नेहरुजी को श्रद्धांजलि

आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू की १२५वीं जयन्ती है। भारत सरकार अधिकृत रूप से इसे आज मना रही है और नेहरूजी की विरासत पर अपना एकाधिकार माननेवाली सोनिया कांग्रेस ने इसे एक दिन पहले ही मना लिया। लोक-परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं भी सोच रहा हूं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री को उनकी सेवाओं के लिये आज विशेष रूप से याद करूं और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूं। मस्तिष्क पर जब बहुत जोर दिया, तो उनसे संबन्धित निम्न घटनायें स्मृति-पटल पर साकार हो उठीं —

१. कमला नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरूजी अकेले हो गये थे। उनकी देखरेख के लिये पद्मजा नायडू जो भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की पुत्री थीं, आगे आईं। उन्होंने अपनी सेवा से नेहरूजी का दिल जीत लिया। दोनों के संबन्ध अन्तरंग से भी कुछ अधिक हो गए। दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन गांधीजी ने इसकी इज़ाज़त नहीं दी। वे चाहते थे कि वे दोनों शादी करें, लेकिन आज़ादी मिलने के बाद क्योंकि पहले ही ऐसा काम करने से कांग्रेस और स्वयं जवाहर लाल नेहरू की छवि खराब होने की प्रबल संभावना थी। नेहरूजी मान गये और पद्मा को वचन भी दिया कि आज़ादी मिलने के बाद वे विधिवत ब्याह रचा लेंगे। पद्मा भी मान गईं और दोनों पहले की तरह पति-पत्नी की भांति रहने लगे।

२. भारत आज़ाद हो गया। नेहरूजी तीन मूर्ति भवन में रहने लगे। पद्मजा भी नेहरूजी के साथ ही तीन मूर्ति भवन में ही रहने लगीं। तभी नेहरूजी की ज़िन्दगी में हिन्दुस्तान के तात्कालिक गवर्नर जेनरल लार्ड माउन्ट्बैटन की सुन्दर पत्नी एडविना माउन्ट्बैटन का प्रवेश हुआ। नेहरूजी के दिलो-दिमाग पर वह महिला इस कदर छा गई कि भारत विभाजन में उसकी छद्म भूमिका को भी वे पहचान नहीं सके। अल्प समय में ही यह प्यार परवान चढ़ गया। पद्मजा ने सारी गतिविधियां अपनी आंखों से देखी, अपना प्रबल विरोध भी दर्ज़ कराया लेकिन नेहरूजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रोती-बिलखती पद्मजा ने १९४८ में त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। वे आजन्म कुंवारी रहीं। नेहरूजी ने उनकी कोई सुधि नहीं ली।

३. भारत-विभाजन के लिए एडविना ने ही नेहरूजी को तैयार किया। फिर क्या था – एडविना की मुहब्बत में गिरफ़्तार नेहरू लार्ड माउन्ट्बैटन के इशारे पर खेलने लगे और पाकिस्तान के निर्माण के लिये सहमति दे दी। गांधीजी ने घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। वे जीवित भी रहे और अपनी आंखों से देखते भी रहे। नेहरू की ज़िद के आगे उन्हें समर्पण करना पड़ा। १४ अगस्त, १९४७ को देश बंट गया। लाखों लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ गये, करोड़ों शरणार्थी बन गये, गांधीजी ने किसी भी स्वतन्त्रता-समारोह में शामिल होने से इन्कार कर दिया लेकिन उसी समय नेहरु २१ तोपों की सलामी के बीच लाल किले पर अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश की पूर्ति का दिन था १५, अगस्त, १९४७ जिसकी बुनियाद में भारत का विभाजन और लाखों निर्दोषों की लाशें हैं। (सन्दर्भ – Freedom at midnight by Abul Kalam Azad)

४. इतिहास के किसी कालखंड में भारत और चीन की सीमायें एक दूसरे से कहीं नहीं मिलती थीं। संप्रभु देश तिब्बत दोनों के बीच बफ़र स्टेट की भूमिका सदियों से निभा रहा था। चीन तिब्बत पर माओ के उद्भव के साथ ही गृद्ध-दृष्टि रखने लगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा आदि दू्रदृष्टि रखनेवाले कई राष्ट्रभक्तों ने चीन की नीयत से नेहरू को सावधान भी किया लेकिन वे हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में मस्त थे। चीन ने तिब्बत को हड़प लिया और भारत तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता देनेवाला पहला देश बना। चीन यहीं तक नहीं रुका। उसने १९६२ में भारत पर भी आक्रमण किया और हमारी पवित्र मातृभूमि के ६० हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर जबरन कब्ज़ा भी कर लिया। आज भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के पूरे भूभाग पर अपना दावा पेश करने से बाज़ नहीं आता।

५.पाकिस्तान ने कबायलियों के रूप में १९४८ में कश्मीर पर आक्रमण किया। कबायली श्रीनगर तक पहुंच गये। नेहरू शान्ति-वार्त्ता में मगन थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तात्कालीन सर संघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर और सरदार पटेल के प्रयासों के परिणामस्वरूप कश्मीर के राजा हरी सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किया। सरदार पटेल ने कश्मीर की मुक्ति के लिए भारत की फ़ौज़ को कश्मीर भेजा। सेना ने दो-तिहाई कश्मीर को मुक्त भी करा लिया था, तभी सरदार के विरोध के बावजूद नेहरू ने इस मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ को समर्पित कर दिया और उसके निर्देश पर सीज फायर लागू कर दिया। कश्मीर एक नासूर बन गया, आतंकवाद पूरे हिन्दुस्तान में छा गया और अपने ही देश में मुसलमानों की राष्ट्रनिष्ठा सन्दिग्ध हो गई।

आज १४ नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस के अवसर पर राष्ट्र पर उनके द्वारा किये गये उपरोक्त एहसानों को क्या याद नहीं करना चाहिये? जरूर करना चाहिये। उन्हें ही नहीं, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा गांधी को भी इस शुभ दिन पर हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर नमस्कार करना चाहिए।

 

3 COMMENTS

  1. ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ डोमिनिक लेपियरे और लैरी कोलिन्स ने लिखी थी अबुल कलाम आज़ाद ने ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ लिखी थी.नेहरूजी के योगदान और गांधी जी और नेहरूजी की ऐतिहासिक राजनीतिक भूलों के विषय में कुछ लोगों को आर्काइव्स में रखे अभिलेखों के आधार पर तथ्यपरक शोध कार्य करने चाहिए.ताकि लोगों को सच्चाई का पता चल सके.देश को आज़ादी मिलने में उनका कितना योगदान था इसका खुलासा देश की स्वतंत्रता के समय इंग्लैंड के प्रधान मंत्री रहे एटली ने पचास के दशक में अपनी भारत यात्रा के दौरान कलकत्ता प्रवास में तत्कालीन कार्यवाहक राज्यपाल कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री चक्रवर्ती से कहा था की भारत छोडो आंदोलन का असर न्यूनतम था और सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के किस्से सुन सुन कर भारतीय सेना की अंग्रेज़ों के प्रति वफ़ादारी समाप्त हो गयी थी और मुम्बई के नौसेना विद्रोह ने अंग्रेज़ों को १८५७ की पुनरावृति की आशंका से डरा दिया था.इसी कारन उन्होंने भारत छोड़ने का निर्णय लिया था.एक और कारण भी था.एटलांटा कांफ्रेंस और याल्टा कांफ्रेंस में अमेरिका द्वारा औपनिवेशिक देशों को आज़ादी देने का प्रस्ताव पास करा लिया था और रूजवेल्ट ने चर्चिल पर भारत को आज़ादी देने के लिए ज़ोर डाला था.बहरहाल ये सभी बातें गहन शोध का विषय हैं जो पिछले सढ़सठ वर्षों में हुई नहीं या होने नहीं दी गयी.अब समय आ गया है की इन पर शोध हो और सच सामने आये.

  2. एक घटना “शब्द रचना” विषय की रूचि के कारण मुझे विशेष लगती है। दृष्टिकोण मेरा अपना वैयक्तिक है।
    डॉ. रघुवीर ने संस्कृत शब्द रचना शास्त्र का उपयोग कर, प्रायः ६७ विद्वानों की सहायता से, दो लाख शब्दों की, पारिभाषिक शब्दावली संपादित की थी। डॉ. रघुवीर दो दो डाक्टरेट से विभूषित थे।

    वें वास्तव में कांग्रेसी थे;पर राष्ट्र भाषा के विषय में मतभेदों के कारण, अथक प्रयासों के बाद, डॉ, रघुवीर, नेहरु जी से निराश थे।उन्हों ने उस समय की कांग्रेस छोडकर जन संघ की सदस्यता ग्रहण की थीं।अन्य काफी नेता डॉ. रघुवीरकी विद्वत्ता मानते थे। पर नेहरु जी के दुराग्रह के सामने डॉ, रघुवीर का साथ नहीं दे पाए।
    उन के ही पारिभाषिक शब्द अब भी अस्तित्व में हैं।जैसे कि, संसद, विधान सभा, मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री, विधेयक, वैध, अवैध, ……. इत्यादि।
    प्रवक्ता में, दो-तीन आलेख मेरे द्वारा इस विषय पर डाले गए हैं।आज हमारा राष्ट्रीय इतिहास कुछ अलग होता! नेतृत्व के कर्मफल राष्ट्र भोग रहा हैं।

  3. नेहरू के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि उनके रंग रसिया किस्सों को जन जन तक पहुँचाया जाए। “चुम्बन चचा” के किस्से देर से लोगों को पता चले। वो भी शुक्रगुजार सोशल मिडिया का होना चाहिए, नहीं तो “चुम्बन चचा” के घातक किस्सों ने तो देश को डूबा ही दिया है। और “काम रेस” पार्टी ने तो “रंग रसिया चचा” को संत महात्मा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

    किस्सों को सामने लाने में आपका बहुत बहुत आभार।

    सादर

    शिवेंद्र मोहन सिंह

  4. लेख तथ्यपूर्ण है पर इन बीती बातों का अब कोई सुनने वाला नहीं है । जो सुनेंगे वे तंगदिल कहलाएँगे । शायद वे साम्प्रदायिक भी कहें जाएँ । गांधी जी के प्रिय नेहरू जी ने उन की कई बातें नहीं मानी फिर भी वे गांधीवादी कहें जाते है ।

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