राजनीति

ये लड़ाई है दीए और तूफान की…

श्रीराम तिवारी

विगत सप्ताह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक अदालत ने जिन तीन लोगों को नक्सलवादियों का समर्थक होने के संदेह मात्र के लिए आजीवन कारावास जैसी सजा सुनाई उसकी अनुगूंज बहुत दूर तक बहुत लम्बे समय तक सुनाई देती रहेगी. डॉ विनायक सेन, नारायण सान्याल और पीयूष गुहा कितने बड़े खूंखार हैं? उनसे मानवता और देश को कितना खतरा है? इस फैसले के बाद देश की जनता ने जाना और माना की माननीय न्याय मंदिर के शिखर पर विराजित स्वर्ण कलश की चमक इस फैसले से कितनी फीकी हुई है या होने वाली है इस एतिहासिक न्यायिक फैसले पर जारी विमर्श के केंद्र में वस्तुत; व्यक्ति नहीं विचारधारा ही है.

खास तौर से देश का मध्यम वर्ग और आम तौर पर सभी सुशिक्षित और राष्ट्र निष्ठ भारतीय इस कथन को सगर्व पेश करते हैं की ‘हमारा प्रजातंत्र चीन की साम्यवादी तानाशाही से बेहतर है, रूसी अमेरिकी और ब्रिटेन के लोकतंत्र में भी अभिव्यक्ति की इतनी आजादी नहीं जितनी की हमारी महान भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में है’

दुनिया के अधिकांश देशों और विभिन्न व्यवस्थाओं में दंड नीति की अपनी अपनी खासियतें हैं. किन्तु भारत में उदात्त न्याय दर्शन और मीमांसाएँ हैं -अपराधी भले ही छूट जाये, किन्तु निर्दोष को सजा नहीं मिलना चाहिए.

बेशक यह सही भी है किन्तु यहाँ बहुत पुरानी पोराणिक आख्यायिका है की “एक हांड़ी दो पेट बनाये, सुगर नार श्रवण की ‘मात्रु -पित्र परम भक्त श्रवण कुमार की पत्नी ने ऐसी हांड़ी वना रखी थी -जिसके दो भाग अंदर ही अंदर थे उसमें वो एक ही समय में एक हिस्से में खीर पकाती थी और दूसरे हिस्से में पतला दलिया, खीर वो अपने पति -श्रवणकुमार को खिलाती और दलिया अपने सास -ससुर को, अंधे सास-ससुर यही समझते की जो हम खा रहे हैं वही बेटा श्रवण खा रहा है. भारतीय लोकतंत्र रुपी हांड़ी में भी दो पेट हैं. एक सबल और प्रभुत्वशाली वर्ग के लिए दूसरा निर्धन अकिंचन असहाय वर्ग के लिए. सारी दुनिया समझती है की हमारे लोकतंत्र की हांड़ी में जो कुछ भी पक रहा है वो वही है जो वह देख सुन या महसूस कर रहा है. जबकि इण्डिया शाइनिंग का नारा देते वक्त २००८ में यह और भी स्पष्ट हो गया था की उन्नत वैज्ञानिक तरक्की का लाभ देश की अधिसंख्य जनता तक नहीं पहुँच पाया है और अटलजी को –एनडीए को अपने विश्वश्त अलायन्स पार्टनर चन्द्रबाबू नायडू जैसों के साथ पराजय का मुख देखना पड़ा था. तब पता चला की इंडिया और भारत में खाई चोडी होती जा रही है. यह विराट दूरी सिर्फ आर्थिक या जीवन की गुजर-बसर तक ही नहीं अपितु सामजिक, आर्थिक. सांस्कृतिक और न्यायिक क्षेत्रों तक पसरी हुई है.

देश में आर्थिक सुधारों और लाइसेंस राज के आविर्भाव उपरान्त विगत २० सालों में इतनी तरक्की हुई की पहले ५ पूंजीपति अर्थात मिलियेनर्स थे अब ५४ मिलिय्र्नार्स हो गए हैं. तरक्की हुई की नहीं ?पहले १९९० में गरीबी की रेखा से नीचे १९ करोड़ निर्धन जन थे अब ३३ करोड़ हो चुके हैं -तरक्की तो हुई की नहीं?

यही बात शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर के सन्दर्भ में मूल्यांकित की जाये तो स्थिति और भी भयावह नजर आएगी. भारतीय प्रजातांत्रिक-न्याय व्यस्था पर प्रश्न चिन्ह सिर्फ विनायक सेन के सन्दर्भ में या रामजन्म भूमि बाबरी – मस्जिद के सन्दर्भ में नहीं उठा बल्कि वह आजादी के फ़ौरन बाद से लगातार उठता रहा है. वह तब भी उठा जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने अलाहाबाद उच्च न्यायलय में अपनी चुनावी हार को फौरन सर्वोच्च न्यायलय के मार्फ़त जीत में बदल दिया. सवाल तब भी उठा जब शाहबानो प्रकरण में कानून बदला गया. सवाल तब भी उठा जब लाल देंगा जैसे देशद्रोही से न केवल बात की गई बल्कि उसे मुख्यमंत्री तक बनवा दिया. सवाल अब भी कायम है की हजारों डाकुओं को आत्म समर्पण के बहाने उनके अनगिनत पापों को इस देश के कानून ने और व्यवस्था ने माफ़ किया. एक बार नहीं अनेक बार, अनेक प्रकरणों और संदर्भो में ऐसा पाया गया की शक्तिशाली वर्ग -पप्पू यादवों. तस्लीम उद्दीनों, बुखारियों, ठाकरे और गुजरात के नरसंहार कर्ताओं की कानून मदद करता पाया गया.

वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण जी ने जिन एक दर्जन माननीयों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के सबूत सर्वोच्च न्यायलय को दिए हैं उनके लिए अलग दंड विधान है याने कोई कुछ नहीं बोलेगा. यदि बोलेगा तो जुबान काट दी जायेगी. शूली पर लटका दिया जायेगा. इन शक्तिशाली प्रभुत्व वर्ग के खिलाफ बोलना याने विनायक सेन होना है, विनायक सेन एक आध तो है नहीं की उसे जेल भेज दोगे तो ये अंधेर नगरी चोपट राज चलता रहेगा. विनायक सेन पीयूष गुहा और नारायण सान्याल तो भारतीय आत्मा का चीत्कार हैं, आदरणीयों, मान नीयो. इतना जुल्म न करो की आसमान रो पड़े और जनता गाने लगे की ये लड़ाई है दिए की और तूफ़ान की.