4 जुलाई विवेकानन्द पुण्यतिथि पर :
डॉ० घनश्याम बादल
भगवा वेश, सिर पर पगड़ी और तेजस्वी ओजपूर्ण मुखमंडल के साथ अद्भुत वक्ता की जब बात की जाती है तो एक ही नाम स्मृति में आता है वह स्वामी विवेकानंद का। बरबस अपनी और आकृष्ट करने वाले व्यक्तित्व, ऊर्जस्वी विचार और राष्ट्रवादी चिंतन ने स्वामी विवेकानन्द को ‘तूफानी हिंदू’ बनाया ।
आत्मचिंतन ने ईश्वर को जानने और प्राप्त करने की इच्छाशक्ति ने 25 वर्ष की आयु में नरेंद्र को विवेकानंद बनने की ओर अग्रसर कर दिया था इसलिए संन्यासी बन वे गुरु की खोज में निकल पड़े। पर एक भी संत उन्हे स्वयं ईवर को देखने का यकीन नहीं दिला पाया केवल स्वामी रामकृण परमहंस ही उन्हे पहचान पाए । कहते हैं कि उन्होंने युवा नरेंद्र को ईश्वर के दर्शन भी कराए इसीलिए विवेकानंद आजीवन उनके शिष्य बन कर रहे । 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे जिज्ञासु नरेन्द्र, विवेकानन्द बनने से पहले 16 वर्ष की आयु में युवावस्था में पाश्चात्य दार्शनिकों के भौतिकतावाद व नास्तिकवाद की चपेट में भी आए पर बाद में ब्रह्म समाज में शामिल हो हिन्दू धर्मसुधार की मुुहिम में जुट गए ।
गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। उन्होंने ही सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में उनका मार्गदर्शन किया, शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त से रहे पर गुरु ने आत्मदर्शन कराया तो विश्व कल्याण के लिए निकल पड़े ।
विवेकानंद को युवकों से बड़ी आशाएं थीं उनकी कल्पना के समाज में धर्म या जाति के आधार पर भेद नहीं था । समता के सिद्धांत के आधार पर समाजनिर्माण आंदोलन खड़ा करने वालें विवेकानंद का उद्घोषथा – ‘‘उतिष्ठ जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधियत’’ उनका मानना था कि ‘युवा बदलेंगें तो भारत बदलेगा ’। विवेकानंद वर्षों घूम-घूमकर राजाओं, दलितों अगड़ों,पिछड़ों सबसे मिले ।
राष्ट्रानुरागी विवेकानंद का माना था कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण वैरागियों और जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस देश में नवजागरण का संचार किया जा सकता है। भारत पुनर्निर्माण के लगाव से ही वें 11 सितंबर 1893 को शिकागो धर्म संसद में गए । वहां उन्होने अपने भाषण से भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित कर जबरदस्त प्रभाव छोड़ा। विवेकानन्द के चमत्कारी भाषण ने विश्व भर में भारत की धाक जमा दी ।
वहां विवेकानंद ने कहा था ‘‘मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढाया है । हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। हमने अपने हृदय में उन इस्राइलियों के शुद्धतम स्मृतियाँ बचा कर रखीं हैं, जिनके मंदिरों को रोमनों ने तोड़-तोड़ कर खँडहर बना दिया, तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली । मानवधर्म के हामी विवेकानंद ने कहा – सांप्रदायिकता, कट्टरता, और इसके भयानक वंशज, हठधर्मिता लम्बे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं । कितनी बार ही ये धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और कितने देश नष्ट हुए हैं । अगर यह भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता लेकिन अब मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मितओं, हर तरह के क्लेश ,चाहे वो तलवार से हों या कलम से, और हर एक मनुष्य, जो एक ही लक्ष्य की तरफ बढ़ रहे हैं उनके बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा…।”
विवेकानंद केवल धार्मिक कर्मकांड के हामी नहीं थे अपितु उन्होंने सर्व धर्म समभाव के साथ हिंदू धर्म का उन्नयन करते हुए वैश्विक भ्रातृत्व का संदेश दिया विवेकानंद शांति के हामी थे लेकिन उनका कहना था कि यदि कोई प्रताड़ना पर उतरे तो उसका प्रतिरोध करना भी शांति की स्थापना करने का ही काम है ।
विवेकानंद के आह्वान के फलस्वरूप गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जन-समर्थन मिला, वें स्वतंत्रता-संग्राम प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है । विवेकानंद ने कहा ‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’
भारत की आत्मा को जगाने का लक्ष्य ले कर चले कर्म योगी विवेकानंद ने जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई, 1902 को भी ध्यान किया। बेलूर में रामकृष्ण मठ में महासमाधि लेकर प्राण त्यागने वाले विवेकानंद को षड़यंत्र पूर्वक जिस वेश्या के हाथों जहर दिलवाया गया था उसके लिए भी उन्होंने मरते मरते प्रार्थना की थी । भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देखने वाले विवेकानंद केवल 39 बरस ही जी पाए उन्होने भारत में चरित्र व नैतिकता को पुर्नजीवित किया। विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए दुनियाभर में रामकृष्ण मठों के रूप में 130 से अधिक केंद्र हैं जो खास तौर पर पश्चिमी जगत के लिए आकर्षणके केन्द्र बने हुए हैं ।
डॉ० घनश्याम बादल