उत्तर प्रदेश के चुनाव में अगड़ों की उपेक्षा

उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान जो एक बात स्पष्ट रूप से दिख रही है वो ये की आज ब्रह्मण, राजपूत और अन्य तथाकथित अगड़े हिन्दुवों के लिए सोचने वाला कोई नहीं है। चाहे सपा हो बसपा हो या कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ इन सबकी राजनीति बस मुस्लिमो और दलितों के इर्द गिर्द तथा उन्हें ही खुश करने तक ही सीमित हैं। इन कथित अगड़े वर्गों का वोट अगर एकमुश्त कहीं पड़ जाए तो शायद किसी भी पार्टी को सत्ता से दूर नहीं रखा जा सकता, लेकिन आज ऐसे हालात बने हुए हैं की ये वर्ग पूरी तरह बिखर गए हैं और इन वर्गों का प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने हिसाब से अपनी सोच के आधार पर अपना मतदान कर रहा है, जिससे न तो उसका स्वयं का भला होने वाला है ना ही उसके वर्ग का और सायद देश का भी नहीं, जो पार्टी इन वर्गों की बात करती थी तथा उनके लिए भी कम से कम कुछ आवाज तो उठाती ही थी, उसे मनुवादी या सांप्रदायिक कह कह कर इसतरह से प्रचारित कर दिया गया है की वो सायद खुद ही अपराधबोध से ग्रसित हो गयी है और अपनी छवि धर्म निरपेक्ष बनाने के चक्कर में अपना अस्तित्व ही खोती जा रही है। सायद आज इस पार्टी की नीतियां बनाने वाले ही इसकी जड़ें काटने में जुट गए हैं जो ये जानते हुए भी की मुस्लिमो का वोट उन्हें कभी भी नहीं मिल सकता ये अपने हिंदुत्व के और अन्य मुख्य मुद्दों से पीछे हटते जा रहे हैं जबकि इन्ही मुद्दों की वजह से ही इनकी पहचान थी, और दलित तथा यादव जैसे वोटर भी अपनी परंपरागत वोटिंग से हटकर इनके साथ जुड़ गए थे।

आज कथित अगड़े वर्ग का युवा भीतर ही भीतर आक्रोशित हो रहा है क्योंकि उसे लग रहा है की उसकी बात सुनने तथा उसके बारे में सोचने वाला अब कोई नहीं है यही आक्रोश अन्ना के आन्दोलन के समय में दिखा था जो स्वामी रामदेव के आन्दोलन को कुचलने की प्रतिक्रिया के रूप में भी था। उस समय तो वो भीड़ अनुशासित थी लेकिन उस आन्दोलन का हस्र देखकर लगता नहीं की आगे भी ऐसी भीड़ अनुशासित रहेगी। तत्कालीन सर्वे के अनुसार यदि तुरंत चुनाव हो गए होते तो उसका फायदा निश्चित रूप से बीजेपी को मिलता, पर बीजेपी उस रुझान को २-४ महीने भी अपने साथ जोड़कर न रख पायी, रही सही गत कुशवाहा काण्ड ने बिगाड़ दी।

जो बात बीजेपी के नेतावों को सीखनी चाहिए थी उसका उदाहरण उनकी स्वयं की पार्टी में ही है आज जितनी जगहों पर बीजेपी का शासन है वहां कम से कम एक व्यक्ति तो ऐसा है ही जिसकी सभी सुनते है चाहे गुजरात में नरेन्द्र मोदी, एम पी में शिवराज सिंह या बिहार में नीतीश कुमार आदि, इसके विपरीत यू पी में सबकी अपनी ढपली है और अपना राग जिसके मुह में जो आता है वो बक देता है। आखिर क्या कारण है की कल्याण सिंह के बाद कोई एक सर्वमान्य चेहरा यू पी में बीजेपी नहीं ढूंढ़ पा रही है? मेरे हिसाब से इसका सिर्फ एक ही उत्तर है सेकुलर बनने की चाहत, वर्ना यू पी में योगी आदित्यनाथ एक ऐसे व्यक्ति हैं जो सारे हिन्दुवों को एक साथ जोड़ने की क्षमता ही नहीं रखते बल्कि बीजेपी को उसका पुराना वर्चस्व यू पी में वापस दिलाने का दम भी रखते हैं रखते हैं, पर उन्हें बैकफुट पर धकेल दिया गया है। इसी तरह नरेन्द्र मोदी को भले ही अमेरिका तक प्रधानमंत्री बनने लायक बता दे महबूबा मुफ्ती तथा अन्य मुस्लिम  उनकी तारीफ़ करें पर खुद भाजपाई ये कहने से बचते हैं। इस पार्टी के अन्दर हो सकता है की मोदी से जो वरिष्ठ नेता हैं वो किसी डर या अहंभाव के कारण उनको आगे न आने देना चाहते हों परन्तु उन सबको ये सोचना ही चाहिए की बिना मोदी या उनके जैसी आक्रामक कार्यशैली के बीजेपी फिर से उन्ही २ सीटों पर सिमट जायेगी जहाँ से उसने शुरुवात की थी, क्योंकि इस पार्टी की पहचान आक्रामक राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और नैतिकता के नाते थी जिसे यदि हटा दिया जाय तो फिर कांग्रेस और बीजेपी में अंतर ही क्या है?

यू पी के बीजेपी समर्थक तथाकथित अगड़े इस पार्टी के हालात पर निराश हैं क्योंकि उसकी मज़बूरी है वो किसी और पार्टी से कुछ उम्मीद कर नहीं सकते और बीजेपी सत्ता से दूर ही दिख रही है। पिछली बार मायावती को मतदान करके ब्रह्मण भुगत चुके हैं, जबकि कांग्रेस और सपा मुस्लिम लीग में तब्दील हो चुकी है जिससे अगड़ा वर्ग जुड़ना नहीं चाहता पर मज़बूरी में स्वजातीय या अच्छा उम्मीदवार देखकर जुड़ रहा है जिससे किसी का व्यक्तिगत रूप में तो भला हो सकता है पर समाज, हिंदुत्व और देश का इन पार्टियों से नुक्सान ही हो रहा है।

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