिम समुदाय की ‘आस्था’ की रक्षा की जा सके। मुस्लिम समुदाय को यह समझना चाहिये कि बुद्धिजीवियों की जो जमात उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में जाने के लिये उकसा रही है वे ही आयातित विचारधारा और इस या उस दल के राजनैतिक हितों के लिये दोनों समुदायों के बीच समरसता और विश्वास उत्पन्न नहीं होने देने के अपराधी भी हैं।

उच्च न्यायालय के निर्णय में दोनों ही पक्षों की आस्था की रक्षा का प्रयत्न दिखाई देता है। अतः जीत तो आस्था की ही हुई है। विवादित स्थान पर पूरी तरह पक्ष में निर्णय होने के बाद भी बहुसंख्यक समाज ने एक-तिहाई भूमि मुस्लिम समाज को सौंपे जाने के फैसले का जिस तरह स्वागत किया है वह सौहार्द के लिये एक ठोस धरातल उपलब्ध कराता है। संयोग से हासिल हुआ राष्ट्रीय एकता का यह अवसर यूं ही गंवा दिया गया तो आने वाला इतिहास माफ नहीं करेगा।

9 COMMENTS

  1. आप लोग फैसले को बदल रहे हैं अदालत से फैसला माँगा गया था बटवारा नहीं ? और आपका यह कहना के वो पुराणी ईमारत खुद ही गिर जाती या नगर पालिका गिरा देती दोनों बैटन मैं फर्क है ? वो ऐसे जब इन्सान खुद मरता है तो उस पर कोए मुक़दमा नहीं दर्ज किया जाता है , लेकिन अगर किसी इन्सान को मारा जाये तो वो ३०२ का मुलजिम होता है , आप एक पत्रकार हैं मुझको यह शक है , आप पत्रकार हो सकते हैं लेकिन निष्पक्छ नहीं ? दूसरी तरहां से सोचा जाये तो देश की सुप्रीम कोर्ट अगर किसी को मोत सजा दे तो उसके खिलाफ भी मुक़दमा दर्ज नहीं होगा ! लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ यहाँ सब खेल आप जैसी अकाल के लोगों ने किया और बिना सोचे समझे करने के बाद देश को दुनियां मै शर्म सार कर दिया सवाल आस्था का नहीं सवाल है देश के कानून का यहाँ कानून को तोरा गया है और अदालत ने कानून तोरने वालों की एक तरहां से मदद ही की है और इस चल को देश के लोग समझते हैं तभी इस फैसले को मानने से इंकार किया गया है !!

  2. अयोध्या फैसले की एक upalabhdhi यह भी है की इसने कम से कम कुछ बुध्ही jeevion को हमारी राष्ट्रीय चेतना के एक प्रमुख स्रोत –आस्था के बारे में सोचने पर विवश कर दिया है. आस्था ,अस्मिता,राष्ट्रीयता के बारे में हम लोग सोचते ही नहीं हैं. और जो सोचते हैं उनको कोम्मूनल – एकता विरोधी कह कर चुप करा diya jaata hai . विचारणीय प्रश्न है की क्या केवल भारत में रहना राष्ट्रीयता के लिए पर्याप्त है या की भारत भूमि के प्रति समर्पित होना हमारी प्राचीन सभ्यता,संस्कृति को अपनी विरासत समझना और उस पर गर्व करना भी राष्ट्रीयता का अभिन्न अंग hai .यह प्रश्न इस लिए महत्त्वपूर्ण है की हमारे ही देश में बहुत सारे ऐसे लोग विद्यमान हैं जिनकी आस्था और समर्पण के केंद्र भारत से बाहर हैं या जिन्हें देश के भविष्य की parwah नहीं है.और जो ya to विघटन chhahate hain ya vighatan होने में भी प्रसन्न रहेंगे. हमारा देश भीतरी और बाहरी संकटों से घिरा है .ऐसे समय में आस्था विहीन लोगों की क्या भूमिका रहेगी यह विचारणीय है.

  3. शुक्रिया समन्वय जी .आशुतोष के आलेख को एक एतिहासिक दस्तावेज के अहम हिस्से में दर्ज किया जाना चाहिए ..
    मेरी पूर्व वर्ती टिप्पणी का हिंदी रूपांतरण इस प्रकार है ….
    पहले मुर्गी हुई थी की अंडा ?पहले क़ानून बना की आश्था ?बिना आस्था के कोई मुल्क या सर्व प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र नहीं बन सकता …इसी तरह बिना क़ानून के कोई राष्ट्र चल नहीं सकता …एक स्वतंत्र सम्प्रभु राष्ट्र रुपी rath के do pahiye hain …एक -आस्था …2 -क़ानून एक saath dono jaruri hain .

      • chaturvedi ji ke shbdono men saahitiyik put hota hai …ve ek mahan vicharak or tatwvetta hain .unki baat roopkon or metafaron men abhivykt huaa karti hai ..main ek aam aadmi hun ….jameen se juda …whi kahunga ..jo mujhe achchha lage …aapko meri dharnaa pasand aayi ..dhanywad .

  4. बिल्कुल ठीक लिखा आपने कि जीत ‘आस्था’ की ही हुई है. ‘अनास्था’ को जीतते आज तक देखा है आपने कभी. निश्चित ही हर मामले में अन्ततः आस्था जीतती भी है और रंग भी लाती है.

  5. “जीत तो आस्था की ही हुई है” -by- आशुतोष

    आशुतोष जी ने लेख के पेरा २ में लिखा है,

    “7 जनवरी 1993 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने उच्चतम न्यायालय से संविधान की धारा 143 के अंतर्गत विवादित स्थल की ऐतिहासिकता के विषय में परामर्श मांगा कि क्या वहां कोई मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह पता लगाने की जिम्मेदारी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ को सौंप दी। तीन न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई शुरू हुई।7 जनवरी 1993 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने उच्चतम न्यायालय से संविधान की धारा 143 के अंतर्गत विवादित स्थल की ऐतिहासिकता के विषय में परामर्श मांगा कि क्या वहां कोई मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह पता लगाने की जिम्मेदारी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ को सौंप दी। तीन न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई शुरू हुई।”

    पाठकों की सुविधा / विचार के लिए सविंधान की धारा १४३ उद्धरण कर रहा हूँ :

    “143. Power of President to consult Supreme Court
    (1) If at any time it appears to the President that a question of law or fact has arisen, or is likely to arise, which is of such a nature and of such public importance that it is expedient to obtain the opinion of the Supreme Court upon it, he may refer the question to that Court for consideration and the Court may, after such hearing as it thinks fit, report to the President its opinion thereon.”
    143(2) … is concerning disputes out of treaties, etc. of abolished Part B States (not relevant; hence not extracted)

    -अनिल सहगल –

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