जब तक ’अंग्रेजी’ राज रहेगा, स्वतंत्र भारत सपना रहेगा

– विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाइस मार्शल)

1947 तक हमारा हृदय परतंत्र नहीं था, बाहर से हम परतंत्र अवश्य थे। 1947 के बाद हम बाहर से अवश्य स्वतंत्र हो गए हैं, पर हृदय अंग्रेजी का, भोगवादी सभ्यता का गुलाम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी पर भी यद्यपि अंग्रेजी लादी गई थी, किन्तु वह पीढ़ी उसे विदेशी भाषा ही मानती थी। स्वतंत्रता पश्चात की पीढ़ी ने, अपने प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश के अनुसार, अंग्रेजी को न केवल अपना माना वरन विकास के लि ये भी पश्चिम के अनुकरण को अनिवार्य माना। महात्मा गाँधी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में दृढ़ता पूर्वक कहते हैं कि, ‘वही लोग अंग्रेजों के गुलाम हैं जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, अपराध आदि बढ़े हैं।’ हमारे प्रधानमंत्री नेहरू ने गाँधी के गहन गम्भीर कथनों को नहीं माना, क्योंकि वे स्वयं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में थे। और ऐसी अंग्रेजी शिक्षा भारत में पाश्चात्य जीवन मूल्य ही लाई भोगवाद तथा अहंवाद लाई, मानसिक गुलामी लाई जिसका स्पष्ट प्रभाव लगभग 1975 से बढ़ते बढ़ते २०१० में विकराल रूप धारण कर लेता है। समाचार पत्रों में प्रकाशित घटनाएं विद्यार्थियों और शिक्षकों में बढ़ते भयंकर अपराध उपरोक्त कथनों के प्रमाण हैं।

हृदय या मस्तिष्क की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आखिर हमें स्वयं को जीवन मूल्य सिखाना ही पड़ते हैं, चाहे जिस भाषा में सीख लें। और पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनके सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें? वैसे तो आसान यही है कि हम उनका अनुसरण करें। किन्तु इस निर्णय के पहले हमें सफ़लता शब्द का अर्थ गहराई से समझना होगा। आज की पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है, उनकी सफलता आप उनके भोग के संसाधनों से ही तो नाप रहे हैं सुख से तो नहीं! क्या सुख को भोग के संसाधनों से नापा जाना चाहिये? भोग तो हमें करना ही है और क्या भोग में सुख नहीं है? अब हमें भोग और भोगवाद में अन्तर समझना पड़ेगा। जीवन के लिये आवश्यक उपभोग करना उचित भोग है। भोग को सुख मानते हुए, भोगवादी सभ्यता में अपने लिये सर्वाधिक सुख चाहते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, क्योंकि भोग तो व्यक्ति स्वयं अपने लिये ही करता है, कोई अन्य उसके लिये भोग नहीं कर सकता! परिवार का प्रत्येक सदस्य भी, और इस तरह परिवार तथा समाज विखंडित हो जाता है क्योंकि अब सभी सदस्य अपने लिये ही सर्वाधिक भोग चाहते हैं। जब टूटते हैं परिवार, तो दुख ही बढ़ता है लगातार। जब जनता में और शासकों में अलगाव हो, मंत्रियों तथा उनके सलाहकार अधिकारियों में; पति और पत्नियों में; पुरुषों और महिलाओं में; प्रौढ़, यौवा तथा किशोरों में; शिक्षकों और विद्यार्थियों आदि आदि में अलगाव हो, भोग के लिये प्रतिस्पर्धा हो, या व्यावसायिक लेन-देन हो तब शान्ति और सुख तो नहीं हो सकता। जब मात्र लाभ ही व्यवसाय या उद्योग का प्रमुख उद्देश्य हो तब शक्तिशाली अन्य का शोषण ही तो करेगा, इसमें न तो जैन्डर आता है और न वर्ग(क्लास)। पुरुष पुरुष का, महिला महिला का, दलित दलित का अर्थात् अधिक शक्तिशा ली कम शक्तिशाली का अपने सुखभोग के लिये शोषण करेगा। आज बड़ी बड़ी कम्पनियां अपने सभी कर्मचारियों का शोषण कर रही‌ हैं यद्यपि लगता है कि वे उऩ्हें अधिक वेतन तो दे रही‌ हैं। इसलिये क्या आश्चर्य कि सुख की चाह में भोग तो बढ़ रहा है किन्तु सुख नहीं।

भारतीय संस्कृति को दीर्घकालीन चिन्तन, मनन तथा अनुभवों से सुख का अर्थ ज्ञात है। तभी वे ऋषि त्याग­पूर्वक भोग का (‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः ईशावास्य उपनिषद) मंत्र देते हैं। महाविद्वान तथा बलवान रावण अनियंत्रित भोगेच्छा के कारण ही तो राक्षस था। ‘रावयति इति रावणः’ अर्थात जो रूलाता है वह रावण है, भोगवाद भी अन्ततः रुलाता है, प्रारम्भ में चाहे लगे कि सुख दे रहा है। यदि आप भोगवादी राक् षस नहीं बनना चाहते तो अंग्रेजी की गुलामी छोड़ें, सुखपूर्वक स्वतंत्र रहना चाहते हैं तो भारतीय भाषाओं में सारी शिक्षा ही न ग्रहण करें, वरन इन में अपना जीवन जियें। यह न भूलें कि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वाहन भाषा तथा साहित्य है। संस्कृति की स्वतंत्रता ही सच्ची स्वतंत्रता है। पहले मैं तुलसीदास की इस चौपाई को ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’ सत्य मानता था। किन्तु मैं आज देख रहा हूं कि अंग्रेजी भक्त इंडियन, सपने ही में सुखी है। आप तुरंत कहेंगे कि बिना अंग्रेज़ी के तो हम पिछड़े रहेंगे, गरीब रहेंगे । इस पर विचार करें।

यदि आप किसी अंग्रेज से या अमेरिकी से प्रश्न करें कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा कितनी सार्थक है तब उसका उत्तर होगा बहुत ही सार्थक क्योंकि भारत उनके लिये अति उत्तम बाजार बन गया है, यहां तक कि उनकी जितनी पुस्तकें भारत में बिकती हैं, स्वयं उनके देश में नहीं बिकतीं। यही प्रश्न आप यदि किसी भारतीय ब्राउन साहब से करें तो उसका उत्तर होगा बहुत सार्थक, क्योंकि वह कहेगा कि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार युग में रहते। अंग्रेजों ने ही तो सर्वप्रथम हमारे अनेक खंडों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया, हमें विज्ञान का इतना ज्ञान दिया नहीं तो हमारी भाषाएं तो नितान्त अशक्त थीं। अंग्रेजों के जमाने में तो कानून व्यवस्था थी। अंग्रेजी के बिना हम आज के हालत से भी बदतर होते। ब्राउन साहब तो मैकाले की शिक्षा का उत्पाद है।

अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी माध्यम में विज्ञान की शिक्षा तो भारत में लगभग 1५0 वर्षों से हो रही है। भारत के नगरों में बिजली, पानी, सड़कों तथा दूरभाष की व्यवस्था भी 100 वर्ष से अधिक पुरानी है। तब क्या बात है कि जरा सी तेज हवा चली तो बिजली गुल। भारत की राजधानी तक में, गर्मियों में पानी का अकाल पड़ जाता है। जरा सा पानी बरसा कि भू फोन की नानी मरने लगती है। और यह हालत ऐसी क्यों है? क्या अंग्रेजी à ��ें विज्ञान तथा इंजीनियरी पढ़े तथा प्रशिक्षित लोग ही इस दीन अवस्था के लिये जिम्मेदार नहीं ।

कोई शायद कहे कि भारत में बिजली, पानी, सड़क आदि की दुर्दशा भारतीयों के भ्रष्ट आचरण के कारण है। तब इस भ्रष्ट आचरण का कारण क्या है? चरित्र की शिक्षा धर्म तथा धार्मिक आचरणों से अधिक सरलता से आती है, वैसे आज तो धर्म को न मानने वाले लोग भी सच्चरित्र बनना चाहते हैं। पिछले हजार वर्ष के विधर्मियों के शासन में हमारे धर्म, पुस्तकालयों, धर्मस्थानों तथा पंडितों पर बहुत प्रहार हुए हैं। विश्व में‚ जहां भी विधर्मियों ने लम्बा राज्य किया है, उस देश के मूल धर्म तो समाप्त प्राय हो गये हैं या बहुत दुर्बल अवश्य हो गये हैं। एक भारत ही इसका अपवाद है। स्वतंत्रता संग्राम के समय इस देश ने महान नेता उत्पन्न किये। स्वतंत्रता पश्चात एक तो गुलामी की मानसिकता के कारण, दूसरे, अंग्रेजी भाषा के राजभाषा बनने के कारण, तीसरे, धर्म निरपेक्षता की गलत परिभाषा के कारण धार्मिक मूल्यों का, नैतिक मूल्‍यों का ह्रास हुआ है। क्या किसी देश में सच्चा जनतंत्र हो सकता है कि जिस देश के शासन की भाषा उसके नागरिकों की‌ भाषाओं से नितान्त भिन्न हो!

भारतीय विद्यार्थी अंग्रेज़ी तथा उसके माध्यम से मुख्यतया शीघ्र ही अच्छी नौकरी पाने के लिये पढ़ता है। ऐसी पढ़ाई मन की गहराई में नहीं जाती, परीक्षा में ऊंचा स्थान तक ही वह सीमित रहती है। चूंकि वह सीमित ज्ञान भी एक विदेशी भाषा में है उसके एक अलग खण्ड में बने रहने की सम्भावना अधिक रहती है। जीवन के अन्य कार्य मातृभाषा में होते हैं और इस खण्ड की जानकारी अन्य खण्डों के साथ कठिनाई से ही में करती है। मेरे अनुभव में यह तब आया जब मैंने अंग्रेजी में सीखे विज्ञान का हिन्दी में अनुवाद किया। और तब वह ज्ञान अचानक जैसे मेरे व्यक्तित्व में घुल मिल गया। और जब कविता लिखन प्रारंभ किया तब कविता मेरी मातृभाषा में ही बन पाई। मुझे समझ में आया कि रचनाशीलता का स्रोत बुद्धि के भी ऊपर है जो मातृभाषा से सिंचित होता है, या उस भाषा से जिसमें‌ जीवन जिया जाता है।

हमने प्रौद्योगिकी में कुछ प्रगति अवश्य की है किन्तु अभी भी प्रौद्योगिकी में कुल मिलाकर हमारी गिनती अग्रणी देशों में नहीं होती। प्रौद्योगिकी में जब तक देश में २४ घंटे लगातार विद्युत न मिले, हम अग्रणी नहीं‌ हैं। जब तक कानून और व्यवस्था आम जन को सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे सकती हम सभ्य नहीं हैं। चीन, दक्षिण कोरिया, इज़रायल आदि देश जो 1947 में हम से प्रोद्योगिकी में पीछे थे, आगे हो गए हैं। क्यों? उपरोक्त तीनो देशों की राज्य व्यवस्थाएं यद्यपि भिन्न विचारधाराओं की हैं, भिन्न परिस्थितियों की हैं, तथापि वे तीनो अपनी ही भाषा में पूरी शिक्षा देते हैं। विश्व की विज्ञान शिक्षित यदि 30 प्रतिशत नहीं तो महत्त्वपूर्ण आबादी तो भारत में है। किन्तु नोबेल पुरस्कार तो हमें विज्ञान में कुल एक (तीन, यदि भारतीय मूल को भी गिनें) ही मिला है। यदि शोध प्रपत्रों का अनुपात देखा जाए तो ह मारा योगदान नगण्य है। जब कि विश्व के छोटे छोटे देश जैसे इज़रायल, जापान, फ्रांस, ब्रिटैन, हॉलैण्ड, डैनमार्क, इटली इत्यादि भारत से कई गुना अधिक शोध प्रपत्र लिखते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा सार्थक तो क्या, निरर्थक ही नहीं, वरन हानिकारक रही है। भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा देने से हम कहीं अधिक कल्पनाशील, सृजनशील तथा कर्मठ होते। हमें &# 8217;खुले बाजार’ के गुलाम न होकर ‘वसुघैव कुटुम्बकम’ के स्वतंत्र तथा सम्मानित सदस्य होते।

भारत में जो शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जा रही है वह भारत के शरीर पर कोढ़ के समान है। और यदि वह शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से आठवीं कक्षा के स्तर के पहले से ही प्रारंभ कर दी जाए तब वह कोढ़ में खाज के समान है। क्योंकि तब तक उसकी मातृभाषा की समुचित निर्मिति उसके मस्तिष्क में नहीं बैठ पाती। ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखना चाहिये, अवश्य सीखना चाहिये। अंग्रेजी के विषय में, मैं इसे सौभाग्य मानूंगा जब हम अंग्रेजी को एक समुन्नत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह सीखें।

विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी आज के जीवन के पोर पोर में विराजमान हैं। ऐसी स्थिति में जिस भी भाषा में विज्ञान का साहित्य नहीं होगा, वह भाषा कमजोर होती जाएगी और समाप्त हो जाएगी। क्या भारतीय भाषाएं कमजोर नहीं हो रही हैं! आज वे बिरले भारतीय हैं जिनकी भाषा में ३0 – ४0 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के नहीं हैं! यदि आप चाहते हैं कि भारतीय भाषाएं स्वस्थ्य बने, भारतीय संस्कृति जीवित रहे, हमारी विचार शक्ति स्वतंत्र रहे तब आपको प्रतिज्ञा करना पड़ेगी कि, ‘मैं अपनी देश की भाषा को स्वस्थ्य बनाऊंगा, भारतीय संस्कृति को व्यवहार में लाउंगा।’ यदि आप सचमुच विकास तथा समृद्धि के साथ इस विश्व में स्वतंत्र रहते हुए अपना सम्मान बढ़ाना चाहते हैं तब विज्ञान को (उपयुक्त) मातृभाषा में सीखना होगा क्योंकि भारत में अंग्रेजी माध्यम के कारण विद्यार्थियों को विज्ञान समझने में अधिक समय और परिश्रम लगाने के बाद भी वे विषय की सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच पाते, और न उनका ज्ञान भी आत्मसात हो पाता है।

गुलामियत के व्यवहार पर एक प्रसिद्ध अवधारणा है जिसे ‘स्टॉक होम सिन्ड्रोम’ कहते हैं। उसके अनुसार गुलामियत की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। इस स्टॉकहोम सिन्ड्रोम के शिकार असंख्य अंग्रेजी भक्त हमें भारत में मिलते हैं। अन्यथा एक विदेशी भाषा आज तक हम पर कैसे राज्य कर सकती ! आज कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जिसकी भाषा विदेशी‌ हो। वे विदेशी‌ भाषा अवश्य सीखते हैं किन्तु अपनी सारी शिक्षा और सारा जीवन अपनी‌ भाषा में‌ जीते हैं।

अब हम भविष्य की बात करें। भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, अग्रणी रहेगा, शेष देश तो उसके लिये बाजार होंगे, खुले बाजार! विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त होने के लिये उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं। यह दोनों कार्य वही कर सकता है जिसका विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार है, तथा जो कल्पनाशील तथा सृजनशील है। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे स ंवेदनशील गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ आते हैं, और जिस भाषा में जीवन जिया जाता है उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैं। अतएव नौकरी के लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वाले से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, इसके अपवाद हो सकते हैं।

अंग्रेजी की शिक्षा ने अर्थात भोगवाद ने भारत में, इतने अधिक भेदों को बढ़ावा देने के बाद, एक और भयंकर भेद स्थापित कर दिया है ‘अंग्रेजी’ तथा ‘गैर अंग्रेजी’ का भेद। इस देश में जनतंत्र का अर्थ मात्र 5 प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों का राज्य है क्योंकि वही सत्ता में है, बलशाली है। यह कैसा जनतंत्र है ? यह कैसी स्वतंत्रता है कि हमें अपने ही देश में अपनी भाषाओं की रक्षा हमारे ही शासन द्वारा आयोजित एक विदेशी भाषा के लुभावने आक्रमण से करना पड़ रही है कि हमारे मन्दिरों पर यह तथाकथित धर्म निरपेक्ष शासन कब्जा करता है।

यदि आप चाहते हैं कि इस देश का, आपका, और उससे अधिक आपके बच्चों का पहले इस देश में, तथा बाद में विश्व में सम्मान बढ़े तब आपको, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देना ही है। आप यह न सोचें कि बच्चे को नौकरी अंग्रेजी के बिना कैसे मिलेगी। यह बहुत हानिकारक सोच है। अब ऐसा बातावरण हो गया है क़ि कम से कम हिन्दी में तो, आइएएस, एनडीए आदि की परीक्षाएं दी जा सकती हैं। भारतीयों को एक गुलाम�¥ € की भाषा सीखने से अधिक मह्त्व राष्ट्र भाषा सीखने को देना चाहिये, क्योंकि अन्य महत्वपूर्ण कारणों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं की संस्कृति एक ही है, उनकी शब्दावली में बहुत समानताएं हैं, और जो मानव बनाकर सुख देने वाली है, अंग्रेज़ी की तरह भोगवादी बनाकर दुख देने वाली नहीं। अंतर्राष्ट्रीय बनने से पहले राष्ट्रीय बनना नितांत आवश्यक है जिसके लिये भारतीय भाषाओं का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है, तत्पश्चात अंग्रेज़ी सीखें। वैसे भी आपके बच्चे की कल्पनाशीलता तथा सृजन शक्ति से वह न केवल अच्छी अंग्रेजी सीख लेगा वरन जीवन में अवश्य कुछ ऐसा भी करेगा जिससे आपको गर्व महसूस होगा। और आप तथा समाज सुखी होगा! मातृभाषा तथा भारतीय संस्कृति ही आपको अच्छा मानव बनाती है। और मानव तभी अच्छा बन सकता है जब वह स्वतंत्र है, उसकी संस्कृति स्वतंत्र है उसका भाषा तथा साहित्य स्वतंत्र है।

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

22 COMMENTS

  1. मैंने यह लेख और कमेंट्स अब-अर्थात मई 30, 2014 को पढ़े. मैं नहीं जानता कि अब कोई मेरा लिखा हुआ पढ़ेगा या नहीं. फिर भी —एक प्रयास करना चाहिए.
    उपरोक्त सभी सज्जनों व देविओं ने इन चार वर्षों में (अधिकाँश -नहीं सारे ही कमेंट्स सन 2010 के हैं) हिंदी के प्रचार /प्रसार के लिए कुछ न कुछ तो किया होगा. क्यों न हम भाव्बाओं के साथ साथ अपने कार्यों के बारे में भी आदान प्रदान करें ताकि प्रत्येक को और कुछ करने का प्रोत्साहन मिले.
    वीरेन्द्र

  2. प्रणाम भाईसाब
    दो सौ वर्षों की गुलामी झेलने के बाद इस देश से अंग्रेज तो गए किन्तु शातिरों ने जाते-जाते अपनी भाषा अंग्रेजी छोड़ दी ,जो आज स्वतंत्रता के ६४ वें वर्ष में भी कायम है ,आज भी समाज में या परिवार में अंग्रेजी बोलने वाले को शिक्षित माना जाता है जब की हिंदी और संस्कृत अपना वो मुकाम जिसके डंके सारे विश्व में बजा करते थे ,हासिल नहीं कर सकीं हैं, इसे दुर्भाग्य ही कहा जावेगा की ९० से ज्यादा प्रतिशत लोग जो नहीं समझते अपने मासूम को ट्विंकल-ट्विंकल या हम्प्टी -दम्ती बोलते सुनकर खुश होतें हैं….VIJAY SONI DURG

  3. धन्यवाद आदरणीय विश्व मोहन जी, आप बिलकुल सत्य कह रहे है. हम बहार से भले ही आजाद है पर हमारी मानसिकता अभी भी गुलाम है.

    अंग्रेज जाते समय तीन वायरस छोड़ कर गए है
    १. अंग्रेजी
    २. चाय (दूध, शक्कर और चाय पत्ती का काढ़ा – जिसने इस देश में दूध का अकाल बना दिया है).
    ३. क्रिकेट – …..
    और इन ३ वायरस ने पुरे देश पर कब्ज़ा कर लिया है.
    .
    ,

  4. Shri Man Tiwari Je,
    Apne ne aaj Bahut he achhe Vishay par likha hai, Aaj jise english nahi aati use log illitrate kahte hai hai, jab ki jitna respective shabd hamare hindi me hota hai kahi aur kisi anya bhasa me nahi hota,
    Aaj Maikale to nahi raha lekin uski Gulam hai jo ki hamare hindi ki Upeccha karte hai,

    Apka Prayash Kabile Tarif hai.

    Ateet Gupta (Rewa MP)

  5. प्रो. मधुसुदन जी की दी उपयोगी सूचि के साथ थोड़ा सा और जोड़ने का मेरा विनम्र सुझाव है, यदि वे इसे उचित समझें तो.
    ‘मैकालियन शिक्षा के प्रभाव में हम अपने खुद के, अपने देश के आत्मघाती शत्रु नहीं बन गए, ये जांचने के लिए अपने आप को हम स्वयं परखें. ज़रा सोच कर देखें की—-
    १. भारत व भारतीय संस्कृति की महानता, भारत के गौरवपूर्ण इतिहास व महान पुरुषों के बारे में सुनकर आप आनंदित, उत्साहित, प्रसन्न होते हैं या नहीं ?
    २. भारतीय समाज, भारत की संस्कृति, पूर्वजों व श्रधा-केन्द्रों की आलोचना सुनकर आपको पीड़ा, कष्ट होता है या नहीं ?
    यदि नहीं तो फिर ज़रूर कुछ गड़बड़ है. हीनता बोध का शिकार होने की पहचान है यह. दुनिया के एक भी देश के निवासी की ऐसी रोगी मानसिकता नहीं है. चाहें तो स्वयं परख कर देख लें. यदि आप विदेश नहीं गए तो किसी मित्र से जानकारी लें या फिर इन्टरनेट पर किसी देश के नागरिक से संपर्क करके उससे अपनी तुलना कर लें.
    *अपनी स्वयं की परख के बाद स्वयं सोचें की आपको अपने बारे में क्या करना है. यदि मेरा सुझाव चाहें तो कुछ सरल, सस्ती पुस्तकें इस रोग का इलाज हैं, वे एक बार पढ़ लें. आप थोड़े भी संवेदनशील हैं तो आनंद व प्रसन्नता से झूम उठेंगे, गौरव से भर उठेंगे और भारत में जन्म लेने के अपने सौभाग्य पर ईश्वर के आभारी होने लगेंगे. वे कुछ पुस्तकें हैं ( इनमें निश्चित रूप से और पुस्तकों की सूचि भी जुड़ सकती है)——–
    १. विश्व को भारतीय संस्कृति के अजस्र अनुदान, आचार्य श्री श्रीराम शर्मा ( शांती कुञ्ज, हरिद्वार)
    २.भारतीय संस्कृति का विश्व संचार, हेबालकर शास्त्री ( सुरुची साहित्य प्रकाशन, झंडेवालान, नई दिल्ली-५५.)
    ३.वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास, पी.एन.ओक, हिन्दी और अंग्रेज़ी- दोनों भाषाओं में उपलब्ध है. ( हिन्दी साहित्य सदन,२-बी.दी.चैम्बर्स, १०/५४, डी.बी.गुप्ता रोड, करोल बाग़, नई दिल्ली-५ (पुलिस स्टेशन के पास), फोन:२३५५३६२४)
    ४. हिन्दू अमेरिका, चमनलाल भिक्षू ( भारतीय विद्या भवन, चौपाटी, मुम्बई-४०००००७, या हिन्दी और अंग्रेज़ी में सुरुचि साहित्य प्रकाशन पर उपलब्ध)
    * इनके इलावा भारत की महानता का वर्णन करने वाली अनेक पुस्तकें अंतर-राष्ट्रीय ख्याती के लेखकों की हैं जो भारत में मुझे अभी तक नहीं मिली हैं. पर विदेशों में संपर्क हो तो आप शायद प्राप्त कर लें. इन पुस्तकों में भारत के बारे में जो ऊंची बातें लिखी हैं वे प्रमाणिक होने पर भी हम आज के भारतीयों को किसी परी कथा जैसी अविश्वसनीय लगेंगी.उनमें से कुछ पुस्तकें व लेखकये हैं———
    १. काउंट बिआर्न स्टीर्ना द्वारा लिखित पुस्तक ‘थियोगानी ऑफ़ हिंदूज़’. इसमें दिए प्रमाणों के अनुसार मिश्र की इस्लाम पूर्व की संस्कृति पूरी तरह हिन्दू है और वहां के पिरामिड भी हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए गए थे.
    २. ले.जनरल चार्ल्स वेलेंसी द्वारा लिखित मिश्र का इतिहास.
    ३. लैली मिचेल द्वारा लिखित ‘कंकैसट ऑफ़ दी माया’
    ४. डोर्थी चैपलिन की पुस्तक ‘मैटर मिथ एंड स्पिरिट ऑफ़ दी कैलिटिक डरुईड्स’
    ५. फ्रेंज क्युमांट की पुस्तक ‘औरिएनटल रिलिजन इन रोमन पैगानिज्म’
    ६. वान्ड़ेरिंग ऑफ़ ए पिलिग्रिम इन सर्च ऑफ़ दी पिक्चर्क्यु, फैनी पर्क्स.
    ७. इंडिया इन ग्रीस, एडवर्ड पोकोक
    ८. संस्कृत एंड इट्स किंडर्ड लिटरेचर, लारा एलिजाबैथ पूअर
    ९. दी कैलिटिक द्रुईद्स, गाडफ्रे हिगिन्ज़
    १०. ओरिजन ऑफ़ दी पैगं अईड्ल्स, रेवरेंड फेबर.
    ११. मिथ्ज़ एंड ईपोपल, जार्ज डुमोजिल इत्यादी.
    प्रो. मधुसुदन जी एवं अन्य लेखकों / पाठकों की मार्ग दर्शक टिप्पणियों का सादर स्वागत है.

    • डॉ. राजेश जी आपका सुझाव सही है, शिरोधार्य भी है ही। इस प्रश्नावलि का औचित्य निश्चित ही, बढाया जा सकता है।
      आपने उद्धृत की हुयी , पुस्तक सूचि भी बहुत उपयुक्त और ज्ञान वर्धक लगती हैं। उसमें से कुछ ही मेरे पास है।

  6. मधुसूदन जी आपने जो यह प्रश्न सूची प्रस्तुत की है , इसे थो.डा और समुन्नत कर यदि कुछ हजार भारतीयों को भेजी जाए तो एक अद्भुत सत्य सामने आएगा।
    क्या हम अपने पाठकों से यह आशा कर सक्ते हैं के वे इसका उत्तर् दें।

    • विश्व मोहन जी-मैं इस विषय का कुछ और अध्ययन कर, प्रवक्ता पर एक लेख के अंतर्गत डालना चाहता हूं।
      १९-२० सितंबर तक गुजराती साहित्य परिषद का अधिवेशन हो रहा है, उसमें कुछ व्यस्त रहूंगा। वहां भी मैं हिंदी/संस्कृत को ही बढावा देता रहता हूं। गुजराती जनतामें राष्ट्र भाषाका कोई विशेष विरोध कभी देखने नहीं मिला। उन्हे हिंदी आए, ना आए, पर विरोध नहीं है। मेरी एक पुस्तकका विमोचन भी वहां होगा।

      • प्रिय मधुसूदन जी,
        बहुत पप्रसन्नता की बात है कि आप इस विषय को और आगे बढ़ाना चाहते हैं।
        हमें विचार मन्थन कर एक दिशा निकालना है जिस पर चलकर कार्य किया जाए और भारत को उसकी गुलामी से स्वतंत्रता दिलाई जाए ।

        आपने साहस दिखलाया है यह कहकर कि गुजरात में हिन्दी‌प्रेम विशेष नहीं है यद्यपि विरोध भी‌नहीं है। यदि गुजराती साहित्य परिषद राष्टभाषा का मह्त्व मानकर उसे आगे बढ़ाए तो देश के लिये यह बहुत लाभकारी होगा।
        इस हेतु अपको विशेष शुभ कामनाएं।

      • मैण् आपकी पुस्तक के लोकर्पण के लिये शुभ कामनाएं तथा बधाई।
        पुस्तक का नमा क्या है?
        शुभ

  7. मधुसूदन जी
    इतना सटीक, जीवन्त और प्रभावी उदाहरण आपने दिया है कि हमारी गुलामी की मानसिकता स्पष्ट दिख जाती है। उन स्वागत करने वालों ने पूछने की आव्वश्यकता भी नहीं समझी, भइ वाह् !!
    धन्यवाद

    • विश्व मोहन जी —उस में कुछ ऐसा, संभवतः हुआ होगा, कि हार पहनाते समय, वे शायद(?) मान बैठे कि, दूसरा भी प्रॉफेसर ही है। कुछ भी हो, यह हमारी गुलामी ही दर्शाता है। मेरे एक प्रॉफेसर मित्रने यह सुनाया था।
      दूसरा उदाहरण एक नोबेल जीतनेवाले का है,जिसने भारत में कालेज तककी पढायी करने के बाद अपने नोबेल के लिए कोई श्रेय भारतको नहीं दिया। ऐसे कृतघ्न भी भारतीय हैं। कुछ लज्जा का अनुभव भी होता है।यह भी गुलामी है।
      मुझे विवेकानंदजी की, कही एक बात स्मरण हो रही है। देशभक्तोंको वे कहते हैं, कि –“हिंदू समाज के भलाई का काम, एक पागल को औषधि पिलाने का काम है। पागल औषधि लेता तो नहीं, उपरसे आपको थप्पड मारता है। यदि थप्पड खाने का साहस हो, तो आगे बढो, भारत माता आपकी राह देख रही है।”–
      इसी लिए कुछ पागलपन ओढे बिना, पागलों के(गुलामों के) बीच अपना मानसिक संतुलन भी टिकाना कठिन है। शुभेच्छाएं।

  8. घटी हुयी घटना:
    अमरिका से, एक प्रतिष्ठित भारतीय विज्ञानी, भारतके एक विश्व विद्यालय में कुछ प्रयोगोंको दिखाने के लिए गए । साथ एक सहायक अमरिकी को(High School पास Assistant Technician) जो उपकरणों की देखभाल, और साफ सफाई करने का काम करता था,ले गए। भारतीय सज्जन तो प्रतिष्ठा प्राप्त प्रॉफेसर थे।
    इनके स्वागत के लिए कुछ हार, पुष्प गुच्छ इत्यादि लेकर,कर्मचारियों को हवाई अड्डे पर भेजा गया था।
    अब, जब हमारे कर्मचारियों ने एक गोरा और एक काला देखा, तो उन्होने गोरे को ही प्रॉफेसर समझकर हार उसे ही पहना दिया। और सच्चे प्रॉफेसर को गुच्छ अर्पण किया। गोरा कुछ कहने जा रहा था, पर उसके उच्चारण किसीके शायद समझमें नहीं आए। === इसे क्या कहा जाए? कि हम अभी तक गुलाम ही हैं।

  9. जापान ने स्वतन्त्रता पाने के बाद कानवैंट स्कूलों को तुरंत बंद करवा दिया था क्योंकि उनकी नज़र में विदेशी भाषा अंग्रेज़ी पढाने वाले ये स्कूल देशद्रोह सिखाने काने का काम करते हैं. अंग्रेज़ी भाषा और कान्वेंट स्कूलों के खतरे की इस सच्चाई को अगर हम नहीं देख पा रहे तो यह मैकाले की शिक्षा की जीत है जो देश द्रोह और देश हित की समझ को समाप्त कर देती है.
    विद्वान लेखक श्री विश्व मोहन तिवारी जी के ह्रदय से निकले इस हृदयस्पर्शी लेख हेतु उनका अभिनन्दन.

    • आपके इस कथन में गहरा सत्य छिपा है कि विदेशी‌भाषा के स्कूल जैसे कान्वैन्ट या अनेक भारतीय स्कूल भी अन्तत: देश प्रेम और अपनी सम्स्कृति से प्रेम तो नहीं सिखाते

      • इसके अतिरिक्त, कान्वेंट शालाओ में गणित कच्चा रहता है।प्रादेशिक भाषाका (गुणन सारणि का) पहाड़ा त्वरित गुणाकारमें सहायक है। अंग्रेजी का
        मल्टिप्लिकेशन टेबल –विलंब करता है।(आप तुलना करके देख लीजिए)
        कालेज के, मास्टर्स पी. एच. डी के, अन्योंकी अपेक्षा, भारतीय छात्रोंकी सफलता का यह भी एक “घटक रहस्य”, मेरे निरिक्षण पर आधारित है।

  10. इस लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई मेरा आप जैसे प्रबुद्ध लेखकों से अनुरोध है की ऐसे ज्ञानवर्धक लेख अधिक से अधिक जगह प्रकाशित करवाने का प्रयत्न करें! आज नहीं तो आने वाले ५० वर्षों में हम लक्ष्य तक जरुर पहुंचेंगे.
    जय हिंदी! जय हिंद!! जय भारत!!!

    • अज्ञानी जी
      आपका सुझाव उत्तम है।
      मेरा प्रयत्न तो इसी दिशा में रहता है।
      मेरा विश्वास है किआप भी इसका प्रचार कर रहे होंगे

  11. यह शीर्षक स्वयं ही सबकुछ बयां कर रहा है..बहुत खूब.

  12. “जब तक ’अंग्रेजी’ राज रहेगा, स्वतंत्र भारत सपना रहेगा” by विश्वमोहन तिवारी
    (पूर्व एयर वाइस मार्शल)

    पहले शिक्षा मातृभाषा में फिर अंग्रेजी ।

    मेरा प्रश्न.

    यदि शिक्षा मातृभाषा और अंग्रेजी दोनों में, साथ-साथ, चलें तो इसमें क्या हानि है ? बहु – भाषी होना तो बेहतर ही है.

    तीन-भाषा फार्मूला तो चल ही रहा है.

    – आजका मेरे जैसे मध्यमवर्गी आर्य समाजी, जिसकी अपनी भाषा में आस्था है, बहुत कहनें पर भी, अपने परिवार को नहीं समझा सकता कि दयानंद पब्लिक स्कूल की बजाय दयानंद अंग्लो वैदिक स्कूल में बच्चओं का प्रवेश करा दिया जाये.

    • “यदि शिक्षा मातृभाषा और अंग्रेजी दोनों में, साथ-साथ, चलें तो इसमें क्या हानि है ? बहु – भाषी होना तो बेहतर ही है. ”
      आपका प्रश्न बहुत ही व्यावहारिक है, धन्यवाद

      शिशु शाला में जाने से पहले ही सैकड़ों शब्दों और उनसे संबद्ध वस्तुओं, जानवरों और घटनाओं को जानता है, और यह समय उसके बहुत तेजी से नए शब्दों तथा अभिधारणाओं सीखने के लिये उपयुक्त होता है। अब इस बीच यदि एक अनजान भाषा भी डाल दी जाए तब उसक समय उन अंग्रेज़ी शब्दों के रटने में लग जाएगा। और नए ज्ञान की प्राप्ति धीमी हो जाएगी। और उसके दिमाग में‌दो भाषाओं की व्याकरण गड्डमड्ड करेगी। नोम चोम्स्की एक विश्व प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी ने बतलाया है कि बालक बातें सुन सुन कर भाषा के व्याकरण का अपने आप मन में‌निर्माण कर लेते हैं। दो भाषाओं के एक साथ सीखने पर उसे व्याकरण सीखने में अधिक कठिनाई होगी, और गड़्डमड़्ड अलग ।

      दूसरी बात कच्ची उम्र में दो भाषा सिखाने से उसकी‌भाषा मे बोलचाल में दोनों भाषाओं के शब्द भी गड्डमड्ड होंगे, वह कोई भी‌भाषा शुद्ध नहीं बोल पाएगा।

      तीसरे, चूंकि उसके जीवन के अधिकांश अनुभव अंग्रेज़ी भाषा में‌नहीं हो रहे हैं, वह अंग्रेज़ी तो रटकर ही सीखेगा।

      यही विदेषी भाषा यदि उसे लगभग बारह वर्ष की उम्र में सिखाई जाए तब उसका अपनी मातृभाषा पर इतना अधिकार तो हो जाएगा कि व्याकरणों की गड्डमड्ड नगण्य हो जाएगी। किन्तु बारह वर्ष के बाद की आयु में वह स्वयं ही विदेशी भाषा में वाक्य बनाकर अन्य मित्रों से बात भी कर सकेगा।

      शिक्षा यदि ज्ञात से अज्ञात की ओर दी‌जाए तो बेहतर होती है। लगभग बाररह वर्ष की आयु तक ज्ञात की मात्रा इतनी हो जाती है कि अंग्रेज़ी सीखने में सहायता मिलती‌है।
      एक और मह्त्वपूर्ण बात है – बाल्यावस्था में हम जिस भाषा को अधिक मह्त्व देते हैं, जो हम लोग अंग्रेज़ी कोदेते हैं, वह सोच पर हावी हो जाती है, उसकी श्रेष्ठता भी स्थापित हो जाती है। वह बालक एक ओर तो अपनी‌मातृभाषा के प्रति और उनके बोलने वालों के प्रति हीन भावना से ग्रस्त होता है, और दूसरे वह अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम नहीं बढ़ा पाएगा और इसके परिणामस्वरूप अपनी संस्कृति के प्रति भी हीन भावना रखते हुए पश्चिम को ही श्रेष्ठ मानेगा।
      विषय लम्बा है. इस समय इतना ही पर्याप्त होगा।
      पुन: धन्यवादद

  13. अंतर राष्ट्रीय कूटनीति की पुस्तकें, गुलामी के मति भ्रम का(ब्रेन वाशिंग)एक निकष देती हैं, कि वह इतना सफल हो, कि गुलाम को पता भी ना चले, कि वह गुलाम हो चुका है। इस को पता करने की, एक छोटी परीक्षा कुछ निम्न प्रकारकी है। यह परीक्षा हर बिंदुपर परिपूर्ण नहीं है, फिर भी इससे स्थूल रूपसे आप को आप गुलाम है, या नहीं इसका पता चलता है, ऐसा मैं मानता हूं।(आप इससे अलग मत भी रखते हो, फिर भी मुझे यह उपयुक्त प्रतीत होती है।) सही उत्तर ही दिखाये हैं। (हां) और (ना )से सूचित किए है। आप अपने आप देख ले कि आप कितने गुलाम हैं? प्रामाणिकतासे उत्तर दें। हममें कोई भी पूरा का पूरा गुलाम नहीं है। पर कुछ कुछ तो हर कोई पर परिणाम हुआही है। मॅकॉले बहुत ही सफल हुआ था, कि ६३ वर्षॊके बाद भी भारतवासी गुलाम है, लेकिन उसे पता तक नहीं है।स्मरण से मैंने प्रश्न मालिका प्रस्तुत की है। पढें,
    (१) क्या आपको अपनी संस्कृति के प्रति (सक्रिय) गौरव अनुभव होता है?(हां)
    (२) आपके मालिक (अंग्रेज) की संस्कृतिके प्रति आदरभाव है?(ना)
    (३)क्या आपके मित्र आपको देश के प्रति निष्ठावान मानते हैं?(हां)
    (४) क्या आप काले/सांवले रंग को हीन मानते हैं?(ना)
    (५) क्या आप गोरी चमडी से ही( यह “ही” महत्वका है) सुंदरता की कल्पना कर सकते हैं?(ना)
    (६) क्या आप अपनी भाषामें व्यवहार करने में हीनता का अनुभव करते हैं?(ना)
    (७) क्या आप आपकी (हिंदी) में गलती होनेपर शर्म अनुभव करते हैं?(हां)
    (८) अंग्रेजीमें गलती करनेपर शर्म अनुभव होती है?(ना)
    (९)क्या, आपको अपने धर्म/संस्कृति के विषय में जानकारी है, ऐसा आपके मित्र मानते हैं। और उस विषयमें आप कुछ अध्ययन करते रहते हैं? (हां)
    आपको अनुमान हो गया होगा, कि गुलाम को कैसे पहचाना जाता है।

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