आज़ादी ?

-प्रियंका सिंह-

freedom-of-thought

बीते माह हम सभी ने अपना 68वां स्वतंत्रता दिवस मनाया है और हर बार की तरह इस बार भी देश-भक्ति के गीत गाते-गुनगुनाते रहे, लड्डू बांटते रहे, सरकारी कार्यालयों में गोष्ठियां करते रहे, यहां वहां पंडाल लगा कर देश-ओ-जूनून के नारे लगाते रहे, कसमें खाते रहे, रेलियाँ निकाली गयी, नाटक-नाटिकाएं रखी गयीं और अगले दिन तक सब फिर एक बार सभी अपने पुराने ढर्रे पर आ गए.

सफ़ाई कर्मचारी बीते दिन के कचरे संग टूटे-फटे झंडे भी समेट कर ले गया और कहीं कचरे संग झंडे जल गये… राख हो कर उड़ गये. लोगो ने शाम तक गुज़रे दिन का दम भरा और देशभक्ति पूरी हुई.

आप सभी को शायद हैरानी हो पर आज आज़ादी का असली जश्न और हश्र यही है. वो दिन अब सिर्फ किताबों में और पुस्तकालयों में ही सुनने और पढ़ने को मिलेगा जिसे सच्ची आज़ादी का दिन कहते हैं जिसके जश्न के लिए हमारे वीरों/स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने लहू, अपने जीवन का बलिदान दिया.

नये प्रधानमंत्री का नया भाषण, उनके लुभावने वादे, देश की समस्याओं पर उनका अफ़सोस, अच्छे दिनों का सुनेहरा सपना और देश को बेहतर और विकसित बनाने की उनकी फिरकियाँ शायद आप सभी को इस बार कुछ नयी लगी हो पर उनका हश्र वही है जो सालों से होता आ रहा है.

कभी सोचा है आप सभी ने हम किस बात का जश्न मनाते हैं ? आज़ादी का या सत्ता के हस्त्रन्तरण का या इस बात का कि हममें अभी साहस बाकी है ज़ुल्म  सहने का/तानाशानी सहने का? जिस देश की आधी आबादी दबी, कुचली, तिरस्कृत, शोषित, अशिक्षित, पिछड़ी, उपेक्षित, अनादरित हो वो देश कैसे अपनी आज़ादी का जश्न मना सकता है और अगर ये जश्न है तो उसका जो इस आधी आबादी पर अपने जुल्म और तानाशानी का परचम लहरा रहा है.

ऐसा नहीं की सिर्फ भारत ही आज़ाद हुआ और इसलिए इसकी आज़ादी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज़ है बल्कि भारत का स्वाधीनता आन्दोलन और उसके लिए जो कदम उठाये गये वह समूची मानव जाति को ऊंचा उठाने का सामर्थ्य रखता था । इस आन्दोलन ने यह बता दिया की आज़ादी किसी जाति, किसी धर्म किसी विशेष व्यक्ति का अधिकार नहीं वरन् सम्पूर्ण मानव जाति का हक है जिसमें न केवल पुरुषों की साझेदारी रही बल्कि महिलाओं का भी बराबरी का हिस्सा रहा.

देश की आज़ादी के बाद से ले कर अब तक जिन पार्टियों ने अपनी सरकार बनायीं उन्होंने शुरुआत सत्ताधारी होने से की जो अब तानाशाही में बदल गयी. देश की महत्वपूर्ण शाखाओं को अपने आधीन कर उनसे अपने मनचाहा कार्य कराते रहे, कानून को कठपुतली की तरह नचाया और दीमक की तरह देश को खोखला कर दिया. अपनी वंशवादी सत्ताधारी सोच की कुछ पार्टियाँ इतनी आधीन हो गयीं कि उन्होंने खुद को सत्ता में बने रहने देने के लिए बाहरी ताकतों का सहारा लिया. झगड़े, आतंक और हमले करवाएं उसके बाद भी हर बार नये तरीकों से चुनाव में बहुमत हासिल किया और देश पर हुकूमत की. ये कुछ शातिर पार्टियाँ ही थी जिनको विश्वासपात्र मान कर पुरे देश ने उन्हें सरकार बनाने के लिए चुना… .पर कहते हैं न ‘’बन्दर के हाथ नारियल आ जाये तो वो उसे लुड़का-लुड़का के घूमता है’’ यही हाल इन पार्टियों का रहा है उन्हें पता ही नहीं होता की कोई मुद्दा खत्म कहाँ हुआ और शुरुआत कहां से करनी है. इनके हिसाब से जो पहले किया गया वो सभी बकवास और स्वार्थ के कारण किये गये कार्य थे जिन्हें अपनी सत्ता के आने के बाद फिर से शुरू किया जाता है और इसी तरह देश की सरकारें हर बार आधे से ज़्यादा समय दूसरे के कार्यों की निंदा और उनके कार्यों पर पानी फेरने में लगी रहती है और बाकी समय अपने घर भरने में तो फिर देश के लिए समय कहाँ है इनके पास … कभी सवाल करिए इनसे फिर देखिये ये आप पर बददिमाग होने का लांछन लगा देंगे, इससे गर इनका मन न माना तो विरोधी पार्टी का कह कर नया हंगामा खड़ा कर देंगे.

सरकार का यह दोष है कि इनके पास देश के आलावा हर मुद्दे पर चर्चा करने, हंगामा करने और आतंक फैलाने का पूरा वक़्त है. आये दिन सुनने में आने वाले किस्से इन लोगों की ठिठोली लगती है. किसी नेता के बारे में अपनी किताब में ‘’उसकी सच्चाई’’ लिख दो तो फिर साल के 4 माह तक यही बात चर्चा में रहेगी, एक दूसरे पर टिका-टिपण्णी करने में साल के 6 माह निकाल देते हैं बाकी के मसले इन सभी मसलों के साथ पिसते रहते हैं और सारी समस्याएं जस-की-तस बनी रहती हैं.

कभी कभी ऐसा लगता है की ये देश न हुआ सांप-सीढि का खेलने का मैदान हो गया और ये पार्टियाँ लगी हुयी हैं पासे फेंकने में….सबको अपने दांव दूसरे से ज़्यादा बेहतर खेलने हैं और उसके लिए लगे रहते हैं देश की धज्जियां उड़ाने में.

गरीबी, अशिक्षा, बेकारी, महिलाओं और बच्चो का शोषण, भूखमरी, आपदाएं, ऐसे कई मुद्दे हैं जो दिन प्रतिदिन अपने भयानक रूप में आते जा रहे हैं जिनका तोड़ नहीं बल्कि जोड़ तलाशा जा रहा है. अपराध बाद में होता है उससे पहले ही उससे बचने के तरीके निजाद कर लिए जाते है. कानून भी इन सब के प्रति बेहद उदासीन व्यवहार रखता है और सरकार सिर्फ ज़हर उगलती है. सरकारी मुलाज़िम हो कर जैसे नेताओं को इस बात का हक़ मिल जाता है कि वह कभी भी किसी के लिए भी कुछ भी बोल सकते हैं और किसी भी हद तक जा कर बोल सकते हैं उन्हें इस बात का फर्क नहीं पड़ता कि उनका कहना किसी अपराधी को उकसा रहा है या किसी अपराधी की मदद कर रहा है.

राजधानी दिल्ली जैसे शहर में बलात्कार की घटना को छोटी घटना मान कर तवज्जों नहीं दी जाती बल्कि ये कहा जाता है की इन सब के आलावा भी कई और मसले हैं जिन पर चर्चा की जा सकती है. मतलब साफ़ है किसी नेता और किसी प्रशासन से जुड़े व्यक्ति के लिए बलात्कार के लिए आवाज़ उठाना ‘’ध्यान देने योग्य’’ बात नहीं है ये तो होते ही रहते हैं. निर्भया बलात्कार/हत्या कांड के बाद से जैसे पूरे देश में एक चलन जैसा हो गया की रेप करो और हत्या कर दो ‘’न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’’ और यही होता आ रहा है.

देश में हर दिन बलात्कार के बाद हत्या की जा रही है और सरकारें, प्रशासन, कानून सब मूक-बधिर जैसे खड़े हैं हुज़ुमा लगाये और इस बात पर बहस कर रहे हैं कि ‘’तू करे या मैं करू’’ जिसका परिणाम यह है की करता कोई कुछ भी नहीं और अपराधी बहुत आराम से अपराध कर आज़ादी से घूमता रहता है.

जहाँ भूखमरी, गरीबी से मरने वालों की संख्या बढ़ती जाती है वहीं नेता लोग अपने-अपने खाने के लिए लड़ते हैं जिसके न मिलने पर कोई भी अव्यवहारिक बर्ताव कर बैठते हैं. ये भी बड़ी ताज्जुब की बात है कि जिनके घर अनाजों से पटे पड़े हैं, वह लोग खाने के पीछे लड़ते हैं तो इनसे अच्छे और जायज वो लोग हैं जिनके पास खाने के लिए एक वक़्त की रोटी भी नहीं है.

नेताओं के बारे में जितना कहा जाए शायद कम ही रह जाता है। देश पर जब भी आपदाएं आईं, नेताओं ने सबसे पहले अपने उल्लू सीधे किये. आपदाओं की आड़ में सरकारी खज़ाना खा गए, कुछ पीड़ितों तक पहुचाया और बाकी गटक गये. इस को आड़ बना कर चुनावों के लिए राजनीति चल दी, विरोधी पार्टी को चोर और खुद को साधू बताते रहे. ये देखकर शर्म आती है कि दुखी लोगो की मदद का पैसा भी ये लोग हड़प कर जाते है और उसका पूरा चुनावी फ़ायदा भी लेते हैं न जाने किस मिट्टी के बने हैं ये सभी .

जहाँ बेकारी के कारण युवा आत्महत्याएं कर रहे हैं, वहीँ देश की शिक्षा प्रणाली हाशिये पर खड़ी है. देश का मेहनती युवा दिन-रात एक कर पढाई करता है और जब पेपर देने जाता है तो उसका रिजल्ट कभी नहीं आता, कईयों को डिग्रियां ही नहीं मिल पाती, नौकरी का फॉर्म भरते भरते कब 22 से 44 का हो जाता है उसे खबर ही नहीं होती.  कुछ परीक्षाओं में परिक्षर्तियों के साथ भाषा माध्यम को ले कर सौतेला व्यवहार रखा जाता है. जिसका ताज़ा उदहारण यूपीएससी की परीक्षा के लिए किये गये छात्रों के आंदोंलन से देश के सामने आया.

जिसमें छात्रों की मांग हिंदी को भी परीक्षा में बराबरी का स्थान देने के लिए थी जिस तरह से परीक्षा में अंग्रेजी को स्थान दिया गया है उसी तरह हिंदी माध्यम के छात्रों को ध्यान में रखते हुए हिंदी भाषा को भी परीक्षा का हिस्सा बनाया जाये परन्तु हुआ क्या ? छात्रों की एक जायज़ मांग को राजनीति का ठिठका बता कर, बरगलाने की रणनीति बता कर छात्रों की एक नहीं सुनी गयी बल्कि उनके साथ प्रशासन का व्यवहार बहुत ही हिंसक रहा. भूखे प्यासे छात्रों ने आन्दोलन को कई दिनों तक ज़ारी रखा और पुलिस की मार भी खायी. सरकार चाहे तो इस बात को एक बैठक में सुलझा सकती थी परन्तु ऐसा नहीं किया गया उन्हें इस बात का खुद पता नहीं है की परीक्षा का पैटर्न क्या रखा जाये और किस तरह से रखा जाये क्यूंकि इसके लिए वह जिस शिक्षित समूह का साथ लेती है उन्हें हिंदी नहीं आती और यदि सरकार छात्रों की इस मांग को मान लेती है तो पेपर कौन सेट करेगा? इतने कुशल, पढ़ाकू, बुद्धिमान शिक्षित लोग उन्हें फिर शायद न मिल सके लेकिन हर साल उन्हें नये छात्रों की टोली जरुर मिल जाएगी.

देश के कुछ राज्यों में शिक्षा प्रणाली बहुत ही लज्जर हालात में है। राष्ट्र के सबसे बड़े सूबे कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज्यादा ख़राब है। कितने ही सालों से सरकारी नौकरी की आस लगाये छात्र किनारी की दुकान चलाने को मजबूर हो गए है. पढ़ाई के लिए लोगों से उधार ले कर नौकरी न मिलने पर परेशां हो कर कईयों ने आत्महत्या भी की लेकिन सरकार टस-से-मस न हुयी. अखिलेश यादव ने चुनावों में अपने हित के लिए छात्रों को मुफ्त के लेपटॉप बांटे और कन्या विद्या धन जैसी लुभावनी योजनायें चलायीं लेकिन उनके सत्ता में आते ही सारे वादे पानी से धुल गये. नेताओं को लगता है युवाओं को रिझाने के लिए लेपटॉप और स्कालरशिप जैसी

फिरकी हमेशा काम करेंगी. ये क्यूँ भूल जाते है की ‘’काठ की हांड़ी एक बार ही चढती है’’ बार-बार नहीं. ऐसा भी नहीं है की देश ने आज़ादी के बाद से खुद को नहीं समेटा….समेटा है, बनाया भी है खुद को पहले से बहुत बेहतर और इस काबिल भी बनाया है की दुनिया में आज सबसे बड़े प्रगतिशील देश के रूप में भारत को भी शामिल किया जाता है लेकिन इन सब के बावजूद  देश के घरेलु मसले इतने ज्यादा हैं की इन मसलों ने देश की अच्छाई को अपनी कमियों से छोटा कर दिया है और इस वजह से न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में हमारा देश निंदा का पात्र बना हुआ है.

देश का राजनेतिक परिदृश्य ही कुछ ऐसा है कि  देश को भ्रष्टाचार का गढ़ कहा जाता है. लोकतान्त्रिक देश होने के बाद भी भारत सबसे ज्यादा भ्रष्ट और असंतुष्ट देश है. आज़ादी सही मायने में क्या है ये शायद आज किसी को नहीं मालूम होगा। सिर्फ़ अंग्रेजों के शासन से आज़ादी असल आज़ादी नहीं है. देश के स्वतंत्र होने के बाद से अब तक कुछ हालात सुधरे नहीं बल्कि बद-से-बदतर होते चले गये. कुछ विशेष जातियाँ/समुदायों के प्रति आज भी लोगो का रवैया बेहद बिगड़ा हुआ है. आज भी छुआ-छूत का दंश कुछ जातियाँ झेल रही हैं.

जैसा मैंने पहले कहा देश की आधी-से ज्यादा आबादी दबी, कुचली, तिरस्कृत, शोषित, अशिक्षित, पिछड़ी, उपेक्षित, अनादरित हो वो देश कैसे अपनी आज़ादी का जश्न मना सकता है और अगर ये जश्न है तो उसका जो इस आधी आबादी पर अपने जुल्म और तानाशानी का परचम लहरा रहा है.

मान लें घर के आधे लोग हर तरह की आज़ादी से जिये और बाकी के आधे कमरों में बंद रहे, भूखे, मारे-पिटे जायें, काम खूब लिया जाये और फिर उनका हर प्रकार का शोषण भी किया जाये तो सोचिये कैसा लगेगा …..भय लगता है न सोच कर …..कितनी भयंकर तस्वीर उभर कर आती है मन में ?

अपना देश भी कुछ ऐसी ही तस्वीर बन गया है और अब भय लगने लगा है. लोगो को समझना चाहिये की आपसी मत-भेद मिटा कर सहयोग और न्याय के साथ रहना ही असली आज़ादी है और इस बात के लिए हम एक दुसरे पर या सरकार/प्रशासन पर दोषारोपण नहीं कर सकते क्यूंकि इसके लिए हम सभी ज़िम्मेदार हैं. भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जिसके हर चुनाव में पूरे देश के लोग सरकार बनाने में अपना योगदान देते हैं और यही शक्ति है जिसके बल पर हम सभी मिल कर अपने देश को असल और पूर्ण मायनों में आज़ादी दिला सकते हैं. हम सभी पढ़े-लिखे और अनुभवी लोग हैं, जिस तरह किसी से रिश्ता जोड़ते समय हम उसका अच्छा बुरा पता करते है उसी तरह अपना नेता चुनने में उसका अच्छा और बुरा अतीत और वर्तमान देखें, किसी प्रलोभन को भूल कर अपने भविष्य के लिए सच का साथ देना चाहिये.

हर देश में कमियां होती है लेकिन उस देश के लोगो से ये आशा की जाती है कि अपनी बेहतरी और अपने भविष्य की बेहतरी के लिए देश की कमियों को दूर करने  में अपना सहयोग दिया जाये. हमारे देश की घरेलू समस्याएँ हम सभी के सहयोग के साथ ही दूर की जा सकती है. आंखें खोलिए सच और झूठ को पहचानें, नेताओं की बरगलाने वाली बातों से दूर रहे, खुद समझें, जांचे-परखें, आंख मूंद कर विश्वास न करें. महिलाओं के प्रति स्वस्थ सोच रखें जितना ये देश किसी पुरुष का है उतना ही हर महिला का भी है. हर महिला किसी की माँ, बहन, पत्नी और बेटी है उसे सिर्फ वस्तु न समझें बल्कि उसका सम्मान करें और उसकी सुरक्षा का ज़िम्मा भी लें क्या पता कल आपमें से ही किसी की बेटी की आबरू किसी के सहयोग से बच जाए. हर बार पुलिस का मुंह मत ताकिये देश की बेहतरी में अपनी भी हिस्सेदारी रखिये.

तिरंगे के तीन रंग जिस तरह से एक साथ हो कर उसे देश का गौरव बनाते हैं उसी तरह इस बात को भी दर्शाते हैं की हम जब तक एक साथ नहीं होंगे, सहयोग से नहीं रहेंगे और सत्य का साथ नहीं देंगे तब तक हम सही मायने में आज़ादी नहीं माना सकते… सोचिये….प्रयत्न करिए… असल आज़ादी अभी दूर है ….विचारिये और अपनाइये.

1 COMMENT

  1. प्रियंका जी को धन्यवाद कि उन्होंने आइना तो दिखाया.पर इससे क्या होगा?हमारी शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवा उसी लचर स्थिति में चलती रहेगी और हम अशिक्षित और बीमार बने रहेंगे.पीढ़ी दर पीढ़ी सपने देखते हुए मर जाएगी.हर साल लाल किले से (१५ अगस्त) को)और राजपथ से(२६ जनवरी को)लुभावनी उद्घोषणाएं होती रहेंगी लोग कम से कम साल में दो दिन तो खुश रहेंगे.

    • सर शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिए …..सही कहा अपने सिर्फ साल के दो दिन खुश हो कर पूरा देश पूरा साल दुखी रहेता है ….सहता है ….रोता है …फिर भी न जाने क्यूँ जागरूक नहीं होता …. अपने ही भविष्य की चिंता नहीं हमारे देश को …न जाने किस और जा रहे है हम …..ये तो निश्चित है की यह तरक्की की राह नहीं ….

Leave a Reply to आर. सिंह Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here