ई मेल के जमाने में
पता नहीं क्यों
आज भी मेरा मन
ख़त लिखने को करता है।
मेरा मन
आज भी
ई टिकट की जगह
लाईन में लग कर
रेल का आरक्षण
करवाने को करता है।
पर्व-त्योहारों के संक्रमण के दौर में
मेरा मन
बच्चों की तरह
गोल-गप्पे खाने
को करता है।
फोन से तो
मैं हमेशा डरा रहता हूँ
पता नहीं
कौन, कब
कौन सी
खबर सुना दे
बिना किसी भाव के
बिना किसी संवेदना के
शायद इसीलिए
आज भी
मेरा मन
टेलीग्राम का इंतजार
करने को करता है।
ऐसे खतरनाक समय में
इसलिए लोगों
मेरा मन
गुजरे पलों में
जीने को करता है।
-सतीष सिंह
सतीश जी सप्रेम अभिवादन ……..
आशा है आप सानन्द होंगे …….आपके बहुत सारे कविताओ का अद्ययन किया बहुत अच्छा लगा ….
आप अपनी पीड़ा छुपाते नहीं है बस …. कविताओं से बया कर देते हैं बधाई हो आपको ……………..
लक्ष्मी नारायण लहरे ……..
युवा साहित्यकार पत्रकार
कोसीर ..छत्तीसगढ़ ……………………………………………………….
बढ़िया कविता सतीश जी. मन को छू गयी. हार्दिक साधुवाद. माँ सरस्वती की कृपा बनी रहे.
फूल ने पूछा
मूल से
नीचे कुछ पाया?
मूल पूछता है
फ़ूल से
ऊपर कुछ
हाथ आया?
ऐसे ही
विगत की स्मृतियों
और
भविष्य की
योजनाओं में
वर्तमान का
आनन्द चूक रहा है
जीवन
वर्तमान है
सतीश जी!
जी लें
वर्तमान हो लें.