तीन तलाक,चार बीवियाँ: कब तक?

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talakशंकर शरण

सुप्रीम कोर्ट में सायरा बानो (फिल्म स्टार नहीं) ने तीन तलाक के शरीयत कानून को चुनौती दी है। कोर्ट ने सुनवाई मंजूर करते हुए केंद्र सरकार को अपनी स्थिति रखने का नोटिस दिया है। सायरा शाह बानो, ताहिरा बाई, फुजलुन बी, जोहरा खातून, शमीम आरा, इकबाल बानो, निसा खातून, शमीमा फारुखी, जैसी उन हजारों मुस्लिम स्त्रियों में हैं जो ‘तीन तलाक’ वाले इस्लामी रिवाज का नियमित शिकार होती हैं। इनके पति का तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण करना मतलब शादी से मुक्त और स्त्री परित्यक्ता! इन महिलाओं की हैसियत जूठे बर्तन से अधिक नहीं, जिसे पुरुष जब चाहे फेंक सकता है। ऐसी अधिकांश स्त्रियाँ अपनी दुर्गति चुपचाप झेलती हैं, जब कि इक्का-दुक्का अदालत जाकर गुजारे की गुहार लगाती है।

लेकिन सायरा ने गुजारे की गुहार नहीं लगाई। उन्होंने तीन तलाक को ही संवैधानिक चुनौती दी है। क्या सरकार साहस दिखायेगी? क्या सिविल सोसायटी के लिबरल महानुभाव आज के युग में, वह भी भारत जैसे देश में, बर्बर शरीयत रिवाजों के विरुद्ध सायरा का साथ देंगे? क्या मीडिया मुस्लिम स्त्रियों को हिन्दू स्त्रियों के बराबर सामाजिक अधिकार देने के लिए वही अभियान चलाएगा, जैसा उस ने ‘असहिष्णुता’ पर चलाया? इन प्रश्नों का उत्तर जानकारों को मालूम है। भारतीय लिबरलों के लिए वी. एस. नायपॉल ने बहुत पहले कहा था कि वे केवल उन्हीं मुद्दों पर शोर-शराबा करते हैं, जहाँ कोई खतरा न हो या जो मामला ही निपट चुका हो। जैसे, छुआ-छूत। लेकिन जो मुद्दा चालू, वास्तविक जुल्म का है, जो कानूनन लागू है, उस पर वे होशियार चुप्पी रखते हैं। शरीयत के कारण लाखों मुस्लिम स्त्रियों की सालाना दुर्गति वे मजे से देखते या अनदेखा करते हैं। यह उन की, सरकार की और मीडिया की भी सामूहिक कायरता या सामूहिक नासमझी ही है। ‘साहस’ की पत्रकारिता के दंभ भरने वाले अखबार ऐसे मुद्दे कोर्ट पर छोड़ देते हैं, जैसे मीडिया को उस से कोई लेना-देना न हो! जबकि दादरी, रोहित, जेएनयू, आदि पर वे खुद ही फैसला देने लगते हैं, मानो कोर्ट कोई चीज न हो। यह चुनी हुई बहादुरी, और चुनी हुई चुप्पी देखने लायक है।

जबकि, सच पूछें तो सायरा जैसे मामले अवसर होते हैं कि मुस्लिम समुदाय में सुधारवादियों को बल पहुँचाया और मजहबी नेताओं को पीछे किया जा सके। ताकि मुसलमान सामाजिक, राष्ट्रीय मुद्दों पर मानवीय विवेक से विचार कर आम भारतवासियों के साथ आ सकें। दुर्भाग्यवश उलटा होता रहा है। फलतः न केवल मुसलमान अपने मजहबी नेताओं की कैद में बने रहते हैं, बल्कि पूरा देश अलगाववाद से कमजोर होता है।

यह केवल तीन तलाक की बात नहीं। मुस्लिम पुरुषों को एक साथ चार बीवियाँ रखने की आजादी के साथ मिला कर इस जुल्म का भीषण पैमाना दिखेगा। कोई हिन्दू पति एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करे, और पहली पत्नी अदालत पँहुच जाए तो पति को जेल हो जाएगी। जबकि कोई मुस्लिम पति चार बीवियाँ बेखटके रख सकता है और इस पर उस की बीवी अदालत का दरवाजा खटखटा तक नहीं सकती।

इसीलिए, कई बार कोई हिन्दू सिर्फ इसलिए मुसलमान बन जाता है ताकि दूसरी, तीसरी शादी करने और जब चाहे बीवी को छोड़ देने की सहूलियत मिल जाए। यह हिन्दू समाज के विरुद्ध घोर कानूनी भेद-भाव भी है, जिस से उस की हानि होती है। शरीयत कानूनों से चलते अन्याय का यह भी एक गंभीर पक्ष है।

सब से शर्मनाक यह है कि खुद सुप्रीम कोर्ट इस अन्याय पर कई बार ऊँगली रख चुका है। उस ने भारतीय राजनीति को फटकारा भी है। जैसे, 8 फरवरी 2011 को राष्ट्रीय महिला आयोग की याचिका पर सुनवाई करते हुए उसने कहा कि हिन्दुओं पर लागू होने वाले ‘नागरिक कानून में समय-समय पर हस्तक्षेप के प्रति हिन्दू समुदाय सहनशील रहा है। लेकिन दूसरों के साथ ऐसा नहीं हुआ। यह सेक्यूलर निष्ठा में कमी लगती है…।’

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी पूरे राजनीतिक वर्ग पर लागू होती है। एक देश में दो नागरिक कानून बीमार मानसिकता का चिन्ह है। इस से राजनीतिक भेद-भाव, फूट और ईर्ष्या-द्वेष के लिए खुली जमीन मिलती है। इस पर भी कोर्ट ने चेतावनी दी है। किन्तु इस्लामी नेता समान कानून की बात सुनते ही क्रोधी तेवर दिखाते हैं, कि शरीयत को छुआ नहीं जा सकता!
यह बात साफ झूठ है। तुर्की जैसे अग्रणी मुस्लिम देश में यूरोपीय देशों जैसे समान नागरिक कानून हैं। मोरक्को, जोर्डन, कुवैत, ईराक, संयुक्त अरब अमीरात, आदि इस्लामी देशों में भी तीन तलाक समेत शरीयत की कई बातें छोड़ी जा चुकी है। पाकिस्तान में भी किसी को एक बीवी के रहते दूसरी लाने से पहले कारण बताकर सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है।
वस्तुतः भारत में भी मुसलमानों के लिए अलग कानून हमेशा नहीं था। इसे सुप्रीम कोर्ट ने भी नोट किया है। कोर्ट ने सरला मुदगल मामले (1995) में कहा था कि यहाँ ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ का जन्म मजहब से नहीं, बल्कि लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स के बनाए कानून से हुआ था।’ सन् 1791 ई. में वह कानून आया जिस के अनुसार शादी, तलाक तथा संपत्ति विरासत मामलों में मुसलमान और हिन्दू अपने-अपने चलन से चल सकते थे। उसी ब्रिटिश सरकार ने 1832 ई. में आपराधिक मामलों में मुस्लिम लॉ को खत्म कर समान कानून भी लागू किया। यानी शरीयत अनुल्लंघनीय नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने सरला मुदगल मामले में यह भी कहा थाः ‘विभाजन के बाद जिन्होंने भारत में ही रहना चुना वे बखूबी जानते थे कि भारतीय नेता दो-राष्ट्र या तीन-राष्ट्र सिद्धांत को नहीं मानते थे और भारतीय गणतंत्र में एक ही राष्ट्र रहेगा। और मजहब के आधार पर कोई समुदाय अपना अलग कायदा चलाने का दावा नहीं कर सकता।… चूँकि पर्सनल लॉ की उत्पत्ति विधायी उपायों से – मजहब से नहीं – हुई थी, इसलिए उसे एक समान नागरिक संहिता बनाकर खत्म या संतुलित किया जा सकता है।’

अतः यह नेहरूवादी तर्क झूठा बहाना था और है कि समान कानून के लिए अभी ‘उपयुक्त’ समय नहीं। जब खुद मुसलमान कहेंगे तभी वह किया जाएगा। तब तक पर्सनल लॉ की आड़ में मुस्लिम स्त्रियों (और बच्चों) की दुर्दशा होती रहेगी। क्या हिन्दू कोड बिल लाने से पहले हिन्दू जनता से पूछा गया था? यदि नहीं, तो इस्लामी कुरीतियों पर विचित्र सहानुभूति दिखाना लाखों मुस्लिम लड़कियों पर जुल्मो-सितम जारी रखना ही है।

केरल और आंध्र प्रदेश में प्रचलित ‘अरबी निकाह’ उसी का एक और घृणित रूप है। अरब देशों से दौलतमंद बूढ़े यहाँ मुस्लिम लड़कियों के परिवार को पैसे देकर किसी कमसिन लड़की से निकाह कर, चार-छः दिन उसे भोग कर, फिर तलाक देकर चलते बनते हैं। या उसे अरब ले जाकर कुछ दिन बाद तलाक दे देते हैं। फिर उस बेचारी की जो दुर्गति होती है, उसे देखने वाला दुनिया में कोई नहीं! एक बार हैदराबाद में शरजाह का 73 वर्षीय याकूब अल-जोरानी 19 वर्षीया हसीना से निकाह के दो ही दिन बाद उसे तलाक देकर, फिर नए निकाह के चक्कर में था। कई बीमारियों से ग्रस्त, एक आँख का जोरानी तब तक वहीं पाँच लड़कियों से निकाह कर उन्हें छोड़ चुका था! हसीना छठी थी, और वह सातवीं के फिराक में था।

नोट करें, भारत की हजारों मुस्लिम लड़कियों के साथ ऐसे सालाना जुल्म शरीयत के बल पर होते हैं। इस पर गरीबी या पिछड़ेपन की बातें बहानेबाजी हैं। क्या भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों की आँखों में शर्म और छाती में दम नहीं कि अपने देश की लड़कियों पर ऐसी कानूनन दरिंदगी को रोक सकें?

2 COMMENTS

  1. अगर स्त्री के गर्भ का उपयोग कोई समाज अपने धर्म के प्रसार के लिए करने लगे तो फिर यह सब होना ही है. कुछ समाज में स्त्रीयां बच्चे पैदा करने की मशीन बन कर रह गई है.

  2. विद्वान लेखक ने एक बार फिर भारतीय समाज में प्रचलित अन्यायपूर्ण मान्यताओं को उजागर करने का साहसिक प्रयास किया है.दुःख इस बात का है की हमारे राजनेता ,राष्ट्रिय सूचनातंत्र के कर्णधार ,सेकुलरवाद के झंडाबरदार और तथाकथित बौद्धिक विचारक, मानवता तथा राष्ट्रहित के पक्ष में आवाज़ उठाने का साहस नहीं रखते.नहीं तो क्या कारन है की शरियत के जो अन्यायपूर्ण प्रावधान मुस्लिम बहुल देशों में भी बहिष्कृत हो चुके हों भारत के मुस्लिम समाज में अभी तक मान्य हैं .सर्व मान्य सिविल कोड तो बहुत दूर की बात है हमारे नेता गन मुस्लिम उलेमाओं के विरोध के फलस्वरूप होने वाली वोट क्षति से इतना घबराते हैं की मुस्लिम महिलाओं पर हो रहे अन्याय ,अत्याचार के विरुध्ध कुछ भी कहने से कतराते हैं . अब शायद जागृत मुस्लिम महिलाओं का मंच इस अन्याय का दृढ़तापूर्वक प्रतिकार करने को कृतसंकल्प हो तो कुछ परिवर्तन आ सकता है

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