‘वेद पारायण व बहुकुण्डीय यज्ञों का औचीत्य और प्रासंगिकता’

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 आर्य जगत की पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से समय-समय पर ज्ञात होता है कि अमुक-अमुक स्थान पर बहुकुण्डीय यज्ञ हो रहा है व कहीं किसी एक वेद और कहीं चतुर्वेद पारायण यज्ञ हो रहें हैं। यदा-कदा यह सुनने को भी मिलता है कि किसी स्थान पर एक विशाल यज्ञ हो रहा है जिसमें लाखों व करोड़ों आहुतियां दी जायेंगी तथा कई महीनों चलने वाले उस यज्ञ में मनों व टनों शुद्ध गोधृत व विशेष रूप से तैयार की गई हवन सामग्री से हवन किया जायेगा। हम इन यज्ञों को करने वाले याज्ञिक बन्धुओं की भावनाओं का हृदय से आदर करते हैं परन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या यह सब यज्ञ वेदसम्मत, महर्षि दयानन्द सम्मत, प्रासंगिक, समयानुकूल व उचित हैं? यह तथ्य है कि यज्ञों में विकार आने के कारण ही महाभारत के बाद मध्यकाल में वैदिक धर्म का पतन हुआ था। आजकल किये जाने वाले इन वेदपारायण व अन्य वृहत्त यज्ञों का भी आगामी दशाब्दियों व शताब्दियों बाद यही रूप रहेगा या और अघिक श्रृगांर को प्राप्त होकर इनमें भी मध्यकालीन यज्ञों की भांति विकृतियां आयेंगी और यह यज्ञ सामान्य लोगों से दूर हो जायेगें। एक प्रश्न यह भी है कि क्या महाभारत काल व उससे पूर्व इस प्रकार के यज्ञ होते थे अथवा नहीं? आईये, इस पर निष्पक्ष विचार करते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अनेक ग्रन्थ लिखें है। पूना में दिये उनके 15 प्रवचनों का संग्रह भी उपलब्ध है। उनके जीवन चरित्र से भी उनके जीवन की घटनाओं व विचारों का पता चलता है। हमने प्रायः उनके सभी ग्रन्थों को देखा व पढ़ा है। वैदिक साहित्य में परिगणित अन्य अनेक ग्रन्थों को पढ़ा है जिनमें यज्ञ विषयक ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं। हमें कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिला कि महाभारतकाल व उसके बाद आर्य समाज की स्थापना तक वेद पारायण यज्ञ भारत में कहीं होते थे। बहुकुण्डीय यज्ञ का प्राचीन विधान भी कहीं देखने, सुनने व पढ़ने को नहीं मिला। गायत्री मन्त्र या अन्य किन्हीं मन्त्रों से सहस्र, सहस्राधिक या लक्ष आहुतियां देने वाले यज्ञों का वर्णन भी नहीं मिला। वेदों के किसी मन्त्र से भी ऐसा आभाष नहीं होता। अतः प्रतीत होता है कि इस प्रकार के यज्ञ आर्य याज्ञिकों की अपनी सोच व ऊहा का परिणाम हैं। इनसे जो लाभ होते हैं वह तो विचार कर जाने जा सकते हैं परन्तु हानि यह हो रही लगती है कि वेदों का जन-जन में जो प्रचार महर्षि दयानन्द करना व करवाना चाहते थे, जिसका विधान उन्होंने आर्य समाज के तीसरे नियम में किया है, उस कार्य के क्रियान्वयन में कुछ न कुछ बाधा उपस्थित हो रही है। जिन लोगों को जन-जन में प्रचार करना था वह वृहत यज्ञों की योजनायें बनाने, उनके क्रियान्वयन व उसमें होने वाले व्यय हेतु धन व अन्य साधनों के संग्रह में ही अपना पर्याप्त समय व्यतीत करते हैं। इससे जो समय बचेगा, उसी में तो वेद प्रचार होगा। हमें लगता है कि इस प्रकर के वृहत यज्ञों के कारण भी आर्य नेताओं, विद्वानों, याज्ञिकों व कार्यकत्ताओं का ध्यान वेद प्रचार से हट कर वृहत वेद पारायण आदि यज्ञों में लगा हुआ है। यह भी उल्लेखनीय है कि यज्ञ न करने वाले धर्म प्रचारकों की संख्या आशातीत बढ़ती जा रही है तथा हमारी संख्या सीमित या घट रही है।

 

महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज को पंचमहायज्ञ विधि और संस्कार विधि, यह दो ग्रन्थ कर्मकाण्ड के दिये हैं। पंचमहायज्ञ विधि में दैनिक यज्ञ-अग्निहोत्र की विधि दी गई है। यज्ञ से लाभ व न करने पर होने वाली हानि के विषय में भी उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश, पूना प्रवचन आदि ग्रन्थों में प्रकाश डाला है। दैनिक यज्ञों के अतिरिक्त संस्कार विधि में सोलह संस्कारों सहित विशेष यज्ञों का प्राविधान किया है जिसमें अमावस्या व पूर्णिमा पर किये जाने वाले पक्षेष्टि यज्ञ भी सम्मिलित हैं। यज्ञों पर इतना अधिक लिखने पर भी उन्होंने कहीं यह संकेत नहीं किया कि यदि कोई विद्वान वा यज्ञप्रेमी वृहत यज्ञ करना चाहे तो वह वेद पारायण यज्ञ करे व करवाये अथवा बहुकुण्डीय यज्ञ आदि करे व करवाये। महर्षि दयानन्द का ध्यान इस बात पर केन्द्रित दिखाई देता है कि यज्ञ में स्वच्छता हो, सरलता हो, जटिलता समाप्त हो, किसी भी प्रकार की हिंसा न हो, वातावरण पूर्ण धार्मिक हो, यज्ञ अल्प समय, अल्प साधनों व व्यय कर सम्पन्न हो सकें, निर्धन भी प्रतिदिन दोनों समय यज्ञ कर धर्म लाभ प्राप्त कर सकें जिससे अधिक से अधिक यज्ञ होने से देश व प्रजा का उपकार व हित हो। हमारा अनुमान है कि यज्ञों का प्रावधान घर्मसूत्रों, गृह्यसूत्रों तथा श्रौतसूत्रों में मिलता हैं। उनमें भी आर्य जगत में प्रचलित आजकल किये जाने वाले वृहत् यज्ञों की भांति महायज्ञों के करने-कराने का विधान नहीं है। अतः इस विषय पर सभी आर्य विद्वानों, विचारकों, चिन्तकों एवं याज्ञिकों द्वारा विचार किया जाना समीचीन है।

 

वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। हमारे सभी कार्य, उपासना एवं अन्य कर्मकाण्ड इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाये गए हैं। प्राचीन काल से यह यज्ञादि कर्मकाण्ड किए जाते आ रहें हैं एवं वर्तमान समय में भी इन्हें करना चाहिये। जीवन का उद्देश्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्त होने व इसकी प्राप्ति होने पर उद्देश्य पूरा हो जाता है। दर्शनकार कहते हैं कि मनुष्य को उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहिये। ईश्वर साक्षात्कार से मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है जिसका परिणाम इसी जन्म या आगामी एक या कुछ जन्मों के बाद भोगतव्य कर्मों को भोगने के बाद मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अशुभ कर्म तो सभी को भोगने ही होंगे। इन भोगों के समाप्त व शेष न रहने पर ही उपासना द्वारा ईश्वर-साक्षात्कार होने पर मुक्ति वा मोक्ष प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर साक्षात्कार के साधन सन्ध्या के उपस्थान मन्त्रों में यह भी लिख दिया कि है कि हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृप्या अनेन जपोपासनादि कर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवनेनः अर्थात् हे दया के भण्डार परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे अनेकानेक जपउपासना आदि कर्मों के आधार पर हमें धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की आज ही सिद्धि प्राप्ति कराईये। यज्ञ में वह स्विष्टकृदाहुति तथा पूर्णाहुति का प्रावधान करते हैं। इनमें ईश्वर से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की बात नहीं कही गई है। यदि प्राजापत्याहुति की भी बात करें जिसे मौन होकर दी जाती है तो वहां भी यह कहा जाता है कि कि प्रजा के स्वामी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए यह आहुति देते हैं। यह शुद्ध गोघृत की हमारी आहुति प्रजापति ईश्वर के लिए है, इदन्न मम्, यह मेरी नहीं है। यह निष्काम व समर्पित भाव से दी जाने वाली आहुति है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि यज्ञ करने से ईश्वर साक्षात्कार नहीं होता, हां यज्ञ ईश्वर साक्षात्कार के पूरक हैं। सन्ध्या-उपासना की सफलता ही ईश्वर का साक्षात्कार कराती है और यही ईश्वर की प्राप्ति की उच्चतम व शिखर अवस्था है। यह प्राप्त होने पर तो जीवन-मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। अब अन्य किसी फल की तो अपेक्षा ही नहीं है। यज्ञ पर आगे विचार करें तो यज्ञ से आध्यात्मिक व भौतिक लाभ होते हैं जिसमें पर्यावरण की शुद्धता, आरोग्य, आयु की वृद्धि आदि लाभ होते हैं। यज्ञ के इन लाभों व उपासना के लाभ ईश्वर साक्षात्कार एवं धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति सर्वोत्तम व सर्वाधिक लाभ है। अतः इस ओर भी हमारे यज्ञ प्रेमियों को ध्यान देना चाहिये। इन दोनों कर्मों को करके जिससे जितना लाभ होता है, उतना ही करना उचित है। ऐसा नहीं होना चाहिये कि कम लाभ होने वाले कर्म को अधिक करें और अधिक लाभ देने वाले कर्म को कम महत्व दें।

 

यहां यह भी विचारणीय है कि दैनिक अग्निहोत्र के अन्तर्गत किया जाने वाला यज्ञ यजमान को इहलौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ पहुंचाता है। शुद्ध भावना से कोई भक्त हृदय वा यज्ञ प्रेमी यदि वृहत यज्ञ करता है तो इससे किसी प्रकार की हानि होती प्रतीत नहीं होती जैसी कि मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्मना जाति व्यवस्था आदि कार्यों से होती है। अतः वृहत यज्ञ भी किया जा सकता है परन्तु देखने वाली बात यह है कि इससे वेद प्रचार के वांछित साधनों एवं इस कार्य में जितने समय व पुरूषार्थ की आवश्यकता है उसमें किसी प्रकार की कमी न आये। आज तो वृहत यज्ञ में विकृतियां कुछ कम हैं परन्तु कालान्तर में क्या होगा इस पर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इतिहास अपने आप को दोहराता है, यह कहावत है। अतः यज्ञों को अधिक से अधिक सरल व अल्प व्यय व समय साध्य बनाना व रखा जाना जनहित में है। अतः जहां तक हो सके दैनिक व विशेष यज्ञों तक ही सीमित रहा जाये तो अत्युत्तम है जिससे आज समयाभाव के युग में लोग यज्ञ कर सकें। हमारा यह भी मत है कि यज्ञ प्रेमी उपासना में अधिक ध्यान देकर स्वयं यह निर्धारित करें कि क्या महर्षि दयानन्द प्रोक्त दैनिक व विशेष यज्ञों में कहीं कोई कमी रह गई है? कहीं उनका वृहत यज्ञों के रूप में वेदपारायण व बहुकुण्डीय यज्ञों का कृत्य महर्षि दयानन्द के प्रति अविश्वास व वैदिक कर्मकाण्ड की उदात्त भावना के विपरीत तो नहीं है? इसका निर्णय हम वेद व यज्ञ के मर्मज्ञ विद्वानों पर छोड़ते हैं। हमने वेदों के सुप्रसिद्ध विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार जी के यज्ञ मीमांसा ग्रन्थ में विवेचित वेदपारायण-यज्ञ, गायत्री यज्ञ, बहुकुण्डी यज्ञ, यज्ञ को महिमामण्डित किस सीमा तक करें? शीर्षक के अन्तर्गत विचारों को भी देखा है। हमें लगता है कि सभी यज्ञ प्रेमियों व विद्वानों को इस ग्रन्थ का अध्ययन कर अपना कर्तव्य निर्धारित करना चाहिये।

 

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