राजनीति

विनायक सेन को राजद्रोही साबित करने के चक्कर में मानव-अधिकारों पर हमला

श्रीराम तिवारी

विनायक सेन को काल्पनिक आरोपों की जद में आजीवन कारावास की सजा के समर्थन और विरोध के स्वर केवल भारत ही नहीं, वरन यूरोप, अमेरिका में भी सुने जा रहे हैं.इस फैसले के विरोध में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी शामिल हैं, वे जुलुस, नुक्कड़ नाटक, रैली और सेमिनारों के मार्फ़त श्री विनायक सेन की बेगुनाही पर अलख जगा रहे हैं और इस फैसले के समर्थन में वे लोग उछल-कूद कर रहे हैं जो स्वयम हिंदुत्व के नाम की गई हिंसात्मक गतिविधियों में फंसे अपने भगनी भ्राताओं की आपराधिक हिंसा पर देश की धर्मनिरपेक्ष कतारों के असहयोग से नाराज थे. ये समां कुछ ऐसा ही है जैसा कि शहीद भगतसिंह-सुखदेव-राजगुरु की शहादत के दरम्यान हुआ था, उस समय गुलाम भारत की अधिसंख्य जनता-जनार्दन ने भगत सिंह और उनके क्रन्तिकारी साथियों के पक्ष में सिंह गर्जना की थी और उस समय की ब्रिटिश सत्ता के चाटुकारों-पूंजीपतियों, पोंगा-पंथियों ने भगतसिंह जैसे महान शहीदों को तत्काल फाँसी दिए जाने की पेशकश की थी. इस दक्षिणपंथी सत्तामुखापेक्षी धारा के समकालिक जीवाणुओं ने भी निर्दोष क्रांतिकारी विनायक सेन को जल्द से जल्द सूली पर चढ़वाने का अभियान चला रखा है। इनके पूर्वजों को जिस तरह भगत सिंह इत्यादि को फाँसी पर चढ़वाने में सफलता मिल गई थी, वैसी आज के उत्तर-आधुनिक दौर में विनायक सेन को फाँसी पर चढ़वाने में उनके आधुनिक उत्तराधिकारियों को नहीं मिल सकी है. इसीलिए वे जहर उगल रहे हैं, विनायक सेन के वहाने सम्पूर्ण गैर साम्प्रदायिक जनवादी आवाम को गरिया रहे हैं.

चूँकि जिस प्रकार तमाम विपरीत धारणाओं, अंध-विश्वासों, कुटिल-मंशाओं और संकीर्णताओं के वावजूद कट्टरवादी-साम्प्रदायिकता के रक्ताम्बुज महासागरों के बीच सत्यनिष्ठ-ईमानदार व्यक्ति हरीतिका के टापू की तरह हो सकते हैं, उसी तरह कट्टर-उग्र वामपंथ की कतारों में भी कुछ ऐसे सत्पुरुष हो सकते हैं जो न केवल सर्वहारा अपितु सम्पूर्ण मानव मात्र के हितैषी हो सकते हैं, क्या विनायक सेन ऐसा ही एक अपवाद नहीं हैं ?

विगत नवम्बर में और कई मर्तबा पहले भी मैंने प्रवक्ता.कॉम पर नक्सलवाद के खिलाफ, माओवादियों के खिलाफ शिद्दत से लिखा था, जो मेरे ब्लॉग www.janwadi.blogspot.com पर उपलब्ध है, पश्चिम बंगाल हो या आंध्र या बिहार सब जगह उग्र वामपंथ और संसदीय लोकतंत्रात्मक आस्था वाले वामपंथ में लगातार संघर्ष चलता रहा है किन्तु माकपा इत्यादि के अहिंसावाद ने बन्दुक वाले माओवादिओं के हाथों बहुत कुछ खोया है, अब तो लगता है कि अहिंसक क्रांति की मुख्य धारा का लोप हो जायेगा और उसकी जगह पर ये नक्सलवादी, माओवादी अपना वर्ग संघर्ष अपने तौर तरीके से जारी रखेंगे जब तक की उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो जाता देश के कुछ चुनिन्दा वाम वुद्धिजीवी भी आज हतप्रभ हैं की किस ओर जाएँ? विनायक सेन प्रकरण ने विचारधाराओं को एतिहासिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है. इस प्रकरण की सही और अद्द्तन तहकीकात के वाद यह स्वयम सिद्ध होता है कि विनायक सेन निर्दोष हैं, और जब विनायक सेन निर्दोष हैं तो उनसे किसे क्या खतरा हो सकता है?राजद्रोह की परिभाषा यदि यही है; जो विनायक सेन पर तामील हुई है; तो भारत में कोई देशभक्त नहीं बचता..

मैं न तो नक्सलवाद और न ही माओवाद का समर्थक हूँ और न कोई मानव अधिकार आयोग का एक्टिविस्ट; डॉ विनायक सेन के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना प्रेस और मीडिया ने अब तक बताया. जब किसी व्यक्ति को कोई ट्रायल कोर्ट राजद्रोह का अपराधी घोषित करे, और आजीवन कारावास की सजा सुनाये; तो जिज्ञासा स्वाभाविक ही सचाई के मूल तक पहुंचा देती है. पता चला की डॉ विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काफी काम किया है.उन्हें राष्ट्रीय -अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है.वे पीपुल्स यूनियंस फॉर सिविल लिबर्टीज (पी यू सी एल) के प्रमुख की हैसियत से मानव अधिकारों के लिए निरंतर कार्यशील रहे. उन्होंने नक्सलवादियों के खिलाफ खड़े किये गए ‘सलवा जुडूम’ जैसे संगठनों की ज्यादतियों का प्रबल विरोध किया.छत्तीसगढ़ स्टेट गवर्नमेंट और पुलिस की उन पर निरंतर वक्र दृष्टि रही है.

मई २००७ में उन्हें जेल में बंद तथाकथित नक्सलवादी नेता नारायण सान्याल का सन्देश लाने-ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उन्हें लगभग दो साल बाद २००९ में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी.उस समय भी उनकी गिरफ्तारी ने वैचारिक आधार पर देश को दो धडों में बाँट दिया था.एक तरफ वे लोग थे जो उनसे नक्सली सहिष्णुता के लिए नफ़रत करते थे; दूसरी ओर वे लोग थे जो मानव अधिकार, प्रजातंत्र और शोषण विहीन समाज के तरफदार होने से स्वाभाविक रूप से विनायक सेन के पक्ष में खड़े थे.इनमे से अनेकों का मानना था की विनायक सेन को बलात फसाया जा रहा है. उस समय उनके समर्थन में बहुत कम लोग थे; क्योंकि उस वक्त तक नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं में भेद करने की पुलिसिया मनाही थी.नक्सलवाद और मानव अधिकारवाद के उत्प्रेरकों में फर्क करने में छत्तीसगढ़ पुलिस की असफलता के परिणाम स्वरूप उस वक्त सच्चाई के पक्ष में खड़ा हो पाना बेहद खतरों से भरा हुआ अग्नि-पथ था.इस दौर में जबकि सही व्यक्ति या विचार के समर्थन में खड़ा होना जोखिम भरा है तब विनायक सेन का अपराध बस इतना सा था कि वे नारायण सान्याल से जेल में जाकर क्यों मिले?

भारत की किसी भी जेल के बाहर वे सपरिजन-घंटों, हफ़्तों, महीनों, इस बात का इन्तजार करते हैं कि उन्हें उनके जेल में बंद सजायफ्ता सपरिजन से चंद मिनिटों कि मुलाकात का अवसर मिलेगा, मेल मुलाकात का यह सिलसिला आजीवन चलता रहता है किन्तु किसी भी आगन्तुक मित्र -बंधू बांधव को आज तक किसी ट्रायल कोर्ट ने सिर्फ इस बिना पर कि आप एक कैदी से क्यों मिलते हैं ? आजीवन कारावास तो नहीं दिया होगा.बेशक नारायण सान्याल कोई बलात्कारी, हत्यारे या लुटेरे भी नहीं हैं और उनसे मिलने उनकी कानूनी मदद करने के आरोपी विनायक सेन भी कोई खूंखार-दुर्दांत दस्यु नहीं हैं. उनका अपराध बस इतना सा ही है कि आज जब हर शख्स डरा-सहमा हुआ है, तब विनायक महोदय आप निर्भीक सिंह कि मानिंद सीना तानकर क्यों चलते हो ?

क़ानून को इन कसौटियों और तथ्यों से परहेज करना पड़ता है सो सबूत और गवाहों कि दरकार हुआ करती है और इस प्रकरण के केंद्र में विमर्श का असली मुद्दा यही है कि इस छत्तीसगढ़िया न्याय को यथावत स्वीकृत करें या लोकतंत्र कि विराट परिधि में पुन: परिभाषित करने कि सुप्रीम कोर्ट से मनुहार करें अधिकांश देशवासियों का मंतव्य यही है ; बेशक कुछ लोग व्यक्तिश विनायक सेन नामक बहुचर्चित मानव अधिकार कार्यकर्त्ता को इस झूंठे आरोप और अन्यायपूर्ण फैसले से मुक्त करना-बचाना चाहते होंगे. कुछ लोग इस प्रकरण में जबरन अपनी मुंडी घुसेड रहे हैं और चाहते हैं कि विनायक सेन के बहाने उनके अपने मर्कट वानरों कि गुस्ताखियाँ पर पर्दा डाला जा सके जबकि उनका इस प्रकरण से दूर का भी लेना देना नहीं है. संभवतः वे रमण सरकार की असफलता को ढकने कि कोशिश कर रहे हैं..

छतीसगढ़ पुलिस ने विनायक सेन के खिलाफ जो मामला बनाया और ट्रायल कोर्ट ने फैसला दिया वह न्याय के बुनियादी मानकों पर खरा नहीं उतरता.पुलिस के अनुसार पीयूष गुहा नामक एक व्यक्ति को ६ मई -२००७ को रायपुर रेलवे स्टेशन के निकट गिरफ्तार किया गया था जिसके पास प्रतिबंधित माओवादी पम्फलेट, एक मोबाइल, ४९ हजार रूपये और नारायण सान्याल द्वारा लिखित ३ पत्र मिले जो डॉ विनायक सेन ने पीयूष गुहा को दिए थे.पीयूष गुहा भी कोई खूंखार आतंकवादी या डान नहीं बल्कि एक मामूली तेंदूपत्ता व्यापारी है जो नक्सलवादियों के आतंक से निज़ात पाने के लिए स्वयम नक्सल विरोधी सरकारी कामों का प्रशंसक था.

डॉ विनायक सेन को भारतीय दंड संहिता कि धारा १२४ अ (राजद्रोह) और १२४ बी (षड्यंत्र) तथा सी एस पी एस एक्ट और गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत सुनाई गई सजा पर एक प्रसिद्द वकील वी कृष्ण अनंत का कहना है कि ”१८६० की मूल भारतीय दंड संहिता में १२४ -अ थी ही नहीं इसे तो अंग्रेजों ने बाद में जब देश में स्वाधीनता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो अभिव्यक्ति कि आजादी को दबाने के लिए १८९७ में बालगंगाधर तिलक और कुछ साल बाद मोहनदास करमचंद गाँधी को जेल में बंद करने, जनता कि मौलिक अभिव्यक्ति कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय द्वारा अमल में लाइ गई ”

भारत के पूर्व मुख्य-न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वी पी सिन्हा ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में १९६२ में फैसला दिया था कि धारा १२४-अ के तहत किसी को भी तभी सजा दी जानी चाहिए जब किसी व्यक्ति द्वारा लिखित या मौखिक रूप से लगातार ऐसा कुछ लिखा जा रहा हो जिससे क़ानून और व्यवस्था भंग होने का स्थाई भाव हो.जैसे कि वर्तमान गुर्जर आन्दोलन के कारण विगत दिनों देश को अरबों कि हानी हुई, रेलें २-२ दिन तक लेट चल रहीं या रद्द ही कर दी गई, आम जानता को परेशानी हुई सो अलग. सरकार किरोड़ीसिंह बैसला को हाथ लगाकर देखे. यह न्याय का मखौल ही है कि एक जेंटलमेन पढ़ा लिखा आदमी जो देश और समाज का नव निर्माण करना चाहता है, मानवतावादी है, वो सींकचों के अंदर है; और जिन्हें सींकचों के अंदर होना चाहिए वे देश को चर रहे हैं.

कुछ लोग उग्र वाम से भयभीत हैं, होना भी चाहिए, वह किसी भी क्रांति का रक्तरंजित रास्ता हो भारत कि जनता को मंजूर नहीं, यह गौतम-महावीर-गाँधी का देश है. जाहिर है यहाँ पर वही विचार टिकेगा जो बहुमत को मंजूर होगा. नक्सलियों को न तो बहुमत प्राप्त है और न कभी होगा. वे यदि बन्दूक के बल पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं तो उनको इस देश कि बहुमत जनता का सहयोग कभी नहीं मिलेगा भले ही वो कितने ही जोर से इन्कलाब का नारा लगायें.यहाँ यह भी प्रासंगिक है कि देश के करोड़ों दीन-दुखी शोषित जन अपने शांतिपूर्ण संघर्षों को भी इन्कलाब-जिंदाबाद से अभिव्यक्त करते हैं …भगत सिंह ने भी फाँसी के तख्ते से इसी नारे के मार्फ़त अपना सन्देश राष्ट्र को प्रेषित किया था … यदि विनायक सेन ने भी कभी ये नारा लगाया हो तो उसकी सजा आजीवन कारावास कैसे हो सकती है और यह भी संभव है कि इस तरह के फैसलों से हमारे देश में संवाद का वह रास्ता बंद हो सकता है जो लाल देंगा जैसे विद्रोहियों के लिए खोला गया और जो आज कश्मीरी अलगाववादियों के लिए भी गाहे बगाहे टटोला जाता है सत्ता से असहमत नागरिक समाज ऐसे रास्ते खोलने में अपनी छोटी -मोटी भूमिका यदा -कदा अदा किया करता है, डॉ विनायक सेन उसी नागरिक समाज के सम्मानित सदस्य हैं.