नेपाल से एक मैथिली भक्त प्रवीण कुमार चौधरी के फेसबुक पर दी गयी श्रद्धांजलि “Deep Condolance! “मैथिलिके अष्टम अनुसूचीमे नाम दियौनिहार के सी सुदर्शन अमर छथि. हिनक पुण्यआत्माके इस्वर चिर शांति प्रदान करैथ,” से मैं जान पाया कि सुदर्शनजी अब नहीं रहे और उनकी अनेक स्मृतियाँ माथे में कौंध गयी।
कुछ दिन पूर्व उनके मैसूर से गायब होने की सूचना मिली थी तो मैंने मैसूर फोन किया था और वे स्वस्थ थे। उन्होंने जो कहा सो किया – अडवानी जी को दूसरे के लिए जगह छोड़ने के लिए कहा और स्वयम भी अपना जगह छोड़ दिया।
यह सही है कि मैथिली को अष्टम अनुसूची में डलवाने वाले वे ही थे। डॉ. भुबनेश्वर प्रसाद गुरुमैता ८१ वर्ष के हैं। सुदर्शनजी के हमउम्र हैं। उन्हें वाजपेयी जी के पास इस काम के लिए ले गए थे और उनके आग्रह को वाजपेयी ने माना था। “जब आपलोग आये हैं तो यह होगा” वाजपयीजी को पहले चिंता थी कि तब हिन्दी का क्या होगा – क्योंकि दूर से हिन्दीवालों को मैथिली हिन्दी की बोली लगती है -१७७४ से अंग्रेजों के सरकार तिरहुत(मिथिला) को सरकार बिहार के साथ मिला दिया गया था। बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यु के पटना में गठन के बाद और क्रमशः हिन्दी सरकारी रूप से मिथिला में लाद दी गयी थी। कहना न होगा कि वाजपेयी जी जैसे महामना स्वयंसेवक को एक सरसंघचालक की उचित बात को स्वीकार करने में समय नहीं लगा।
आज सुबह गुरुमैताजी का फोने आया कि वे रांची १९-२० को भारतेंदु हरिश्चन्द्र के कार्यक्रम में रहेंगे। इसी प्रकार ८१ वर्ष के सुदर्शनजी किसी कार्यक्रम के लिए मैसूर से रायपुर आये जो उनकी शिक्षास्थली रही। आज शाम उनका एफडीआई के विरोध में जरूर गरिमामय वक्तव्य सुन पाते।
मैं उनके काफी करीब रहा। मुझे याद है कि १९९७ में संभवतः अगस्त ९ या १० को मैं दिल्ली के झंडेवालान कार्यालय गया था। सुदर्शनजी ने बैठा लिया कि डॉ. हर्षवर्धन आनेवाले हैं, उनसे मिल लें- अपनी ह्दय चिकित्सा के फाइल दिखाए- लौकी के रस का फायदा बताया पर एक बात मजेदार अपने जीवन की सुनाई – कभी तिरुपति गए थी- एक वृद्ध पूर्वजन्मज्ञाता ने एक फाइल निकाली – तुम्हारा गाँव कुप्पहेली, गलत फाइल निकली, दूसरा निकली, हां यह कुप्पहेली की है, ठीक है- “तुम पूर्व जन्म में श्री लंका के अनुराधापुर में एक महालम्पट थे, पर जीवन के अंत में तुम भगवान् के भक्त बने, इस जन्म में ब्राह्मण हुए हो, तुम अच्छा काम करोगे, मोक्ष मिलेगा”
सुदर्शनजी ने बताया कि फिर कुछ वर्ष बाद उन्हें तिरुपति जाने का मौक़ा मिला पर वे पूर्वजन्मज्ञाता उन्हें नहीं मिले।
मैं बार बार सोचता हूँ कि सुदर्शन जी का जब पूर्वजन्म ऐसा तो मेरे जैसे सामी व्यक्ति का कैसा रहा होगा पर साथ ही जो सन्देश है अच्छा काम करें मुक्ति मिलेगी।
इस बीच एक आदमी वहां आकार बैठे, मैं उनकी बात सुन रहा था। उन्होंने उनसे मेरे बारे में पूछा कि इन्हें जानते हो? उन्होंने कहा- जानता तो नहीं था पर अब जान गया ये एनएमओ वाले डॉ धनाकर ठाकुर हैं।
मैंने कहा पर मैं इन्हें नहीं जानता।
ये तरुण विजय हैं, पांचजन्य के सम्पादक।
उनकी अच्छी बालों को देख मेरे मुंह से निकल गया- यू आर सो तरुण?
सुदर्शन जी हंसने लगे और उन्होंने एक घटना सुनाई- १९४८ के आस पास जब संघ पर प्रतिबन्ध लगा था, मल्कानीजी मद्रास गए। राजगोपालाचारीजी से मिलने।
जब अन्दर गए, राजाजी ने अपना मोटा चश्मा उठाकर देखा -कौन हो? मल्कानी. इतने युवा, इसलिए ही तुम मेरे खिलाफ ऐसे कड़े शब्द लिखते हो (ऑरगेनाइजर में)।
मैंने तरुण विजय को कहा कि पांचजन्य में हिन्दू कुश को अच्छे माने में कहा गया है (संघ के एक गीत में भी ….ध्वज को हिन्दू कुश पर लहराया ) प् रयः है हिन्दू- कॉफ़ , हिन्दुओं को काटने की जगह slaughter हाउस ऑफ़ हिन्दुस।
(बाद में मैंने उन्हें व्यासजी का अमेरिका से भेजा एक लेख के एप्रती भेजी और शायद अपने हिन्दू कुश पर लेख का खंडन भी उन्होंने छापा )
फिर आये उस समय दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन और मंत्र चिकित्सा पर कुछ बात हुई।
सुदर्शनजी का एनएमओ के प्रति इतना स्नेह था कि २००२ में रजत जयन्ती पर सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम के कार्यक्रम में वे उद्घाटन सत्र छोड़ सभी सत्रों में उपस्थित रहे जबकि हमने उन्हें केवल समापन सत्र के लिए आमंत्रित किया था – ‘मैं पूरा सूनूँगा।
ऐसे महापुरुष इतने सीधे, इतना सरल जीवन, एक इंजीनियर से प्रचारक बने, इंदौर में पहले, अधिकांश समय पूर्वोत्तर के लोगों के बीच।
अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख से सीधा बौद्धिक प्रमुख होना अपवाद है फिर सह से पूरा कार्यवाह और अंत में सरसंघचालक और तब एक स्वयंसेवक होकर मैसूर की शाखा में जिस दिन गुम हुए थे उस दिन भी बच्चों को बताया था कैसे प्रार्थना की जाती है – हाथ का अंगूठा कहाँ रखना है।
कोलकाता में उनका बहुत प्रवास होता था डॉ. सुजीत धर के घर ८-१? बी चक्रेबेरिया में भोजन कर ८४, आशुतोष मुख़र्जी रोड के एक छोटे कमरे में – जब श्रीमती धर ने एक बार मुझे बताया कि उनके घर खाकर मुझे वही सोने जाना है तो मैंने देखा कि कितने छोटे कमरे में वे ठहरते थे।
प्रातः स्मरण का संशोधन हो रहा था – मैंने उन्हें पत्र दिया —-सांस्कृतिक भारत प्रणमामि हम ..कर एक श्लोक भी बना दिया था.. उनका पोस्टकार्ड में मेरे सभी शंकाओं का उत्तर था- गण्डकी से नेपाल का बोध (आज नेपाल से मुझे खबर मिली उनके जाने की.. मैं नैशनल मेडिकोस ओर्गेनाजेसन एवं अंतर राष्ट्रिय मैथिलि परिषद् की तरफ से उन्हें श्रद्धांजलि देता हूँ.. ६ कोटि मैथिल समाज उनके प्रति सदैव श्रद्धावनत रहेगा – वे एक सच्चे अर्थ में राष्ट्रिय नेता थे जो कन्नड़भाषी होते हुए भी पूर्वोत्तर के लिए बहुत किया और भारत की पूर्वी भाषाओं की जननी मैथिली को पहचान कर इसे संविधान में प्रतिष्ठित करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वे अमर रहेंगे।