असम में हिंसाचार : एक स्थायी उपाय / मा.गो. वैद्य

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मा. गो. वैद्य

असम के कोक्राझार जिले में फूटा हिंसाचार अब रूका है. ‘अब’ यह शब्द महत्त्व का है. वह फिर कब फूट पड़ेगा इसका भरोसा नहीं. दोनों पक्ष के लाखों लोग निर्वासित शिविरों में रह रहें हैं. कई गांव बेचिराख हुए हैं.

अंतर

इस हिंसाचार में एक पक्ष ‘बोडो’ जनजाति का है, तो दूसरा पक्ष बांगला देश में से अवैध रूप से भारत में घुसे मुस्लिम घुसपैंठियों का है. हिंसाचार कितना भीषण होगा, इसका अंदाज, प्रथम प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और फिर तुरंत गृहमंत्री (अर्थात् पहले के) पी. चिदंबरम् ने इस हिंसाचारग्रस्त भाग को दी भेट से लगाया जा सकता है. और यह भी अंदाज लगाया जा सकता है कि, इस हिंसाचार में, जीवित एवं वित्त हानि मुसलमानों की अधिक हुई होगी. बोडों की अधिक हानि हुई होती, और मुसलमान का पक्ष मजबूत होता, तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री निश्‍चित ही वहॉं दौडकर नहीं जाते. १९८९ में कश्मीर की घाटी में से तीन-चार लाख हिंदू पंडितों को निर्वासित होना पड़ा था. इन पंडितों पर अत्याचार कर उन्हें पलायन करने के लिए बाध्य करने में स्थानिक मुस्लिमों का ही हाथ था, यह बताने की आवश्यकता नहीं. गया कोई प्रधानमंत्री उन निर्वासित पंडितों के आँसू पोछने? या तत्कालीन गृहमंत्री ने हमलावरों को नियंत्रित करने के लिए उठाए कठोर कदम? नहीं. उस समय विश्‍वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री और मुफ्ति महमद सईद गृहमंत्री थे. उनकी सत्ता अधिक समय तक नहीं टिकी, यह सच है. १९९१ में पी. व्ही. नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने. उन्होंने निर्वासित पंडितों का हाल-चाल पूछा? वे तो पूरे पॉंच वर्ष प्रधानमंत्री थे. लेकिन उन्होंने अपने कार्यकाल में पंडितों के स्वगृह में पुनवर्सन के लिए कुछ नहीं किया, इतना ही नहीं, निर्वासितों को दिलासा देने के लिए उनकी छावनियों को भेट देने का भी कष्ट नहीं किया. कारण, इस मामले में अन्यायग्रस्त और अत्याचार पीडित हिंदू थे. वे मुसलमान होते तो इन लोगों का आचरण अलग होता. और वह स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए. कारण, मुसलमानों की जैसी मजबूत व्होट बँक है, वैसी हिंदूओं की नहीं. हिंदू अनेक गुटों में विभक्त है.

क्रिया-प्रतिक्रिया

तात्पर्य यह कि, कोक्राझार जिले में और समीपवर्ती क्षेत्र में भी मुसलमानों की जीवित और वित्त हानि अधिक हुई. लेकिन मुसलमानों को यह प्रतिक्रिया के स्वरूप भोगना पड़ा है. हिंसक क्रिया उनकी ओर से प्रथम हुई और फिर बोडो जनजाति की आरे से उसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. हमारे देश में एक विचित्र सेक्युलर मानसिकता बनी है. यह मानसिकता मूलत: कारणीभूत हुई क्रिया को भूल जाती है और प्रतिक्रिया पर ही आलोचना के कोडे बरसाती है. बहुचर्चित गोध्रा का ही उदाहरण ले. पहले कृति मुसलमानों की ओर से हुई. ५७ हिंदू कारसेवकों को रेल के डिब्बे में बंद कर, उन्हें जिंदा जलाकर मौत के घाट उतारा गया. इसकी अकल्पित तीव्र प्रतिक्रिया गुजरात के अन्य भागों में हुई. गुजराती आदमी सौम्य प्रकृति के होते हैं, ऐसी उनकी देशभर में प्रतिमा है. लेकिन वे भी गोध्रा के अमानुष अत्याचार से भडक उठे. और सही-गलत का विवेक गवॉंकर उन्होंने उस अत्याचार का बदला लिया. मुझे नहीं लगता कि, कोई भी सरकार या कोई भी राजनीतिक नेता तुरंत संपूर्ण राज्य की जनता को भडका सकता है. जनता ही भडकी. अब प्रकरण न्यायप्रविष्ठ है. अपराधियों को सजा सुनाई जा रही है. उसके समाचार भी प्रमुखता से प्रकाशित एवं प्रसारित किए जा रहे हैं. लेकिन उन ५७ निरपराध कारसेवकों को, जिन्होंने रेल रोककर जिंदा जलाया, उनके विरुद्ध के मुकद्दमें का समाचार क्या हमने सुना है? निश्‍चित ही उस कृत्य में के अपराधियों पर मुकद्दमें चलें होंगे. उनके मुकद्दमें के फैसले का समाचार क्यों नहीं फैलता? वे अपराधी मुसलमान है इसलिए? प्रसारमाध्यमों ने ही इसका उत्तर देना चाहिए.

घूसखोरी

यह कुछ विषयांतर हुआ. हमारा आज का विषय है कोक्राझार में का हिंसाचार. बोडो क्यों इतने भडके? वैसे वे पहले भी भडके थे. लेकिन मुसलमानों पर नहीं. असम की सरकार पर. वे उनकी बहुसंख्या का क्षेत्र असम से अलग चाहते थे. इसके लिए उनकी एक संस्था भी स्थापन हुई थी. ‘बोडो लिबरेशन टायगर्स’ ऐसा उस संस्था का नाम है. लेकिन समझौते से वह प्रश्‍न हल किया गया. २००३ में वह समझौता हुआ. इस समझौते के अनुसार ‘बोडो टेरिटोरियल कौन्सिल’ (बोटेकौ) की स्थापना की गई और उसे कुछ विशेष अधिकार भी दिए गए. ‘बोटेकौ’ में स्वाभाविक ही बोडों का वर्चस्व रहेगा. लेकिन यह वर्चस्व, इस प्रदेश में के मुसलमानों को सहन नहीं होता. इस बोडोलॅण्ड के प्रदेश में कुछ स्थानीय मुसलमान भी हैं. उनमें और बोडो में झगडा नहीं. नहीं था, ऐसा कहना शायद अधिक योग्य होगा. लेकिन वहॉं बांगला देश में के मुसलमान बड़ी संख्या में घुसपैंठ कर घुसे है. इन घुसपैंठियों ने वहॉं का वातावरण बिगाडा है.

सत्ता-लालची

इन मुस्लिम घुसपैंठियों ने करीब ३५ प्रतिशत सरकारी ‘खास’ भूमि पर अतिक्रमण किया है. सरकार उस बारे में कुछ भी नहीं करती. असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का एक निर्लज्ज विधान अनेकों को स्मरण होगा ही. गोगोई ने कहा था कि, असम में कोई भी अवैध घुसपैंठी नहीं. सब असम में के ही है. गोगोई से पूछना चाहिए कि, असम के २७ जिलों में के ११ जिलें मुस्लिमबहुल कैसे बने? क्या वे १५ ऑगस्ट १९४७ को ही मुस्लिमबहुल थे? पुराने असम का एक सिल्हट जिला मुस्लिमबहुल होने का संदेह था. वहॉं जनमत संग्रह कराया गया; और बहुमत पाकिस्तान के पक्ष में हुआ. वह जिला पाकिस्तान में – उस समय के पूर्व पाकिस्तान में मतलब आज के बांगला देश में – समाविष्ट किया गया. और कोई भी जिला यदि मुस्लिमबहुल होता, तो पाकिस्तानी नेतृत्व उसे भारत में रहने देता? गोगोई ने उत्तर देना चाहिए कि, बांगला देश की सीमा से सटे यह ११ जिले मुस्लिमबहुल कैसे बने? लेकिन वे उत्तर नहीं देंगे. अल्पसंख्य मुस्लिमों के व्होटबँक पर उनकी सत्ता निर्भर है. और ये लोग इतने स्वार्थी और सत्ता लालची है कि, सत्ता के लिए देश-हित को आग लगाने से भी नहीं हिचकेंगे.

चिनगारी

वहॉं समस्या बांगलाभाषी घुसपैंठियों की है. उनकी शिकायत है कि, ‘बोटेकौ’ पर उनका वर्चस्व नहीं है. यह तो होगा ही. जिन घुसपैंठियों का सात्म्य (assimilation) हुआ है, उन्हें नागरिकता के अधिकार हैं ही. लेकिन इतने से वे समाधानी नहीं. यह झगडे की जड़ है. और २००८ से इस झगडे ने गंभीर स्वरूप धारण किया है. अर्थात् आक्रमण मुसलमानों की ओर से ही प्रारंभ हुआ है. ‘ऑल बोडो स्टुडंट्स युनियन’ के भूतपूर्व अध्यक्ष और राज्य सभा के भूतपूर्व सांसद यु. जी. ब्रह्म बताते है कि, गत दो वर्षों में दो सौ बोडो की हत्या हुई है. गोगोई साहब, आप ही बताए यह कत्तल किसने की? क्या बोडो ने ही बोडो की हत्या की? या बोडोबहुल प्रदेश में जो बिल्कुल थोडी जनजाति के लोग हैं, उन्होंने बोडो की हत्या की? उत्तर साफ है. धाक जमाने के लिए मुसलमानों ने ही उनकी हत्या की. गत जुलाई माह के अंत में जो हिंसाचार हुआ, उसकी जड़ भी मुसलमानों के आक्रमक स्वभाव में है. घटना २० जुलाई की है. प्रदीप बोडो और उनके तीन मित्र कोक्राझार में से नरबाडी इस मुस्लिमबहुल भाग से जा रहें थे. बोडो और मुस्लिम घूसपैंठियों में तनाव था ही. इसलिए प्रदीप की पत्नी के उन्हें चेतावनी दी कि, वहॉं से न जाए. लेकिन प्रदीप ने उसकी बात नहीं मानी. रात ८.३० को समाचार आया कि प्रदीप और उनके तीन मित्रों की हत्या की गई है. पहले उन पर हमला किया गया. तुरंत पुलीस आई. पुलीस इन चारों को ले जा रही थी. तब मुसलमानों के जमाव ने पुलीस की गाडी रोकी, उन चारों को बाहर निकाल और उन पर कुल्हाडी से वार कर उनकी हत्या की.

बदले की प्रतिक्रिया

संपूर्ण कोक्राझार जिले के साथ समीपवर्ती क्षेत्र में भी इसकी प्रतिक्रिया हुई. पहले तो मुसलमानों को लगा की यह उनके लिए एक अवसर है और उन्होंने बोडो की बस्तियों पर आक्रमण कर बोडो के अनेक घर जला डाले. कुछ बोडो ने प्रतिकार किया, तो उनकी हत्या कर दी गई. फिर बोडो ने पलटकर हमला किया. गोसाईगॉंव में बोडो निर्वासितों का एक शिबिर है. उसमें फिलहाल ३४१९ निर्वासित रहते हैं. इस शिबिर का प्रमुख रूपक बसुमतराय बताता है कि, जब हमने हमारे ही पड़ोसियों को हमारे घर जलाते देखा, तब हमने भी बदला लेने का निश्‍चय किया और हमारे लोगों ने भी मुस्लिम बस्तियों पर हमले शुरू किए. उनके घर जलाए. इस प्रतिक्रिया के कारण मरनेवालों में और निर्वासितों में मुसलमानों की संख्या अधिक है. इस कारण कॉंग्रेस की सरकार में हलचल हुई और प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री के दौरे के बाद पुलीस ने और उनकी सहायता के लिए गई सुरक्षा टुकडियों ने हिंसाचार रोका. फिलहाल वहॉं तनावपूर्ण शांति है. लेकिन अब बोडो कहते है कि, मुसलमानों को हमारे पडोसी स्वीकार करने की हमारे मन की तैयारी नहीं. इन पडोसियों ने ही हमारे घर जलाए हैं.

कुछ समय बाद यह क्षुब्ध भावनाएँ शांत होगी. प्रतिकार का आघात इतना जबरदस्त होगा इसकी कल्पना भी मुसलमानों ने नहीं की होगी. वे भी सही तरीके से रहेंगे. ‘बोटेकौ’में बोडो का ही वर्चस्व रहेगा यह भी वे मान्य करेंगे और कम से कम कोक्राझार और समीपवर्ती क्षेत्र में फिर शांतता स्थापित होगी. हर कोई यही चाहेगा.

खतरा

लेकिन मूल घूसपैंठ का प्रश्‍न वैसे ही रहेगा. इन घुसपैंठियों की संख्या भी बढ़ रही है और संख्या के साथ उनकी हिंमत भी बढ़ रही है. असम में उन्होंने ने अपनी एक अलग राजनीतिक पार्टी भी बनाई है. ‘युनायटेड डेमोक्रॅटिक फ्रंट’ ऐसा उसका निरुपद्रवी नाम है. लेकिन वह केवल मुस्लिमों की पार्टी है. आज असम की विधानसभा में, सत्ताधारी कॉंग्रेस के बाद इसी पार्टी के सदस्यों की संख्या आती है. भाजपा तीसरे क्रमांक पर है. यह घुसपैंठ ऐसे ही चलती रही (वह कॉंग्रेस पार्टी के व्होट बँक की खुशामद की राजनीति से निश्‍चित ही बढ़ेंगी) तो कल उनकी सत्ता भी स्थापन हो सकती है.

स्थायी उपाय

इस पर एक स्थायी उपाय है. ये घुसपैंठी बांगला देश में से आते है. कारण वहॉं भूमि कम और जनसंख्या अधिक है. १९४७ में निर्मित संपूर्ण पाकिस्तान में, पूर्व पाकिस्तान मतलब आज के बांगला देश की जनसंख्या अधिक थी. लेकिन संपूर्ण पाकिस्तान के सत्ता-सूत्र पूर्व के पास न जाय, इसलिए पूर्व भाग के लोकप्रिय नेता मुजीबुर रहेमान को पाकिस्तान की सेना की सरकार ने जेल में डाला था और इसी बात पर पूर्व पाकिस्तान विरुद्ध पश्‍चिम पाकिस्तान ऐसा रक्तरंजित संघर्ष हुआ. इस संघर्ष में, भारत पूर्व पाकिस्तान के समर्थन में खड़ा हुआ और पूर्व पाकिस्तान स्वतंत्र हुआ. वहीं आज का बांगला देश है. आज बांगला देश की जनसंख्या १५ करोड़, तो पश्‍चिम पाकिस्तान की १७ करोड़ है. बांगला देश की जनसंख्या कम क्यों हुई? कारण वे भारत में घुसपैंठ करते हैं. बांगला देश का क्षेत्रफल करीब देड लाख चौरस किलोमीटर है, तो पाकिस्तान का करीब ८ लाख चौरस किलोमीटर. बांगला देश की भूमि पर जनसंख्या का दबाव है. इस कारण, वहॉं के लोग भारत में घुसपैंठ करते है. इसका स्थायी उपाय यह है कि, बांगला देश भारत में विलीन हो जाए. जिस भाषा के मुद्दे पर उनका पश्‍चिम पाकिस्तान के साथ संघर्ष हुआ, उस भाषा को भारत में निश्‍चित ही सम्मान मिलेगा. कारण भारत में के पश्‍चिम बंगाल की भाषा बंगाली ही है. मुसलमानों की संख्या अधिक होने के कारण, वहॉं का मुख्यमंत्री स्वाभाविक मुसलमान ही रहेगा. मतलब शासन उनका ही रहेगा. भारत में विलीनीकरण होने के बाद अवैध घुसपैंठ का प्रश्‍न ही नहीं शेष रहेगा. वे खुलकर कहीं भी रह सकेंगे. भारत पंथनिरपेक्ष है, इस कारण उन्हें उनके धर्म-मतानुसार आचरण करने की स्वतंत्रता का कायम भरोसा रहेगा. सुरक्षा के खर्च में कमी होकर वह पैसा विकास के काम के लिए खर्च किया जा सकेगा. और भारत की पूर्व सीमा भी सुरक्षित हो जाएगी. ऐसे लाभ ही लाभ है. बांगला देश में आज जनतंत्र है. वहॉं की जनता इस विकल्प का गंभीरता से विचार करें, ऐसा लगता है.

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

1 COMMENT

  1. ये सुझाव भारत के हित के विरुद्ध होगा. वर्तमान भारत का जनसँख्या घनत्व ३९० प्रति वर्ग किलोमीटर है. यदि डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के साथ बंगलादेश की पंद्रह करोड़ आबादी भारत में मिल जाये तो भारत का जनसँख्या घनत्व ४२५ प्रति वर्ग किलोमीटर हो जायेगा लेकिन यदि पाकिस्तान को भी साथ में मिला दिया जाये तो ये घनत्व घट कर ३७४ रह जायेगा. अतः आवश्यकता अखंड भारत की है. यदि संभव हो तो बर्मा (म्यांमार), नेपाल, श्रीलंका और मालदीव को भी इस एकीकृत भारत में मिलाया जा सकता है. लेकिन ये वर्तमान में तो संभव नहीं है. हाँ विचार चलते रहना चाहिए. जब भी भू-राजनीतिक स्थिति अनुकूल दिखाई पड़ें तब इस पर अमल किया जाये.एक बात और, वी पी सिंह और पी वी नरसिम्हा राव ने प्रधान मंत्री के रूप में कश्मीर के पंडित शरणार्थियों के विषय में कुछ नहीं किया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी जी और उनके साथ गृह मंत्री/उप प्रधान मंत्री अड़वानीजी ने भी तो कुछ नहीं किया. ये काम केवल वही कर सकता है जो हिंदुत्व और उत्कट देशप्रेम से अनुप्राणित हो.

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