विविधा शख्सियत

एक संगीत रसिया को श्रद्धांजली

ArunKAgrawal-1आपने, किसी मर्मज्ञ संगीत रसिया को संगीत सुनते हुए देखा है?
जब अरूण संगीत सुनता तो आँखें मूँदकर, सुखासन में बैठ जाता; धीरे धीरे आलाप के साथ,राग के भाव में, उतर जाता, तल्लीन हो जाता; फिर,बाहर क्या घट रहा है; इसकी उसे सूध ना रहती। ऐसी ध्यान की गहराई में संगीत का आनन्द लेने की आदत थी उसे।

जब हम दोनों, साथ साथ संगीत सुनते, तो मैं शान्त ही रहता। तब,संगीत के सुन्दर मोडों और बिन्दुओं पर सही जगह उसकी वाह-वाह निकलती।

ऐसी ही वाह-वाह किसी स्वादिष्ट भोज्य वस्तु का भी प्रमाण पत्र होता। रसोई में परिश्रम करनेवालों के लिए ऐसा प्रमाण पत्र भी काफी प्रोत्साहक होता। अरुण मेरे घर परिवार में घुल मिल गया था,इतना कि,बर्तन धोने में भी उत्साह से भाभी के हाथ बँटाता, और ऐसी स्वैच्छिक सहायता
से गृहिणी का श्रम परिहार हो जाता।

सबसे अधिक मेरे घर में अरुण भैया का स्वागत हुआ करता। उसके आगमन के, दूरभाष संदेश से घरमें आनन्द की लहर दौड जाती। माताजी जब यहाँ होती,अरुण को बुलाना चाहती; जब नहीं होती तो दूरभाष पर बिना भूले, उसके कुशल क्षेम पूछती।

किसी विषय पर,वाद-विवाद में अरुण,सदा भाभी की वकालत करता। माता जी उपस्थित होती तो उनका पक्षपाती बनता। हँसी-विनोद के ठहाकों के साथ मेरा ही विरोध होता।

उसकी संगीत की रुचि असामान्य थी। कार चलाते समय संगीत में ऐसा डूब जाता, कि, कई बार एक्ज़िट  छूट  जाती। तब, कार चलाते समय हितैषियों ने, संगीत पर रोक लगा दी थी। इस का वह सदा पालन किया करता, यह मैंने भी देखा है।

रागों और तालों का भी गहरा ज्ञान और रुचि रखता। इसी रुचि ने उससे  *रागमाला* संस्था का प्रारंभ करवाया। निष्कपट और सीधी सीधी बात रखने की आदत थी। तो, ब्राउन युनिवर्सिटी के अधिकारियों के पास जाकर सीधी सीधी बात चलाई। बोला कि हमारी नॉन प्रोफिट संस्था *रागमाला* संगीत
का आयोजन करना चाहती है। आप हमें हॉल की सुविधा प्रदान कीजिए। संचालकों ने,शायद सोचा होगा, कि, कोई बिज़नेसमन लगता है; नॉनप्रॉफिट गठित कर, अपना पैसा बनाना चाहता होगा; हॉल मना कर दिया।

अरूण प्रयास करता ही रहा। अंत में ब्राउन विश्वविद्यालय के छात्रों को प्रवेश शुल्क में छूट देने  की शर्त पर, हॉल मिला। आगे, अधिकारियों ने देखा कि,यह बंदा,कलाकारों का अपने घर पर प्रबंध करता  है;आतिथ्य-सत्कार करता है; लाने-पहुँचाने,गाडी लेकर,एयरपोर्ट जाता है। पाई
पाई का हिसाब रखता है, और न्यूनतम खर्च में बढिया संगीत कार्यक्रम आयोजित करता है; तो अरूण पर विश्वास बढने लगा। फिर बिना हिचक ब्राउन युनिवर्सीटी की सुविधा मिलने लगी। यह सारा था, अरुण के विशुद्ध व्यवहार का फल।

स्वयं था दिल्ली के पूर्व-मेयर का पुत्र।पर कभी उस पर गर्व नहीं, न विशेष उल्लेख। पिताजी के मेयर रहते,कुछ जमीन इत्यादि,ले लेने का आग्रह नेतृत्व की ओर से हुआ था; तथ्य की पुष्टि भी मुझे अन्य स्रोत से मिली थी। पर अरुण के नीतिमान पिता ने ऐसी अनधिकार जमीन स्वीकार नहीं की।

ऐसे उज्ज्वल-निष्कलंक-चारित्र्य पिता का, यह नीतिमान पुत्र, जब मेरे घर आता, तो मेरी छोटी बिटिया को, स्वयं घोडा बनकर, पीठपर बिठाता, और घर भर सैर कराता। बिटिया भी खिलखिला कर  हँसती रहती। फिर बिटिया की ओर देखकर, अपने कान खींचकर जीभ बाहर निकाल कर विदूषक की चेष्टाओं
से उसका मनोरंजन करता। सारे बच्चों के साथ उसकी बहुत जमती। बच्चों के साथ बच्चा बनने की कला उसे स्वाभाविक ही अवगत थी। इन्हीं गुणों के कारण , परिषद के शिविरों में भी अरूण (अंकल) चाचा के आस पास बच्चे समय मिले, मँडराते रहते।

मेरे, किसी पारिवारिक प्रसंग पर, विश्वविद्यालय के दीपावली आयोजन पर, स्वातंत्र्य दिन पर,  या सामान्य बैठकों पर, ऐसे किसी भी आयोजन पर निर्धारित समय से पहले आकर यह हनुमान का अवतार सेवा के जन्मसिद्ध अधिकार से खडा रहता। मैं भी पारिवारिक और विश्वविद्यालयीन आयोजनो
पर,अरुण की सेवा को गृहित मान कर चलता। कभी विनोद में मैं कहता, कि तुम्हारा जन्म हुआ होगा,तब बालक अरूण ने माताजी से पूछा होगा, कि, माँ कोई कष्ट तो नहीं हुआ ना? लगता है, बजरंगबली का गुण लेकर जन्मा था। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

उदार-मना भी ऐसा ही था। कहता था; मुझे जो सहायता मिलती है, उसी में मेरी आजीविका निकल  जाती है; अब उससे अधिक पैसे का क्या करुं? स्मरण होता है, कि,एक वर्ष अरूण ने, ३० एकल विद्यालयों की सहायता एक ही बार मे दी थी; उसकी सारी वैयक्तिक परिश्रम की कमाई थी। पर इस पर भी
उसको, अपनी बडाई या आत्मश्लाघा की, आदत नहीं थी। किसी को, शायद ही, इन बातों का पता हो।

जब भारत जाता, तो, बनारस के बडे बडे कलाकारों के, द्वार खटखटाता; उनके चरण छूता। कलाकार अपने इस विशेष श्रोता के लिए वाद्यवादन करते, संगीत चर्चा करते, आतिथ्य भी होता। कलाकार भी रसिक श्रोताओं का भूखा होता है। देखा है, कला की परख भी असाधारण लोगों को ही होती है। शेष
जनता कलाकार को उसके प्रमाणपत्रों से जानती हैं; पश्चिम में मिले सम्मान से,या शासकीय सम्मान से। कलाकार की सर्वाधिक उपेक्षा ही होती है। प्रसिद्धि प्राप्त करने में ही बहुतों का जीवन बीत जाता है।

उससे ही सुना था। कि बनारस घराने के, तबला वादक पंडित किशन महाराज की बाँया की कलाकारी कैसी विशेष होती है। एक तो बनारसी घराने के तबला वादक ही कम, और, फिर उसमें प्रभुत्व संपादित तबला वादक और भी कम। झट-डिग्री-पट-नौकरी का भी यह क्षेत्र नहीं है। तो, तबला वादन में
नई पीढी की रुचि थोडे ही होगी?

ये अब भी  परम्परा से दृढ चिपके हुए, कुछ सिद्धान्तवादियों की कला का क्षेत्र है। शायद आप एक हाथ की उंगलियों पर ही इस बनारसी घराने के सारे कलाकार गिन पाएंगे। तबला कैसे सुना जाता है, इस पहलू का प्राथमिक ज्ञान भी सामान्य जन नहीं रखता। पर अरुण इस विषय में जानकार
था। स्वयं तबला भी बजाया करता था।

भारतीय संगीतज्ञ सृजन भी साथ साथ करते रहता है, जब वह गाता या बजाता है। उसके सामने कुछ लिखा हुआ नहीं होता। पाश्चात्य संगीतज्ञ लिखित संगीत को वैसे का वैसा, पढ पढ कर बजाता या गाता है। इस लिए संगीतज्ञ की प्रतिभा की अभिव्यक्ति उसके गायन या वादन में नहीं होती। पाश्चात्य संगीत इस लिए नीरस और कृत्रिम लगता है। और भारतीय संगीत ऊर्जावान। जैसे लिखित व्याख्यान पढनेवाले और खडे खडे विचार व्यक्त करनेवाले वक्ता में अंतर होता है। यही अंतर है, दोनो परम्पराओं में। इसी कारण पश्चिम के भी, जानकार श्रोता भारतीय संगीत की सराहना करते हैं।

जब किशन महाराज को मैंने मॅसॅच्युसेट्ट्स में सुना और उन्होंने गणेश स्तुति के बोलों को तबले पर व्यक्त किया; तब मेरे मस्तिष्क में, कुछ धुंधला-सा प्रकाश पडा, कि क्यों अरूण किशन महाराज की बनारसी शैली का बखानता है।
किशन महाराज भी बडे गौरवशाली और स्वाभिमानी पारम्परिक कलाकार थे। पूरी संस्कृतनिष्ठ और पांडित्यपूर्ण गरिमामयी हिन्दी बोलते थे। अमरिका आए तब आपकी हिन्दी  सुननेका अवसर मिला था। अपनी गौरवमयी शुद्ध उच्चारणवाली हिन्दी की सात्विकता से ऐसा वलय फैला दिया, पंडित जी ने;
कि उसको सुनकर ही कान तृप्त हो गए थे।

अब तो चित्रपटों ने हिन्दी ही बिगाड कर उसे बाजारु बना दिया है; हिंग्रेज़ी बना दिया है। और भाषा को बहते नीर जैसी बताकर दूषित होने के लिए, ६८ वर्षों से छोड दिया है।और हिन्दी के बडे बडे महारथी इसी हिन्दी की वकालत करते हैं। भारत में भी,शुद्ध हिन्दी क्वचित सुनाई देती
है। गरिमामयी हिन्दी के साथ किशन महाराज का तबलावादन भी था अद्भुत; विशेष था उनका बाँये का काम।

रागमाला के संगीत कार्यक्रमों में कलाकार अरुण के कारण, अपना मानधन घटा देते थे। जो सम्मान अरूण आदर सत्कार, वैयक्तिक देखभाल, और आतिथ्य से देता, उसका मूल्य़ भी कम नहीं था।

मेरे घर अरुण आता,सदैव अपना घर समझकर। दुख में आँसु बहाता,सुख में आनन्द उठाता।अपने सुख दःख मेरे परिवारसे बाँटे बिना ना रहता। मेरी कठिनाइयों में उत्साह से सहायता करता। और, बेटी के विवाह में तो, तीन दिन तक दौडभाग करता रहा। एयर पोर्ट से अतिथियों को लाना, उनके अल्पाहार और निवास का प्रबंध, सतत खडे रहकर प्रतिबद्ध  सहायता। मुझे बडा भाई मानता-मैं उसे छोटा भाई। उसके मित्रों में भी,मेरी पहचान *मेरे बडे भाई * कहकर  ही कराता। माताजी जब भी दूरभाष करती है; अरुण की कुशलता पूछा करती है। अब,कठिनाई
है, जब उसका दूरभाष आएगा, मुझे समाचार देने पडेंगे। अभी अभी माँ ने,१०० वर्ष पूरे किए हैं।

जब भी माताजी यहाँ आती,अरूण उस से घुल मिल जाता, माँ माँ पुकारता। उसके पैर दबाता, सेवा करता। प्रिय होने की कला कोई अरूण से सीखे। और उसके इस प्रिय होने में कोई कृत्रिमता या दिखावा नहीं था, सारा बिलकुल स्वाभाविक था। पारदर्शी व्यक्तित्व था। कलियुग को सतयुग बनाने वाले ऐसे भी व्यक्तित्व होते हैं, आप विश्वास नहीं कर पाएंगे।

मैं ने उसीसे सीखा कि, संगीत सुनना स्वयं एक कला है। इस कला को, सीखने के लिए तपस्या करनी पडती है। कुछ समय रगडना पडता है। पटरी पर चढते चढते कुछ समय लगता है। पर एक बार आप पटरी पर चढ गए, तो, फिर आप जीवन भर रंगें गए। जीवन भर आप शास्त्रीय संगीत का स्वर्गस्पर्शी
आनंद लेते रहेंगे। विश्वास कीजिए।

शुरू में आपको शहनाई, सितार, वायोलिन, आदि वाद्यसंगीत अच्छा लगता है। तबला थोडा विलम्बसे सुमेलित और अनुरूप बोलों से, अनुसरण करता है। जब आप धीरे धीरे रसपान करने लगते हैं,तो आपको सरल रागों का वादन और गायकी पसंद होने लगती है। फिर,धीरे धीरे आप को कठिन राग अच्छे लगने
लगते हैं। राग ही आप को ध्यानयोग की कुछ सीढियाँ चढा देते हैं। मुझे रागों की जानकारी और रूचि दृढ करने का श्रेय मैं अरुण को ही दूंगा।

अरुण का विशेष गुण था उत्साह। इस उत्साह से, हर परिस्थिति मैं वह आनन्दी रहता। उसके डाक्टर ने भी उसके, इस गुण की प्रशंसा की थी। कैसे हर परिस्थिति में उत्साहित और आनन्दित रहा जाए, यह एक गुण उसका विशेष था; असामान्य था। यह, उधार नहीं लाया जाता; और बिलकुल आसान नहीं है।

संसार में, प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रतिमा (इमेज)को सुधारने में लगा हुआ है। जो स्वयं  नहीं है, उसकी झूठी प्रतिमा बनाने में सारा जीवन खपा देता है। खोखली  प्रतिमा (इमेज) को चमकाने में कडा परिश्रम करता है। पर, उससे कम परिश्रम में, तो अपने आप को वास्तव में, सुधार सकता है।

यही वास्तविक संदेश अरुण के जीवन से,उसके पारदर्शी व्यक्तित्व से व्यक्त होता है।यही संदेश देकर यह पारदर्शी व्यक्तित्व संसार से विदा हो गया। सामान्य जीवन में असामान्य व्यक्तित्व था।

ज्ञानी कहते हैं,संसार एक रंगमंच है,और मनुष्य इस रंगमंच पर अभिनय कर रहा है। निर्देशक ईश्वर है।जब भी अभिनय समाप्त होता है; निर्देशक संकेत देता है, तो रंगमंच  छोड कर जाना पडता है। लिखते लिखते भी मेरे आँसु जमने लगे।
मेरा परिवार सदस्य,मेरा छोटा भाई था अरुण।
दिवंगत  आत्मा को परमेश्वर  शान्ति प्रदान करे।
कबीर जी कह गए हैं।
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये॥

मेरे घनिष्ठ मित्र श्री. अरुण अग्रवाल ३ नवम्बर  को इहलोक से बिदा हुए।  उनका ऋण उतारना  असंभव! जिनके मात्र  सह-अस्तित्व से  जीवन सुखद और जीने योग्य बन जाता है, जहाँ जहाँ ऐसे व्यक्ति निवास करते हैं, वहाँ सुगंधि फैल जाती है।