कभी गाय-गोबर पट्टी के रूप में पहचाना जाने वाला हिन्दी भाषा-भाषी चार प्रदेशों में लोकसभा चुनाव के पूर्व सेमीफाइनल के बतौर देखा जाने वाला विधानसभा चुनावों में कांग्रेस चारों खाने चित्त हुई। स्वाभाविक है कि कांग्रेस के अन्दर आत्ममंथन और आत्मचिंतन की प्रक्रिया चले। इस अवसान पराजय और पराभव के कारक-कारणों की छानबीन की जाय। पर इसके विपरीत कांग्रेस में इसकी चिंता अधिक है कि युवराज को खरोंच न आये और इसी रणनीति के तहत इसे स्थानीय मुद्दों पर जनता की प्रतिक्रिया बतलाया जा रहा है। कभी बढ़ती महंगाई को इसका कारण बताया जा रहा है तो कभी भाजपा पर बेमतलब के मुद्दे उठा जनता को भ्रमित करने का आरोप चस्पा किया जा रहा है। पर सच के ज्यादा करीब तो राहुल गांधी की स्वीकारोक्ति ही है कि हमारी सरकार भ्रष्टाचार के सवाल पर कुछ करती नजर नहीं आई। यद्यपि राहुल गांधी का यह बयान डॉ. मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता और बेदाग ईमानदारी की गढ़ी गई, तस्वीर पर ही सवालिया निशान खड़ा करता है। वैसे भी राहुल गांधी जब-तब अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर एंग्री यंग मैन की छवि गढ़ने की कोशिश करते रहते हैं। सरकार ने जो कुछ भी अच्छा किया वह सोनिया गांघी के खाते में और सारी बदनामी डॉ. मनमोहन सिंह के मत्थे। यदि इन चार राज्यों में से राजस्थान और दिल्ली भी कांग्रेस बचा लेती तो आज राहुल गांधी की जय-जयकार हो रही होती और तब डॉ. मनमोहन सिंह नेपथ्य में होते। पर अब हार के बाद प्रकारान्तर से मनमोहन सिंह की नीतियों को ही जिम्मेवार बतलाया जा रहा है।
भाजपा ने वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने हाल में विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत को शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के बेहतर काम काज का नतीजा बताया था। पर सवाल यह है कि यदि मतदाताओं ने बेहतर काम काज को ही आधार बना मतदान किया तो अशोक गहलोत और शीला दीक्षित की हार क्यों हुई। दोनों ही मुख्यमंत्रियों का काम-काज बेहतर था। भ्रष्टाचार का कोई व्यक्तिगत आरोप भी नहीं था और काम-काज शिवराज सिंह चैहान और रमन सिंह की तुलना में खराब भी नहीं। सच्चाई तो यह है कि आडवाणी इस विजय का श्रेय मोदी को देने को तैयार नहीं हैं। यह उनका कूटनीतिक बयान है और इसके गहरे अर्थ हैं। इस बीच आडवाणी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राजनीति से संन्यास लेने का कोई इरादा नहीं है और संघ की ओर से भी आडवाणी को सक्रिय राजनीति में बने रहने का संकेत दिया जा चुका है। पर इस कथित सेमीफाइनल का एक महत्वपूर्ण प्रतिफलन अन्ना आन्दोलन की कोख से निकला आम आदमी पार्टी का राजनीतिक क्षितिज पर अवतरण है। स्थापित राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता और प्रासंगकिता पर सवालिया निशान है। इस जीत और हार को एक नये नजरिये से देखने को विवश करता है। अपने पहले ही प्रयास में इसने कांग्रेस को सताच्युत कर भाजपा को भी दिल्ली पर झंडा फहराने की हसरत पर पानी फेर दिया। स्पष्ट संकेत यह है कि आम मतदाता स्थापित दलों से इतर एक बेहतर विकल्प खोज रहा है। भाजपा एक विकल्प नहीं वरन्, एक बड़ी ही बेस्वाद मजबूरी है।
स्थापित राजनीतिक दलों ने न तो लोकपाल गठन को समर्पित अन्ना आन्दोलन को तरजीह दी और न ही काला धन वापसी को लेकर किये जा रहे बाबा रामदेव का स्वाभिमान आन्दोलन को न्यूनतम सम्मान। और कांग्रेस की नीति तो इन दोनों ही आन्दोलनों की हवा निकालने की थी। बाबा रामदेव से पहले सौदा पटाने की पहल की गई, फिर असफल होने पर कुख्यात अपराधियों के समान आधी रात को दमनात्मक कारवाई। खून की पिपाशा यहीं शांत नहीं हुई, सत्ता के खिलाफ बगावती तेवर अपनाते ही बाबा रामदेव के ट्रस्ट पर रातों रात जांच पर जांच बैठाकर दंडात्मक कारवाई की रूपरेखा तैयार कर ली गई और यही हाल अन्ना के प्रति रहा। कभी वादे किये गये तो कभी अन्ना-केजरीवाल में दरार पैदा करने की घृणास्पद कोशिश की गई। यद्यपि यह चाल कुछ हद तक सफल भी रही, पर अपशब्दों का प्रयोग और झिझले आरोपों का निम्नस्तरीय दौर बाबा रामदेव और अन्ना दोनों पर ही चला। हद तो तब हो गई अन्ना को सेना का भगोड़ा साबित करने की कोशिश की गई। अन्ना आन्दोलन के दौरान गर्वोक्ति से चूर राजनेताओं ने फरमाया था, इस दिल्ली में पिकनिक पार्टी के लिए कुछ भीड़ जमा कर लेने से कानून नहीं बनता। हम चुने हुए प्रतिनिधि हैं। लाखों मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। कल को तो कोई भी ऐरा-गैरा आमरण अनशन करने की धमकी देकर कानून बनाने की जीद्द ठान लेगा। यह तो विधायिका के दायित्वों का अपहरण है। भीड़ जुटाने से कानून नहीं बनता, हम अपने मतदाताओं को क्या जबाव देंगे। लालू, मुलायम और शरद यादव के कहने का लब्बो-लूआब यही तो था, एक पुलिस वाले की यह सयत कि राजनेताओं से पूछताछ करने की हिमाकत करे और कांग्रेसी वक्ताओं ने तो सारी हदें पार कर दीं। उनके लिए जनमुद्दे उठाना जनता की बेबसी पीड़ा त्रासदी, क्लेश और संत्रास को सामने लाना एकमात्र राजनेताओं का एकाधिकार है, इसीलिए तो मैं अन्ना हूं की टोपी पहने युवाओं से कहा गया कि है हिम्म्त तो आगे बढ़ो और लड़ो चुनाव। आकलन साफ था कि चुनाव लड़ना-लड़ाना इन नवसिखुओं की बस की बात नहीं। इसके लिए तो धन कुबेरों की तिजोरी, अपराधियों की भारी- भरकम फौज और शातिरना अन्दाज चाहिए। पर यह फलसफा ही स्थापित दलों पर भारी पड़ गया। दिल्ली विधानसभा चुनाव ने यह साबित कर दिया कि जनता स्थापित राष्ट्रीय दलों से तंग आ चुकी है। वह राजनीति का नया चेहरा देखना चाहती है। पर त्रासदी यह है कि वह विकल्पहीनता का शिकार है। भाजपा को मिली विजयश्री भाजपा की जीत नहीं वरन कांग्रेस का अहंकार की राजनीति की हार कुछ ज्यादा ही है। आडवाणी का कूटनीतिक बयान और कांग्रेसी प्रवक्तओं के सारहीन प्रवचनों के विपरीत यह चुनाव स्थानीय मुद्दों पर नहीं लड़ी गई और न ही मतदाताओं ने स्थानीय मुद्दों पर अपना फैसला सुनाया है। विगत कुछ वर्षों से राजनीति में अहंकार की बढ़ती उपस्थिति को वह बड़े ही जतन से देख रहा था और मौका मिलते ही अपना फैसला सुनाने में देरी नहीं की। पर भले ही मतदाताओं ने कांग्रेस का अहंकार से भरी राजनीति को विराम देने की ठानी, पर यह सन्देश सिर्फ कांग्रेस के लिए ही नहीं था वरन् सभी स्थापित राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट संकेत है कि अब अहंकार से भरी राजनीति को विराम दें नहीं तो मतदाता अपना विराम लगा देगी।
यद्यपि आम आदमी पार्टी के बारे में अभी कुछ ज्यादा कहना जल्दबाजी होगी, कई आशंकाएं फिजा में तैर रही हैं, कहीं यह सवर्णवादी राजनीति का एक और नया चेहरा तो नहीं है। अभी इसे खेत.खलिहानों दिहाड़ी मजदूरों विस्थापितों वंचितों दलितों आदिवासियों पिछड़ों अतिपिछड़ों अल्पसंख्यकों की आवाज बननी है। एक बात और अरविन्द केजरीवाल जो कोर कमिटी है, उसमें दलित, आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों की भागीदारी ही कितनी है, क्या दलित आदिवासी एवं वंचित समूह का कोई चेहरा भी सामने है, यदि नहीं तो इन समूहों में केजरीवाल की विश्वसनीयता कितनी होगी, आज राजनीतिक दल दलित.आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों को छोड़कर सामान्य सीटों से दलित.आदिवासी एवं अन्य वंचित समूह को अपना उम्मीदवार नहीं बनाता। उम्मीदवारों से उसके जीतने की क्षमता देखी जाती है और यहां वंचित समूह कमजोर पड़ जाता है, क्या आम आदमी की रहनुमाई का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी वर्तमान राजनीति की इस तल्ख पर कुरूप सच्चाई को बदलेगी, क्या आम आदमी पार्टी आरक्षित सीटों से आगे जाकर अनारक्षित सीटों से इन तबकों को अपना उम्मीदवार बनायेगा। पर फिलहाल वक्त तो आम आदमी पार्टी ने स्थापित राष्ट्रीय दलों को आइना दिखा दिया है। भले ही राजनीतिक दल इसके संकेतों और निहितार्थों की जानबुझ अवहेलना कर रहे हैं। शायद इसीलिए मोदी अब येदियुरपा का हाथ थाम कांग्रेस के भ्रष्टाचार का उन्मुलन करेंगे।