ईश्वर का स्वभाव जीवों के सुख वा फलोभोग के लिए सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करना है। सृष्टि की रचना आदि का यह क्रम प्रवाह से अनादि है अर्थात् न तो कभी इसका आरम्भ हुआ और न कभी अन्त होगा, अर्थात् यह हमेशा चलता रहेगा। अपने इस स्वभाव के अनुसार ही ईश्वर ने वर्तमान समग्र सृष्टि को रच कर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को भी रचा और माता-पिता व आचार्य की भांति उनको अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करने और जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने के लिए चार वेदों का ज्ञान भी दिया। इन बातों को समझने के लिए हमें ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा यह प्रक्रिया समझ में नहीं आ सकती। ईश्वर की सत्ता सत्य है और यह सत्ता चेतन है। चेतन सत्ता, ज्ञान व गुणों से युक्त किसी क्रियाशील सत्ता को, जो सोच समझ कर व उचित-अनुचित का ध्यान रखकर कर्म वा क्रिया को करती है, कहते हैं। ईश्वर का प्रत्येक कार्य भी सत्य व न्याय पर आधारित होता है। ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव को जानना और उसके अनुसार ही अपना जीवन बनाना अर्थात् ईश्वर के गुणों के अनुरुप ही कर्म, व्यवहार व आचरण करने को धर्म, मानव धर्म व वैदिक धर्म कहते हैं। इसके अलावा जितने भी मत, सम्प्रदाय, पन्थ, सेक्ट, रिलीजन आदि हैं वह पूर्ण व शुद्ध धर्म नहीं हैं यद्यपि उनमें किसी में कम व किसी में कुछ अधिक धर्म का भाग होता है परन्तु उनमें धर्म की पूर्णता नहीं है। ईश्वर सत्य व चेतन स्वरूप होने के साथ आनन्दस्वरूप भी है। वह अनादि काल से अब तक सदा-सर्वदा आनन्द की ही स्थिति में रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक आनन्दपूर्वक ही रहेगा। इसका कारण उसका निष्काम कर्मों को करना है जिससे वह फल के बन्धन, सुख व दुःख, में नहीं आता। मनुष्य को निद्रा, सुषुप्ति, ध्यान व समाधि की अवस्थाओं में जो आनन्द प्राप्त होता है, वह ईश्वर के सान्निध्य के कारण ही होता है। जिस मात्रा में हमारी आत्मा का, मल, विक्षेप व आवरण की स्थिति के अनुसार, ईश्वर से सान्निध्य व सम्पर्क बनता है, उतनी ही मात्रा में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। समाधि में यह सम्पर्क सर्वाधिक होने से सर्वाधिक आनन्द की उपलब्धि होती है। ईश्वर के अन्य गुण, कर्म व स्वभावों में उसका सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वांधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों को जन्म देना, कर्मों के सुख-दुःखरुपी फल देना, आयु निर्धारित करना, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय करना आदि भी कर्म वा कार्य हैं। ईश्वर के इन गुणों पर चिन्तन-मनन करने सहित वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर से अधिकाधिक परिचित हुआ जा सकता है।
 ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक एक आदर्श माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य पूरा करता है और सभी प्राणियों की रक्षा के साथ मनुष्यों की बुद्धि की क्षमता के अनुसार अपना जीवन सुचारु व सुव्यवस्थित रुप से चलाने के लिए ज्ञान जिसे वेद कहते हैं, देता है। महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद सन् 1875 में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त एवं जन्म, जाति, मत व धर्म के पूर्वाग्रहों से रहित सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य वा धर्म है। अतः वेदों में मनुष्येां के लिए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए आदर्श सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा व्यवस्था आदि का विस्तृत व पूर्ण ज्ञान है जिसको वैदिक व्याकरण एवं ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के जानकार मनुष्य समाधि अवस्था को प्राप्त होकर न केवल उसे पूर्णतया समझते हैं अपितु अन्य लोगों के हितार्थ वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों की सरल भाषा व शब्दों में व्याख्या कर उसे प्रचारित करते हैं। यतः वेदों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का भी ज्ञान सम्मिलित है जिसका विस्तार ब्राह्मण एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण काण्ड 14 में ‘ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रर्वजेत्।।’ में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थी के बाद वानप्रस्थी और वानप्रस्थी के बाद संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से चार आश्रमों का विधान है। आज भारत व विश्व के प्रायः सभी देशों में इस सामाजिक व्यवस्था का कुछ विकृत रूप देखा जाता है। आईये, वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार चारों आश्रमों पर एक दृष्टि डाल लें।
 ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक एक आदर्श माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य पूरा करता है और सभी प्राणियों की रक्षा के साथ मनुष्यों की बुद्धि की क्षमता के अनुसार अपना जीवन सुचारु व सुव्यवस्थित रुप से चलाने के लिए ज्ञान जिसे वेद कहते हैं, देता है। महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद सन् 1875 में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त एवं जन्म, जाति, मत व धर्म के पूर्वाग्रहों से रहित सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य वा धर्म है। अतः वेदों में मनुष्येां के लिए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए आदर्श सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा व्यवस्था आदि का विस्तृत व पूर्ण ज्ञान है जिसको वैदिक व्याकरण एवं ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के जानकार मनुष्य समाधि अवस्था को प्राप्त होकर न केवल उसे पूर्णतया समझते हैं अपितु अन्य लोगों के हितार्थ वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों की सरल भाषा व शब्दों में व्याख्या कर उसे प्रचारित करते हैं। यतः वेदों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का भी ज्ञान सम्मिलित है जिसका विस्तार ब्राह्मण एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण काण्ड 14 में ‘ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रर्वजेत्।।’ में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थी के बाद वानप्रस्थी और वानप्रस्थी के बाद संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से चार आश्रमों का विधान है। आज भारत व विश्व के प्रायः सभी देशों में इस सामाजिक व्यवस्था का कुछ विकृत रूप देखा जाता है। आईये, वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार चारों आश्रमों पर एक दृष्टि डाल लें।
ब्रह्मचर्याश्रम-आयु का प्रथम व सबसे बड़ा भाग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काल शिक्षा, शरीरोन्नति और दीक्षा-प्राप्ति के लिए नियत है। शिक्षा जिसको अन्य भाषाओं में ‘‘तालीम” और “Education” कहते हैं, आत्मिक शक्तियों के विकास करने को कहते हैं। दीक्षा (तरबियत) = (Ins-truction) बाहर से ज्ञान प्राप्त करके भीतर एकत्र करने का नाम है। मनुष्य का शरीर तीन प्रकार के परमाणुओं से बना है (1) सत्य, (2) रजस् और (3) तमस्। इनमें से तम अन्धकार (Ignorance) को कहते हैं। मनुष्य श्रारीर में जब तमस् परमाणु बढ़ जाते हैं, तब अन्तःकरण पर अन्धकार का आवरण आ जाता है, जिससे मानसिक शक्तियों का विकास नहीं होता, किन्तु उसी अन्धकार के आवरण (परदे) से अन्धकार की ही किरणें निकलकर उसे मूर्ख बनाया करती हैं। ‘‘रजस्” अनियमित कर्तव्य (indisciplined activity) कहते हैं। नियमित कर्तव्य को धर्म और अनियमित कर्तव्य को अधर्म कहते हैं। जब ‘‘रज” के परमाणु मनुष्य में बढ़ जाते हैं तब यह भी आचरण रूप होकर आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक होते हैं। और बाहर विषय-भोग की कामना में प्रकट हुआ करतें हैं। “सत्व” प्रकाश को कहते हैं। जब सत्व के परमाणु मनुष्य में बढ़ते हैं तब अन्तःकरण में प्रकाश की मात्रा बढ़ती है, जिससे सुगमता से आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसलिए शिक्षा-प्राप्ति के लिए मनुष्य का यह कर्तव्य हुआ कि तम को दूर, रज को नियमित और सत्य की वृद्धि करे। इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए शक्ति (Energy) अपेक्षित होती है, यह शक्ति ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य से शक्ति किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य शरीर में जब भोजन कई कार्यों, क्रियाओं वा परिवर्तनों के बाद रेत (Albumen) में परिणत होता है और सुरक्षित रहता है तब उसमें क्रमशः अग्नि, विद्युत् व ओज गुण आते हैं। अन्त में वह वीर्य के रूप में हो जाता है। यही वीर्य मनुष्य के शरीर की शक्ति का केन्द्र है। इससे सम्पूर्ण शारीरिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न हुआ करती है। इसी वीर्योत्पत्ति और उसके सुरक्षित रखने की कार्यप्रणाली का नाम ब्रह्चर्य है। इस प्रकार मनुष्य को अपने जीवन के पहले भाग में जिसकी न्यून से न्यून अवधि 25 वर्ष है, ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए, सभी विद्याओं, ज्ञान व विज्ञान व इनके क्रियान्वित ज्ञान का अनुभव प्राप्त करना चाहिये, यही ब्रह्मचर्य का कर्तव्य विधान है।
गृहस्थाश्रम-सांसारिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना और नियत काल में विधि के अनुसार ईश्वर-उपासना एवं गृह के कर्तव्यों को करके सत्य धर्म में ही अपना तन-मन-धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति, उनका पालन करना व उन्हें योग्यतम बनाना, इन मुख्य कार्यों को करने को ही गृहाश्रम कहा जाता है। यही गृहस्थाश्रम है तथा यही इसके उद्देश्य व कर्तव्य हैं। इस आश्रम में रहते हुए स्त्री व पुरुषों को नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति सहित जीविका भी उपलब्ध करनी चाहिए और सन्तान को अपने से अच्छा बनाने का यत्न करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तपस्वी शूद्र अपने अपने कर्मों को करते हुए परिवार, समाज व देश को उन्नत व सशक्त बनाते हैं। गृहस्थाश्रम की अवधि सन्तानों का विवाह होने व उनकी सन्तान भी हो जाने तक है। इसके बाद जीवनोन्नति के लिए अगले आश्रम वानप्रस्थ में प्रवेश करना होता है।
वानप्रस्थाश्रम-गृहस्थाश्रम में रहने से जो विकार मनुष्य में उत्पन्न हो जाते हैं उनको दूर करके अपने को ब्रह्मचर्याश्रम वालों की भांति स्वच्छ बना लेना, इस आश्रम का मुख्योद्देश्य है। यही आश्रम संन्यासाश्रम में जाने की तैयारी का काम किया करता है। वानप्रस्थ आश्रम नाम से यह विदित होता है कि इस आश्रम में प्रवेश व निवास के लिए स्वगृह व परिवार से दूर वन में जाना है। आजकल वन में जाना व रहना कठिन व सम्भव कोटि में नहीं है। महर्षि दयानन्द ने तो युवावस्था से सीधे ही संन्यास ले लिया था और वह सारा जीवन देश का भ्रमण करते रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें ज्ञान की पिपासा थी और इसकी पूर्ति वन आदि किसी एक स्थान पर रहकर पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः वानप्रस्थ आश्रम ऐसे स्थान पर करना है जहां इस आश्रम के अन्य लोग हों और उन्हें ईश्वर के ध्यान व समाधि का क्रियात्मक प्रशिक्षण वेद के मर्मज्ञ विद्वानों व अपने सहाध्यायियों से भली प्रकार से मिल सके। वानप्रस्थ आश्रम में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व प्रातः सायं यज्ञ की व्यवस्था भी होनी चाहिये जिनकी संगति व अनुष्ठान करके वानप्रस्थी संन्यास के सर्वथा योग्य बन सकें। इसी क्रम में हरिद्वार-ज्वालापुर में स्थित ‘‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम” की चर्चा कर लेना भी उचित होगा। यह आश्रम सम्प्रति नगर के बीच में स्थित है। यहां सैकड़ों वानप्रस्थी व संन्यासी रहते हैं और अच्छे साधकों से भी यह स्थान परिपूर्ण है। यदि यहां रहकर वानप्रस्थ किया जाये, तो हमारी दृष्टि में वह भी उद्देश्य को पूरा करने में सहायक व फलितार्थ हो सकता है।
संन्यासाश्रम–मनुष्य को वानप्रस्थ से अन्तिम संन्यासाश्रम में आकर मुक्ति के साधनों को काम में लाते हुए जगत् के सुधार का भी यत्न करना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि संन्यास आश्रम में प्रविष्ट मनुष्य मोहादि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण करे। यहां विचरण करने से तात्पर्य अविद्यान्धकार, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रतिकार व प्रतिवाद कर वेद व आर्ष-ज्ञान का प्रचार करे तथा असत्य मत व मान्यताओं का खण्डन भी करें जिससे समाज व देश के सभी मनुष्य असत्य व अज्ञान से पृथक होकर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को धारण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। महर्षि दयानन्द वैदिक मान्यताओं के अनुरुप आदर्श संन्यासी थे। उन्होंने अपने संन्यासी जीवन में ईश्वरोपासना करते हुए ज्ञान का अर्जन किया और समाज के कल्यार्थ वा सुधारार्थ असत्य व अज्ञान का खण्डन करते हुए सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का मण्डन व प्रचार किया। इसका अनुकरण करना ही संन्यास का सच्चा स्वरुप व उदाहरण माना जा सकता है।
वैदिक धर्म में चार आश्रमों व चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान मनुष्य की पूर्ण व अधिकतम शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक विधानों से पूर्ण यह आश्रम व्यवस्था ही संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसमें सभी मनुष्यों की सांसारिक व पारलौकिक दोनों ही उन्नति होती है। यह लक्ष्य अन्य किसी जीवन पद्धति से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस व्यवस्था व इसके अनुरुप जीवन व्यतीत करने से मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के निकट पहुंच कर उसे प्राप्त करने में समर्थ होता है। आईये ! वैदिक वर्ण-आश्रम व्यवस्था को स्वयं अपनायें व उसका प्रचार कर इसे सर्वत्र स्थापित करने का प्रयास करें।
