
बिजली और पानी को बरबाद होते देख मुझे बहुत गुस्सा आता है। मैं इस मामले में कुछ सनकी स्वभाव का हूं। यदि कहीं ऐसा होता दिखे, तो मैं दूसरों को कुछ कहने की बजाय स्वयं ही आगे बढ़कर इन्हें बंद कर देता हूं। कई लोग इसे मेरी मूर्खता कहते हैं। यद्यपि पीठ पीछे वे इसकी प्रशंसा भी करते हैं।
पिछले दिनों एक घनिष्ठ मित्र के पुत्र का विवाह था। मित्रता काफी पुरानी थी, अतः उसके आग्रह पर दो दिन पूर्व ही वहां पहुंच गया। उसके सब नाते-रिश्तेदारों से मेरा अच्छा परिचय है। सोचा, सबसे ठीक से मिलना होगा और लगे हाथ मित्र का कुछ सहयोग भी हो जाएगा। उसकी बेटी-दामाद, बहिनें और अन्य निकट सम्बन्धी भी आये हुए थे। अतः उसने पास की एक धर्मशाला में आठ-दस कमरे ले रखे थे।
आजकल धर्मशाला के नाम से कोई अच्छी छवि मन में नहीं आती; पर वह धर्मशाला बहुत साफ और व्यवस्थित थी। नीचे का तल पर कार्यालय, भंडार, एक विशाल कक्ष तथा धर्मार्थ औषधालय था; पर प्रथम तल के सभी कमरों में कूलर, ए.सी. आदि लगे थे। एक छोटे कमरे में साफ पानी और चाय आदि बनाने का भी प्रबंध था। वह पूरा तल ही मित्र ने चार दिन के लिए ले लिया था। दिन भर तो लोग घर में ही रहते थे; पर रात को अधिकांश लोग वहीं सोने आ जाते थे। मेरा सामान भी वहीं रखा था।
सुबह जल्दी उठकर चाय पीने और फिर घूमने जाने की मेरी पुरानी आदत है। अतः हर दिन की तरह मैं पांच बजे ही उठ गया। उस तल की रसोई खुली ही थी। मैं वहां चाय बनाने लगा, तो धर्मशाला के प्रबंधक भी आ गये। वे भी सुबह की चाय के तलबगार थे। उन्होंने मुझे रोककर स्वयं चाय बनायी। फिर हमने साथ बैठकर चाय पी।
चाय पीते समय मुझे कहीं से पानी बहने की तेज आवाज आयी। मैंने अपने कान उधर लगाये तो ध्यान आया कि पानी धर्मशाला की सबसे ऊंची मंजिल पर बने टैंक से बह रहा है। मैंने उनका ध्यान इस ओर दिलाया, तो उन्होंने इसे हंसी में टाल दिया। इसके बाद वे अपने कमरे में चले गये और मैं भी जरूरी कामों से निवृत होकर घूमने निकल पड़ा।
दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। मैंने फिर पानी के बहने की बात कही, तो वे बोले, ‘‘ये सरकारी पानी है। इसे हम नहाने, धोने और सफाई आदि के लिए प्रयोग करते हैं। ये सुबह पांच से सात बजे तक चलता ही है। इसमें हमारी बिजली भी खर्च नहीं होती। हमने तो पीने के पानी के लिए अपना बोरिंग करा रखा है। उससे बहुत साफ पानी आता है। जब जरूरत होती है, उसे चला देते हैं। फिर हर तल की रसोई में फिल्टर भी लगा है।’’
– पर इससे तो हजारों लीटर पानी हर दिन बेकार हो रहा है। आप ऐसा तो कर ही सकते हैं, जिससे टंकी भरने पर पानी खुद ही रुक जाए। पांच-सात सौ रुपये के खर्च में ऐसी व्यवस्था हो जाती है।
– अरे सर, आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं ? मैंने बताया न, ये सरकारी पानी है, हमारा नहीं। ये तो हर घर में ऐसे ही बहता रहता है।
चाय पीकर हम दोनों अपने-अपने कमरे में चले गये। ‘सरकारी पानी’ और ‘हमारे पानी’ की यह परिभाषा आज मैंने पहली बार सुनी थी। मैं उस दिन की कल्पना से ही डर गया, जब न सरकारी पानी होगा और न अपना पानी। तब…. ?
विजय कुमार
पिछले 1 महीने से INGO और पश्चिमाभिमुखी मीडिया पानी संरक्षण की खूब चर्चा कर रही थी, चर्चा क्या सिर्फ घिसे पीटे ढंग से बात के लासोकड़े थे जी. पानी का संरक्षण हमारी आदत बननी चाहिए, क्योंकी आने वाले समय में किल्लत बढ़ने वाली है. स्वीमिंग पुल आदि विलासी पानी अपव्यय करने वालो को अनिवार्य बर्षा का जल संरक्षित करने का नियमन बने और लागू हो. यह संरक्षण सरकार के लिए नही हमारे अपने लिए हो.