राजनीति

उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न एक बड़ा सवाल

अखिलेश आर्येन्दु

उत्तर प्रदेश में मायावती को सत्तासीन करने वाला दलित वर्ग आज भी उसी तरह उत्पीड़ित और शोषित है जैसे चार साल पहले था। इसके बावजूद वह मायावती को अपना नेता मानता है और बसपा के नाम पर मर मिटने के लिए हमेशा तैयार रहता है। दलित वर्ग में पैदा होने के कारण मायावती को अपना नेता मानने की वजह के तमाम कारण हैं। इनमें एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि सदियों से हो रहे दलित उत्पीड़न से इस वर्ग को मायावती ही बचा सकती हैं। लेकिन सत्ता में आने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न घटने के बजाय बढ़ा ही है । यह प्रतिपक्ष का आरोप तो है ही, उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने भी लगाए हैं। जाहिरातौर पर प्रतिपक्ष की बात मायावती सरकार यह कहकर खारिज करती रही है कि ये आरोप महज सरकार को बदनाम करने के मद्देनजर लगाए गए हैं। लेकिन पी.एल. पुनिया की चिंता को किस आधार पर खारिज किया जा सकता है? दरअसल, मायावती जिस वर्ग के बूते सत्ता सुख भोगती रहीं हैं उस वर्ग को आज तक उत्तर प्रदेश में वह सम्मान और सहायता नहीं मिल पाई जो मिलनी चाहिए थी। उसका कारण यह है कि दलित उनकी नजर में एक ठोस वोट बैंक है जिसका सत्तासीन होने के लिए बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता है । राजनीति अब न तो विचारधारा से संबध्द है और न तो कमजोर वर्गों की सेवा करना ही उसके मकसद में शामिल है। इस लिए सत्ता में आते ही सभी दल उसी ढर्रे पर चलने लगते हैं जैसे अन्य दल चलते हैं। उत्तर प्रदेश में जो दलित कभी बाबू जगजीवन राम और फिर कांशी राम को अपना मसीहा मानता था आज मायावती को मानता है । लेकिन महज मानने से मसीहाई गुण किसी में नहीं आ जाते हैं। बाबू जगजीवन राम और मान्यवर कांशी राम वाकई में दलितों की बदत्तर स्थिति पर चिंतित रहते थे। वे चाहते थे देश का दलित हर स्तर पर जागरूक और विकास के रास्ते पर आगे बढ़े। दलितों की समस्याओं, उनकी स्थितियों और सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने करीब से देखा और समझा था। इसलिए दलित वर्ग के वे चहेते बने थे। लेकिन मायावती हमेशा से दलितों को एक स्थिर वोटवैंक के रूप में इस्तेमाल करती रहीं हैं। यदि उन्होंने दलितों डॉ. अम्बेडकर और अन्य दलित वर्ग में पैदा होने वाले समाज सुधारकों को अपनी पार्टी का आदर्श बनाया तो भी उसके पीछे एक सोची-समझी नीति थी। और यदि उन्होंने गांधी और नेहरू को गालियां दी तब भी उनका एकमेव मकसद सियासत करना ही था। पिछले चुनाव में मायावती जब सत्ता में आईं तो उन्होंने ब्राह्मण और दलित के वोट बैंक को इस्तेमाल करने के मद्देनजर जो सियासत खेली उसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया। मीडिया ने भी इस तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग का मुलायम विरोध में खूब प्रचारित-प्रसारित भी किया था।

 

कांशी राम जब तक जीवित रहे उन्होंने आर्थिक रूप से उच्च जातियों को अपनी पार्टी में शामिल नहीं किया। उनका मानना था कि इससे पार्टी का दलित और पिछड़ों के उत्थान का उद्देश्य प्रभावित होगा। जाहिरातौर पर कांशी राम जिस ब्राह्मण वर्ग को अपने पार्टी से हमेशा दूर रखने का ऐलान किया था, और मायावती भी दहाड़कर कांशी राम की तरह डीएस-4 को जूते मारने की बात करती थी वही मायावती कांशी राम के मरते ही अपने तेवर को निज स्वार्थ में मोड़ते हुए अपने पार्टी के उच्च पदों पर आसीन कर दिया। यहां तक कि महासचिव पद भी सतीश मिश्रा नाम के जन्मगत ब्राह्मण को सौंपा गया, और कहा गया कि इससे सदियों से चली आ रही ब्राह्मण और दलित के भेदभाव को कम करने में मदद मिलेगी। लेकिन यह सब महज एक नाटक से कम नहीं था। हिन्दू समाज में जाति-पांति की दीवारें इतनी मजबूत है कि महज राजनीति के नाम पर यह टूट जाए, पूरी तरह से सच को नकारने जैसा है । दलित और ब्राह्मण की दीवारें इतनी गहरी हैं कि महज सोशल इंजीनियरिंग से धराशायी जाए, असम्भव है । गांवों और कस्बों में राज्य में जो दलित उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं उनसे से 95 प्रतिशत उच्च वर्ग के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है । अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी. एल पुनिया ने पिछले दिनों दलितों के उत्पीड़न से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत किए हैं। लेकिन मायावती सरकार ने पुनिया के सभी आरोप खारिज कर दिए। साथ ही आयोग पर झूठ तथ्य पेश करने का आरोप जड़ दिए। आयोग के मुताबिक मायावती के सत्तासीन होने के बाद दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुईं हैं। ये आंकड़े तो इसी बात की ओर इंगित करते हैं। आंकड़े के मुताबिक 2006 में प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ जहां बलात्कार की 240 घटनाएं थाने में दर्ज हुईं, वहीं 2007 में 318 और 2008 में यह आंकड़ा बढ़कर 375 हो गया। जाहिरतौर पर थानों में दर्ज कराए गए बलात्कार की रपट के अलावा हजारों की तदाद में ऐसी घटनाएं घटतीं हैं जो भय और लोकलाज की वजह से थानों तक पहंचती ही नहीं। मायावती की सरकार यदि आंकड़ों को ही दलितों के साथ हुए अत्याचार और व्यभिचार को आधार माने तो भी यह साबित तो हो ही जाता है कि उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ हर स्तर पर अत्याचार और बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई ही है । दरअसल, प्रदेश में सवर्ण और असवर्ण का भेदभाव और विरोध हर स्तर पर इतना गहरा रहा है कि उसको कुछ सालों में वोटबैंक की राजनीति के जरिए खत्म नहीं किया जा सकता है । इसके लिए तो कई स्तरों पर कदम उठाने होंगे। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं और आंदोलनों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होगी। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार दलितों को हर स्तर पर सुरक्षा का कदम उठाए ही, साथ ही जातीय आधार और धार्मिक आधार पर जो दीवारें सदियों से नफरत,र् ईष्या, जलन और गैर-इंसानी बर्तावों की खड़ी हुईं हैं उसे खत्म करने के लिए ऐसे कार्यक्रम बनाए जो दलित उत्पीड़न, शोषण और जुल्म को धराशायी कर सके। लेकिन पिछले चार सालों में राज्य सरकार ने दलितों के उत्थान और कल्याण के नाम पर जो किया है वह महज दिखावे के अलावा कुछ भी नहीं है। आज भी उत्तर प्रदेश का दलित सवर्ण जातियों का उत्पीड़न, शोषण और जुल्म सहने के लिए उसी तरह से अभिशप्त है जैसे चार साल पहले सहता था। दलित लड़कियों और महिलाओं को सवर्ण लोगों का मानसिक और शारीरिक तथा आर्थिक उत्पीड़न उसी तरह से सहना पड़ रहा है जैसे चार साल पहले सहना पड़ता था। दरअसल, मायावती सरकार दलितों में चेतना जगाने और समाज में उनकी हैसियत बढ़ाने की जो बात करती है वह महज बसपा के झंडे, बैनर और बूथों पर जाकर वोट देने और दिलाने तक ही सीमित है । मायावती चाहती ही नहीं कि दलितों में चेतना जगे और वे हर स्तर पर जागरूक होकर समाज में एक बेहतर स्थिति में आए। नहीं तो दलितों की जगह सवर्ण लोगों को ज्यादा भागीदारी और उनको आरक्षण देने की बात बार-बार न करतीं।

 

यह तय है कि जब तक डॉ. अम्बेडकर के दलित कल्याण को सही मायने में व्यवहार में बसपा सरकार नहीं अपनातीं तब तक दलितों का सही मायने में न तो कल्याण हो सकता है और न ही उनका उत्पीड़न ही रुक सकता है । हाथी के दांत जब तक दिखाने वाले और खाने वाले अलग-अलग रहेंगे, दलित चेतना और दलित उत्थान की बात करना बेईमानी के शिवाय क्या है?

 

* लेखक अन्वेषक तथा संपादन से जुड़े हैं।