उपचुनावः पराजित दलों को मिली संजीवनी

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प्रमोद भार्गव

उपचुनाव के आए नतीजों ने तय कर दिया है कि कोई भी कामयाबी स्थायी नहीं होती। अलबत्ता इन परिणामों ने लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित दलों को जो संजीवनी दी है,वह उर्जा का काम करेगी और आने वाले महीनों में जिन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं,उनमें जीत के लिए राजग गठबंधन को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। यह संजीवनी फिलहाल तो बिहार में धुर विरोधी रहे नितीश कुमार और लालूप्रसाद यादव की तात्कालिक गोलबंदी का परिणाम हैं,लेकिन भविष्य में इस गठबंधन में सपा,बसपा,व अन्य राजनीतिक दल जुड़ गए तो नरेंद्र मोदी के रथ की जिस लगाम को नितीश-लालू की जोड़ी ने थाम लिया है,वह आगे बढ़ने वाला नहीं है। लिहाजा मोदी को आत्म-निरीक्षण करना होगा कि उन्होंने जो उम्मीदें जगाई थीं,उन्हें पूरा करने में कहां चुकें हो रही हैं।

चार राज्यों में 18 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजे,लोकसभा चुनाव में मिली शानदार सफलता को दोहराने में भाजपा नाकाम रही। बिहार की 10,मध्यप्रदेश की 3,कर्नाटक की 3 और पंजाब की 2 सीटों पर उपचुनाव के नतीजों में बिहार में राजद-दजयू-कांग्रेस गठबंधन ने 10 में से 6 सीटों पर जीत दर्ज कराई है। जबकि भाजपा महज 4 सीटें ही जीत पाई। मध्यप्रदेश की 3 सीटों में से 2 आगर और विजय राघवगढ़ में भाजपा ने विजयश्री प्राप्त की तो बहोरीबंद विधानसभा सीट कांग्रेस ने कब्जा ली। कर्नाटक में कांग्रेस ने 2 बेल्लारी और चिक्कोली में विजय दर्ज की,वहीं भाजपा महज शिकारीपुर सीट मामूली अंतर से जीत पाई। जबकि यहां से भाजपा के उम्मीदवार पूर्व मुख्यमंत्री योदियुरप्पा के बेटे वीवाई राघवेंद्र थे। इसीलिए भाजपा उनसे भारी मतों से जीत की उम्मीद कर रही थी। पंजाब की पटियाला सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई है। वहीं तलवंडीसाबो सीट पर राजग के सहयोगी अकाली दल ने जीत हासिल की है। इस तरह से कुल 18 में से 7 पर भाजपा,5 पर कांग्रेस,3 पर राजद,2 पर जदयू और एक सीट पर अकाली दल को जीत मिली है। तय है,भाजपा के उछाल का ग्राफ तीन माह में ही गिरने लगा है।

इनमें सबसे ज्यादा भाजपा को हैरानी में डालने वाले राजनीतिक हालात का निर्माण बिहार में हुआ है। भाजपा भी यहीं के उपचुनाव को लेकर ज्यादा सतर्क थी। क्योंकि मोदी के केंद्रीय व्यक्तिव के रूप में उभरने से पहले तक नितीश कुमार और उनका जनता दल राजग का हिस्सा था। लिहाजा भाजपा की बिहार में हर संभव कोशिश थी कि नितीश और उनका दल उपचुनाव में जीत का परचम न फहराने पाए। लेकिन परिणामों ने लालू-नितीश की जोड़ी को न केवल राजनीतिक संजीवनी देने का काम किया है,बल्कि इस गठबंधन को महागठबंधन में बदलने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया है।

हालांकि फिलहाल कांग्रेस इस गठबंधन में षामिल है। लालू-नितीश की जोड़ी ने भाजपा विरोधी मतदताओं को ध्रुवीकृत करने का काम कर दिया,जबकि लंबे समय से इन दलों के सर्मथर्कों के बीच ईश्र्या और विद्वेश के तल्ख भाव गहरा रहे थे। यदि इन दलों में परस्पर यही सामंजस्य बना रहता है तो समाजवादी विचारधारा के ये नेता मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और वामपंथी दलों को भी अपने गठबंधन का हिस्सा बनाने की कामयाबी की ओर बढ़ सकते हैं। इस नजरिए से मुलायम,बसपा प्रमुख मायावती से सहयोग का निवेदन भी कर चुके हैं। फिलहाल मायावती ने पुराने कटु अनुभवों के चलते मुलायम के साथ किसी भी राजनीतिक सहयोग से इनकार कर दिया है। लेकिन राजनीति में कोई भी हां या न स्थायी नहीं होती है। लिहाजा-मंडल-कमडंल की राजनीतिक पृष्ठभूमि से उभरे दल राजनीतिक स्वार्थ के चलते कब क्या गुल खिला दें,साफ-साफ कयास कोई भी राजनीतिक विषलेशक नहीं लगा सकते ? लालू-नितीश के एका का भी मोदी के राजनीति केंद्र में आने से पहले और लोकसभा चुनाव में जद व जदयू की पराजय से पहले अंदाजा लगाना मुश्किल था ? लेकिन अब तय हो गया है कि बिहार में अगामी जो विधानसभा चुनाव होंगे,उन्हें यह जोड़ी मिलकर लड़ेगी।

कर्नाटक में भी भाजपा को करारा झटका लगा है। यहां कांग्रेस ने भाजपा के बेल्लारी जैसे मजबूत गढ़ में सेंधमारी कर दी। जबकि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल करते हुए 17 सीटें जीती थीं। कांग्रेस महज 9 सीटों पर सिमट गई थी। अब कांग्रेस ने 2 सीटें जीतकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा दी। जबकि यहां बिहार की तरह कोई नया गठबंधन नहीं उभरा था। भाजपा शिकारीपुर सीट भी जीत पाई तो इसलिए क्योंकि वहां से पूर्व मुख्यमंत्री और कर्नाटक भाजपा के कद्दावर नेता येदियुरप्पा के बेटे राघवेंद्र चुनाव लड़े थे। बावजूद जीत का अंतर कम रहा। इधर मध्यप्रदेश में भी मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान का जादू कोई असर नहीं दिखा पाया। कांग्रेस भाजपा से बहोरीबंद सीट छीनने में सफल रही। यहां व्यावसायिक परीक्षामंडल घोटाले के उजागर होने के बाद भाजपा लगातार बेअसर हो रही है। खुलेआम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में भी प्रदेश सरकार कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही। कांग्रेस के तेज-तर्रार प्रदेश अध्यक्ष सत्यदेव कटारे के द्वारा विधानसभा में उठाए सवालों के बरक्ष भाजपा के मुहं चुराने से मतदाता का मोहभंग होने लगा है। हालांकि पटियाला में राजग के सहयोगी अकाली दल ने जीत हासिल करके अपनी लाज बचा ली है।

बहरहाल लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल जिस तरह से निराश और दिशाहीन दिख रहे थे,उन्हें उपचुनाव के नतीजों ने दिशा,दृश्टि और संजीवनी देने का काम कर दिया है। जिसके परिणाम कालांतर में नए राजनतिक समीकरणों और गठबंधनों के रूप में उपजेंगे। इसलिए भाजपा को आत्ममंथन करने की जरूरत है कि महज तीन माह सत्ता संभालने के भीतर ही ऐसा क्या हो गया कि मतदाता उसे हार का स्वाद चखाने लग गए ? इस लिहाज से मंहगाई का उत्तरोत्तर बढ़ना तो एक कारण है ही,वे युवा मतदाता भी एक बड़ा कारण है,जिनके जेहन में मोदी ने उम्मीदें जगाई थी। इन उम्मीदों पर मोदी सरकार ने जब पानी फेर दिया,तब उसने संघ लोक सेवा आयोग की सी-सैट परीक्षा प्रणाली के संदर्भ में कोई ठोस निर्णय नहीं लिया। साथ ही आंदोलनकारी परीक्षार्थियों को पुलिस बल की मनमानियों का शिकार भी होने दिया। यही नहीं   तमाम छात्रों पर आपराधिक मामले भी थोप दिए गए। इस आंदोलन में सबसे ज्यादा भागीदारी बिहार के छात्रों की थी। याद रहे आज समाजवादी पार्टी के जो अग्रणी नेता बिहार और उत्तरप्रदेश की राजनीति के सिरमौर हैं,वे अंग्रेजी विरोध और मंडल आयोग की सिफारिशो को लागू कराने के आंदोलनों की पृष्ठभूमि से ही खड़े हुए हैं। जाहिर है इस आंदोलन को टालने के दुष्परिणाम भाजपा को आगे भी झेलने पड़ सकते हैं। क्योंकि 24 अगस्त को यूपीएससी की जो परीक्षा संपन्न हुई है,उसमें एक बार फिर से हिंदी व क्षेत्रीय भाशाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले परीक्षार्थियों के साथ छल व विश्वासघात हुआ है। अंग्रेजी में मूल रूप से बनाए गए प्रश्न-पत्र को हिंदी में जो गूगल से अनुवाद किया गया है,वह प्रश्न-पत्र बनाने वाले विशेषज्ञों की समझ में भी आने वाला नहीं है। बहरहाल ये परिणाम भाजपा के लिए संदेश है कि वह बुलैट ट्रेन जैसे ख्वाब दिखाने की बजाय मंहगाई पर नियंत्रण और सी-सैट जैसे मुद्दों का कारगर हल खोजे। अन्यथा हरियाणा,झारखंड और महाराष्ट्र में होने जा रहे चुनावों में उसे ऐसे ही परिणामों से रूबरू होना पड़ सकता है

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  1. वास्तव में लोकसभा चुनावों के बाद पहले उत्तराखंड में और अब बिहार और कर्णाटक में भाजपा को उपचुनावों में लगे झटके भाजपा विरोधी दलों की जीत कम है.ये भाजपा के कायकर्ताओं की शिथिलता का परिणाम अधिक है.लोकसभा चुनावों में जिन क्षेत्रों में पेंसठ से सत्तर और पिचहत्तर प्रतिशत मतदान हुआ था उन क्षेत्रों में विधानसभा के उपचुनावों में केवल पेंतालिस प्रतिशत मतदान हुआ है.लोकसभा चुनावों में सभी का जोर अधिक से अधिक मतदान कराने पर था. लेकिन विधानसभा उपचुनावों में इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया.जिन लोगों ने लोकसभा चुनावों में मोदीजी के नाम पर भाजपा को वोट दिया था उन्हें प्रेरित करके मतदान केंद्र तक पहुँचाने में भाजपा कार्यकर्त्ता असफल रहे या अधिक आत्मविश्वास के कारण वो शिथिलता का शिकार हो गए. लोकसभा चुनावों में बाबा रामदेव जी, भारत स्वाभिमान,श्री श्री रविशंकर जी महाराज के अनुयायी, इस्कॉन के कार्यकर्ता, आर्य समाज आदि अनेकों ऐसे संगठन थे जिन्होंने अधिक मतदान के लिए सक्रीय होकर कार्य किया और नतीजतन मतदान प्रतिशत सत्तर और अस्सी प्रतिशत तक गया.जिसका लाभ भाजपा को मिला. लेकिन विधान सभा उपचुनावों में न तो ये संगठन सक्रीय हुए, न ही भाजपा के कार्यकर्ताओं ने इनसे संपर्क करके इनका सहयोग लेने का कोई प्रयास किया और न ही संघ के स्वयंसेवक उस उत्साह से उपचुनाव में सक्रीय हुए जिस प्रकार लोकसभा चुनावों में हुए थे.अगर ऐसा ही रहा तो न केवल उत्तर प्रदेश में होने वाले उपचुनावों में बल्कि महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में भी भाजपा को संभावित और अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायेगी दिल्ली और झारखण्ड में भी यही हश्र होगा.अभी भी समय है.संभल जाएँ तो अच्छा होगा.वर्ना केवल मोदी जी का नाम जपने से हर बार वैतरणी पार नहीं होगी.ध्यान रखे की जिस प्रकार किसी समय गैर कांग्रेसवाद के आधार पर विभिन्न विचारधारा और कार्यक्रम वाले दल एक साथ खड़े होकर साँझा मोर्चा बनाकर टक्कर लेते थे वही स्थिति आज गैरभाजपावाद की होने जा रही है.लेकिन संगठन और कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण के स्तर पर कुछ होता नहीं दीख रहा है.उलटे उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में तो सभी बड़े नेता आपस में टकराव ही करते दिखाई देते हैं.

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