
जिंदगी तो चल रही है पर कभी,
वक़्त ने ऐसा वक़्त देखा नहीं था ।
दुश्मन केवल एक था दिखता न था
सारी दुनिया के हथियार बेकार थे।
हर वार उस पर नाकाम होते गये,
नये हथियार की खोज मे
कुछ लोग प्रयोगशालाओं में लग गये।
डर से सब लोग घरों में छुप गये।
कुछ ने दुश्मन को पहचाना नहीं,
या कहे कि दुश्मन से मिल गये,
निजामुद्दीन से निकल कर देश में घुल गये
हौसले दुश्मन के बढ़ते गये।
इसी दुश्मन से मज़दूर डर गये
मदद मिली, थोड़ी कम पड़ गई
पर वे शहर से निकल गये।
मुश्किल में घर याद आता है,
सही है
शहर ने उन्हें और उन्होंने शहर को
कभी अपना माना नहीं,
काम किया शहर में पर घर माना नहीं
शहरों से दुश्मन उनके साथ लग लिये
गाँव भी पहुँच गये, फैल गये
शहरों और गाँवों पर
अब तो उसी का राज है
आदमी काम पर निकलने लगा है अब
आख़िर रोटी रोज़ी का सवाल है
आदमी को हर आदमी मे
वो अदृष्य दुश्मन दिख रहा है
आदमी ही आदमी से डर है।
ये ही नहीं उसे तो
अपना चेहरा पराया लग रहा है
अपना चेहरा छूने से भी डर रहा है
बार बार साबुन हाथों में रगड़ रहा है।
कब तक चलेगी जीवन की रफ्तार ऐसे
जब तक न कोई खोजते हथियार
जो वार करें सीधे……..
या दुश्मन ही थककर कमजोर पड़ जाय
वक़्त कभी इतना डरा हुआ नहीं था।
वक़्त ने कभी़ ऐसा वक़्त देखा नहीं था।