वोटयुक्ति का सांप्रदायिक विधेयक

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अरविंद जयतिलक

आखिरकार केंद्रीय कैबिनेट ने सोनिया गांधी की नेतृत्ववाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा प्रारुपित सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक को हरी झंडी दे दी। अब सरकार का अगला कदम संसद से इसे पारित कराना होगा। लेकिन विपक्ष इस पर अपनी सहमति की मुहर लगाएगा इसमें संदेह है। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने एलान कर दिया है कि वह संसद से लेकर सड़क तक इस विधेयक का विरोध करेगी। हालांकि सरकार ने विधेयक के कतिपय प्रावधानों में बदलाव किया है लेकिन राजनीतिक दल संतुष्ट नहीं हैं। बता दें कि सरकार ने मसौदा विधेयक से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक ‘समुदाय शब्द को हटा लिया है। इससे पहले विधेयक में प्रस्तावित था कि दंगों के लिए मुख्यत: बहुसंख्यक समुदाय को ही जिम्मेदार माना जाएगा। यानी विधेयक की नजर में सांप्रदायिक हिंसा सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग ही करता है। सरकार ने विधेयक के कतिपय प्रावधानों में बदलाव भारतीय जनता पार्टी के कड़े विरोध के बाद किया है। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह को पत्र लिख कड़ा ऐतराज जताया है। उन्होंने इस विधेयक को धार्मिक और भाषायी आधार पर समाज को बांटने वाला कहा है। यह भी आशंका जाहिर की है कि इस विधेयक से धार्मिक और भाषायी पहचान समाज में मजबूत होगा और आसानी से हिंसा के साधारण घटना को भी सांप्रदायिक रंग दिया जा सकेगा। हालांकि अब सरकार ने संशोधन के जरिए मसौदा विधेयक को सभी समुदायों के लिए तटस्थ बनाकर आरोपों की धार को कम करने की कोशिष की है लेकिन मुख्य विपक्षी दल इससे संतुष्ट नहीं है। उसका मानना है कि इस विधेयक से संघीय ढांचा कमजोर होगा। हालांकि सरकार ने विधेयक में संशोधन के जरिए भरोसा दिया है कि अब राज्य के अनुरोध पर ही केंद्र सरकार दखल देगा। पहले प्रस्ताव के मुताबिक केंद्र को राज्यों से सलाह-मशविरा किए बिना ही अर्धसैनिक बल भेजने का अधिकार था। यानी वह दंगा प्रभावित क्षेत्रों में सीधा हस्तक्षेप कर सकता था। लेकिन अब संशोधन के बाद राज्यों को अधिकार होगा कि हालात से निपटने के लिए वह केंद्र से सेना की मांग कर सकते हैं। संशोधित विधेयक के मुताबिक अब दंगे की स्थिति में डयूटी पर लापरवाही बरतने वाले जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवार्इ और सांप्रदायिक हिंसा के लिए वित्तीय मदद करने वालों को तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है। लेकिन तमाम राजनीतिक दल इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि इससे लोकसेवकों के बीच गलत संदेश जाएगा और शासन-प्रशासन पंगु होगा। इसके अलावा उनकी आपतित इस पर भी है कि एक से अधिक अल्पसंख्यक समूहों के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा यह विधेयक में स्पष्ट नहीं है। राजनीतिक दल अभी भी आषंकित हैं कि संशोधित विधेयक भी सदन में पारित होता है तो यह समाज के लिए खतरनाक साबित होगा। उनका मानना है कि विधेयक में अभी भी ऐसे प्रावधान मौजूद हैं जिससे समाज में सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा। हालांकि सरकार का दावा है कि मौजदा विधेयक से न तो समाज की एकता भंग होगी और न ही समुदायों के बीच तनाव पैदा होगा। उसका कहना है कि विपक्षी दल जानबुझकर सरकार के खिलाफ कुप्रचार कर रहे हैं। लेकिन सरकार के पास इस बात का कोर्इ जवाब नहीं है कि जब यह विधेयक 2005 में ही बन चुका था तो फिर इसे आठ साल बाद पारित कराने की सुध क्यों आयी? क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि वह इस विधेयक के जरिए चार राज्यों में करारी हार से हुए नुकसान की भरपार्इ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराकर करना चाहती है? सवाल यह भी कि भारत जैसे बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषी और बहुपंथीय समाज में इस तरह के सांप्रदायिक और विभाजनकारी विधेयक की क्या जरुरत है? क्या सरकार इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि संविधान में सांप्रदायिकता रोकने के कानून नहीं हैं? सवाल यह भी कि क्या कानून बना देने मात्र से सांप्रदायिकता पर रोकथाम लग जाएगा या संप्रदायों के बीच दूरियां कम हो जाएगी? इन सवालों का जवाब सरकार के पास नहीं है। और हो भी कैसे? देश में अपराध, भ्रष्टाचार, चोरी, हत्या, लूट और बलात्कार रोकने के न जाने कितने अनगिनत कानून बन चुके हैं। लेकिन क्या इन पर रोक लग सका है? समझना होगा कि जब तक कानून का र्इमानदारी से पालन नहीं होगा सकारात्मक परिणाम मिलने वाले नहीं हैं। सरकार के मौजूदा रुख से यही लगता है कि उसकी मंशा विधेयक के जरिए सांप्रदायिक दंगों को रोकना नहीं बल्कि इसकी आड़ में सियासी उर्जा हासिल करना है। सरकार की दुर्भावना इससे भी झलकती है कि उसने सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक का प्रारुप तय करने में सिर्फ गुजरात दंगे के अनुभवों को ही शामिल किया है। ऐसा क्यों? इसका उत्तर उसके पास नहीं है। उसकी मंशा पर तब ऊंगली नहीं उठती जब विधेयक में गुजरात के अलावा भागलपुर, पंजाब, बंगाल राउरकेला, कलकत्ता, जमशेदपुर, मलियाना और मुरादाबाद के दंगे के अनुभवों को भी शामिल किया जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।  दरअसल सरकार की मंशा गुजरात दंगों के बहाने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सवालों के घेरे में बनाए रखना है। जबकि यह तथ्य है कि कांग्रेस के शासनकाल में दिल्ली, हैदराबाद, बनारस, कानपुर, लखनऊ, पंतनगर, तमिलनाडु, बेलादीला, अमृतसर, आगरा, ग्वालिया, मीनाक्षीपुरम, नेल्ली, खैरलांजी और मुंबर्इ में भीषण दंगे हुए हैं। 1984 में सिखों का बड़े पैमाने पर नरसंहार हुआ। लेकिन तमाशा है कि इस नरसंहार के गुनाहगार सरकार की रहमत से बचे हुए हैं। उचित होता कि सरकार इस विधेयक में देश में हुए तमाम दंगों के कारणों का सटीक विष्लेशण कर ठोस अनुभवों को शामिल करती। लेकिन विधेयक के मसौदाकारों ने ऐसा न कर अपनी मंशा और नीयत पर सवाल उठाने का मौका दे दिया है। ऐसे में अगर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी या अन्य दल सरकार और कांग्रेस के इरादों पर सवाल खड़ा करते हैं तो अनुचित कैसे है? सरकार ने भले ही संशोधन के जरिए मसौदा विधेयक से समुदाय शब्द को हटा लिया है लेकिन वह बहुसंख्यक समाज को संदेह की नजरों से ही देखने का प्रयास की। एक तरह से उसने बहुसंख्यक समाज की सहिश्णुता, उदारता और समरसता पर सवाल दागा है। विधेयक के मसौदाकारों ने पहले ही मान लिया है कि हर सांप्रदायिक दंगे के पीछे बहुसंख्यक समाज के लोगों का हाथ होता है। अगर प्रारुपित विधेयक में संशोधन नहीं होता तो भविष्य में कहीं भी सांप्रदायिक दंगा होता तो बहुसंख्यक समुदाय के लोग गुनाहगार माने जाते। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मसौदाकारों का मानना है कि अल्पसंख्यक समुदाय कभी सांप्रदायिक हिंसा फैलाने का कार्य नहीं कर सकता। क्या ऐसा संभव है? इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि सर्वाधिक सांप्रदायिक दंगे अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में ही हुए हैं। अगर बहुसंख्यक और गैर-बहुसंख्यकों के बीच हुए दंगों को परे रखकर देखे तो एक ही धार्मिक व भाषायी समुदायों के बीच भी इस देश में अनेकों भीषण दंगे हुए। इन दंगों में हजारों की जानें गयी। लेकिन विधेयक के मसौदाकारों ने ऐसे दंगों को सांप्रदायिक दंगों की परिधि में नहीं रखा है। आखिर क्यों? त्रासदी यह भी कि विधेयक के मसौदे के अनुसार राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर जिन सात सदस्यीय प्राधिकरण के गठन की बात कही गयी है वह भी पक्षपातपूर्ण है। विधेयक के मुताबिक प्राधिकरण में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष समेत चार सदस्य गैर-बहुसंख्यक समुदाय से रखे जाने का प्रावधान है। यहां सवाल सदस्यों की संख्या को लेकर नहीं है। बल्कि सरकार की खतरनाक सोच और मंशा पर है। मसौदाकारों और सरकार दोनों को स्पष्ट करना होगा कि प्राधिकरण में बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की कम भागीदारी किस तरह जायज है? क्या सरकार यह सिद्ध करना चाहती है कि बहुसंख्यकों की संख्या समान या अधिक होने पर अल्पसंख्यकों को न्याय नहीं मिलेगा? यह खतरनाक सोच सरकार की विभाजनकारी मानसिकता का परिचायक है। उचित होगा कि सरकार कैबिनेट से मंजूर इस विवादास्पद विधेयक को संसद से पारित कराने से पहले इस पर सर्वानुमति बनाए। सियासी लाभ के लिए देश व समाज को दांव पर लगाना कहां तक न्यायसंगत है?

 

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  1. सरकार का मुख्या उद्देश्य जनता को बाँट कर अपना वोट पक्का करना है.कांग्रेस अब यह भली भांति समझ चुकी है कि बहुसंख्यक वर्ग उसकी करतूतों से अच्छी तरह वाकिफ हो गया है,और इसका जनाधार वहाँ से खिसक गया है. दलितं की राजनीती करना भी अब आसान नहीं रहा, मायावती ने उन्हें भी संगठित कर अलग वोट बैंक बना लिया. मुस्लिम वर्ग ही मात्र ऐसा वर्ग बचा है जहाँ वह बनी रहसकती हैं.पर वहाँ भी अब कुछ लोग असंतुष्ट हो कर अलग दिशा में चलना चाहते हैं. यहाँ पर भी माया,मुलायम, व लालू , व जे डी यु ने पाँव पसार लिए हैं . अब ऐसा कोई कारनामा कर वह मुसलमानो को अपने पक्ष में रखना चाहती है.बहुसंख्यक वर्ग में अलग अलग जाती, धर्म के ठेकेदार बैठे हैं अतः वहाँ फूट डाल उसे छितराया जा सकता है.अब यहबिल भी केवल भा ज पा के विरोध से रुकने वाला नहीं. मुलायम जैसे थाली के बेंगन.लालू जैसे अपने अपराधों पर पर्दा डलवाने वाले लोग और करोड़ों के आय कर की चोरी करने वाली माया अपना काम निकलवाने के लिए समर्थन कर इसे पास करवा देंगे और देश में दूसरा पाकिस्तान खड़ा करने की नीव डल जायेगी.

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