अरुण तिवारी
- पानी
हाय! समय ये कैसा आया,
मोल बिका कुदरत का पानी।
विज्ञान चन्द्रमा पर जा पहुंचा,
धरा पे प्यासे पशु-नर-नारी।
समय बेढंगा, अब तो चेतो,
मार रहा क्यों पैर कुल्हाङी ?
गर रुक न सकी, बारिश की बूंदें,
रुक जायेगी जीवन नाङी।
रीत गये गर कुंए-पोखर,
सिकुङ गईं गर नदियां सारी।
नहीं गर्भिणी होगी धरती,
बांझ मरेगी महल-अटारी।
समय बेढंगा अब तो चेतो…
2.खनन
ये विकास है या विनाश है,
सोच रही इक नारी।
संगमरमरी फर्श की खातिर,
खुद गई खानें भारी।।
उजङ गई हरियाली सारी,
पङ गई चूनङ काली।
खुशहाली पे भारी पङ गई
होती धरती खाली।।
ये विकास है या….
विस्फोटों से घायल जीवन,
ठूंठ हो गये कितने तन-मन।
तिल-तिल मरते देखा बचपन,
हुए अपाहिज इनके सपने।।
मालिक से मजदूर बन गये,
खेत-कुदाल औ नारी।
गया आब और गई आबरु,
क्या किस्मत करे बेचारी।।
ये विकास है या….
3 नदी जोङ
निर्मल ही रहने दो.
अविरल तो बहने दो।
हिमधर को रेती से,
विषधर को खेती से,
जोङो मत नदियों को,
सरगम को तोङो मत।
सरगम गर टूटी तो,
रुठेंगे रंग कई,
उभरेंगे द्वंद कई,
नदियों को मारो मत।।
निर्मल ही…..
तरुवर की छांव तले.
पालों की सी लेंगे,
बाढों को पी लेंगे,
जोहङ को कहने दो।
गंगा से सीखें हम,
नदियां हैं माता क्यों,
सूखी क्यों,जीती ज्यांे
अरवरी को कहने दो।।
निर्मल ही…..
पर्यावरण सुरक्षा पर अच्छी सोच, सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई।