भारत सरकार के विचार की दिशा, कार्य और चरित्र को समझने के लिए ”राष्ट्रीय जल नीति-२०१२” एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है. इस दस्तावेज़ से स्पष्ट रूप से समझ आ जाता है कि सरकार देश के नहीं, केवल मैगा कंपनियों और विदेशी निगमों के हित में कार्य कर रही है. देश की संपदा की असीमित लूट बड़ी क्रूरता से चल रही है . इस नीति के लागू होने के बाद आम आदमी पानी जैसी मूलभूत ज़रूरत के लिए तरस जाएगा. खेती तो क्या पीने को पानी दुर्लभ हो जाएगा.
– २९ फरवरी तक इस नीति पर सुझाव मांगे गए थे. शायद ही किसी को इसके बारे में पता चला हो. उद्देश्य भी यही रहा होगा कि पता न चले और औपचारिकता पूरी हो जाए. अब जल आयोग इसे लागू करने को स्वतंत्र है और शायद लागू कर भी चुका है. इस नीति के लागू होने से पैदा भयावह स्थिति का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. विश्व में जिन देशों में जल के निजीकरण की यह नीति लागू हुई है, उसके कई उदहारण उपलब्ध हैं.
– लैटिन अमेरिका और अफ्रिका के जिन देशों में ऐसी नीति लागू की गयी वहाँ जनता को कंपनियों से जल की खरीद के लिए मजबूर करने के लिए स्वयं की ज़मीन पर कुँए खोदने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. बोलिविया में तो घर की छत पर बरसे वर्षा जल को एकत्रित करने तक के लिए बैक्टेल (अमेरिकी कंपनी) और इटालवी (अंतर्राष्ट्रीय जल कंपनी) ने परमिट व्यवस्था लागू की हुई है. सरकार के साथ ये कम्पनियां इस प्रकार के समझौते करती हैं कि उनके समानांतर कोई अन्य जल वितरण नहीं करेगा. कई अनुबंधों में व्यक्तिगत या सार्वजनिक हैंडपंप/ नलकूपों को गहरा करने पर प्रतिबन्ध होता है.
– अंतर्राष्ट्रीय शक्तिशाली वित्तीय संगठनों द्वारा विश्व के देशों को जल के निजीकरण के लिए मजबूर किया जाता है. एक अध्ययन के अनुसार सन 200 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमऍफ़ ) द्वारा (अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय निगमों के माध्यम से) ऋण देते समय १२ मामलों में जल आपूर्ति के पूर्ण या आंशिक निजीकरण की ज़रूरत बतलाई गयी. पूर्ण लागत वसूली और सबसिडी समाप्त करने को भी कहा गया. इसीप्रकार सन २००१ में विश्व बैंक द्वारा ‘ जल व स्वच्छता’ के लिए मंजूर किये गए ऋणों में से ४० % में जलापूर्ती के निजीकरण की स्पष्ट शर्त रखी गयी.
– भारत में इसकी गुप-चुप तैयारी काफी समय से चल रही लगती है. तभी तो अनेक नए कानून बनाए गए हैं. महानगरों में जल बोर्ड का गठन, भूमिगत जल प्रयोग के लिए नए कानून, जल संसाधन के संरक्षण के कानून, उद्योगों को जल आपूर्ती के लिए कानून आदि, और अब ”राष्ट्रीय जल निति-२०१२”.
– इन अंतर्राष्ट्रीय निगमों की नज़र भारत से येन-केन प्रकारेण धन बटोरने पर है. भारत में जल के निजीकरण से २० ख़रब डालर की वार्षिक कमाई का इनका अनुमान है. शिक्षा, स्वास्थ्य, जल आपूर्ति जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के व्यापारीकरण की भूमिका बनाते हुए विश्व बैंक ने कहना शुरू कर दिया है कि इनके लिए ”सिविल इन्फ्रास्ट्रकचर” बनाया जाए और इन्हें बाज़ार पर आधारित बनाया जाय. अर्थात इन सेवाओं पर किसी प्रकार का अनुदान न देते हुए लागत और लाभ के आधार पर इनका मूल्य निर्धारण हो. इन सेवाओं के लिए विदेशी निवेश की छूट देने को बाध्य किया जाता है. कंपनियों का अनुमान है कि भारत में इन तीन सेवाओं से उन्हें १०० ख़रब डालर का लाभकारी बाज़ार प्राप्त होगा.
– लागत और लाभ को जोड़कर पानी का मूल्य निर्धारित किया गया (और वह भी विदेशी कंपनियों द्वारा) तो किसी भी किसान के लिए खेती करना असंभव होजायेगा. इन्ही कंपनियों के दिए बीजों से, इन्ही के दिए पानी से, इन्ही के लिए खेती करने के इलावा और उपाय नहीं रह जाएगा. भूमि का मूल्य दिए बिना ये कम्पनियां लाखों, करोड़ों एकड़ कृषि भूमि का स्वामित्व सरलता से प्राप्त कर सकेंगी.
– इस निति के बिंदु क्र.७.१ और ७.२ में सरकार की नीयत साफ़ हो जाती है कि वह भारत के जल संसाधनों पर जनता के हज़ारों साल से चले आ रहे अधिकार को समाप्त करके कार्पोरेशनों व बड़ी कंपनियों को इस जल को बेचना चाहती है. फिर वे कम्पनियां मनमाना मूल्य जनता से वसूल कर सकेंगी. जीवित रहने की मूलभूत आवश्यकता को जन-जन को उपलब्ध करवाने के अपने दायित्व से किनारा करके उसे व्यापार और लाभ कमाने की स्पष्ट घोषणा इस प्रारूप में है .
उपरोक्त धाराओं में कहा गया है कि जल का मूल्य निर्धारण अधिकतम लाभ प्राप्त करने की दृष्टी से किया जाना चाहिए. . लाभ पाने के लिए ज़रूरत पड़ने पर जल पर सरकारी नियंत्रण की नीति अपनाई जानी चाहिए. अर्थात जल पर जब, जहां चाहे, सरकार या ठेका प्राप्त कर चुकी कंपनी अधिकार कर सकती है. अभी अविश्वसनीय चाहे लगे पर स्पष्ट प्रमाण हैं कि इसी प्रकार की तैयारी है. यह एक भयावह स्थिति होगी.
– प्रस्ताव की धारा ७.२ कहती है कि जल के लाभकारी मूल्य के निर्धारण के लिए प्रसशासनिक खर्चे, रख रखाव के सभी खर्च उसमें जोड़े जाने चाहियें.
– निति के बिंदु क्र. २.२ के अनुसार भूस्वामी की भूमि से निकले पानी पर उसके अधिकार को समाप्त करने का प्रस्ताव है. अर्थात आज तक अपनी ज़मीन से निकल रहे पानी के प्रयोग का जो मौलिक अधिकार भारतीयों को प्राप्त था, जल आयोग ((अर्थात कंपनी या कार्पोरेशन( अब उसे समाप्त कर सकते है और उस जल के प्रयोग के लिए शुल्क ले सकते है जिसके लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं है कि शुल्क कितना लिया जाएगा.
– बिंदु क्र. १३.१ के अनुसार हर प्रदेश में एक प्राधिकरण का गठन होना है जो जल से सम्बंधित नियम बनाने, विवाद निपटाने, जल के मूल्य निर्धारण जैसे कार्य करेगा. इसका अर्थ है कि उसके अपने कानून और नियम होंगे और सरकारी हस्तक्षेप नाम मात्र को रह जाएगा. महंगाई की मार से घुटती जनता पर एक और मर्मान्तक प्रहार करने की तैयारी नज़र आ रही है.
– सूचनाओं के अनुसार प्रारम्भ में जल के मूल्यों पर अनुदान दिया जाएगा.इसके लिए विश्व बैंक, एशिया विकास बैंक धन प्रदान करते है. फिर धीरे-धीरे अनुदान घटाते हुए मूल्य बढ़ते जाते हैं. प्रस्ताव की धारा ७.४ में जल वितरण के लिए शुल्क एकत्रित करने, उसका एक भाग शुल्क के रूप में रखने आदि के इलावा उन्हें वैधानिक अधिकार प्रदान करने की भी सिफारिश की गयी है. ऐसा होने पर तो पानी के प्रयोग को लेकर एक भी गलती होने पर कानूनी कार्यवाही भुगतनी पड़ेगी. ये सारे कानून आज लागू नहीं हैं तो भी पानी के लिए कितना मारा-मारी होती है. ऐसे कठोर नियंत्रण होने पर क्या होगा? जो निर्धन पानी नहीं खरीद सकेंगे उनका क्या होगा? किसान खेती कैसे करेंगे ? नदियों के जल पर भी ठेका लेने वाली कंपनी के पूर्ण अधिकार का प्रावधान है. पहले से ही लाखों किसान आर्थिक बदहाली के चलते आत्महत्या कर चुके हैं, इस नियम के लागू होने के बाद तो खेती असंभव हो जायेगी. अनेक अन्य देशों की तरह ठेके पर खेती करने के इलावा किसान के पास कोई विकल्प नहीं रह जाएगा.
– केन्द्रीय जल आयोग तथा जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत में जल की मांग और उपलब्धता संतोषजनक है. लगभग ११०० (१०९३)अरब घन मीटर जल की आवश्यकता सन २०२५ तक होने का मंत्रालय का अनुमान है. राष्ट्रीय आयोग के अनुसार यह मांग २०५० तक ९७३ से ११८० अरब घन मीटर होगी. जल के मूल्य को लाभकारी दर पर देने की नीति एक बार लागू हो जाने के बाद कंपनी उसे अनिश्चित सीमा तक बढाने के लिए स्वतंत्र हो जायेगी. वह आपने कर्मचारियों को कितने भी अधिक वेतन, भत्ते देकर पानी पर उसका खर्च डाले तो उसे रोकेगा कौन ?
– केंद्र सरकार के उपरोक्त प्रकार के अनेक निर्णयों को देख कर कुछ मूलभुत प्रश्न पैदा होते हैं. आखिर इस सरकार की नीयत क्या करने की है? यह किसके हित में काम कर रही है, देश के या मेगा कंपनियों के ? इसकी वफादारी इस देश के प्रति है भी या नहीं ? अन्यथा ऐसे विनाशकारी निर्णय कैसे संभव थे ? एक गंभीर प्रश्न हम सबके सामने यह है कि जो सरकार भारत के नागरिकों को भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को असमर्थ बतला रही है, देश के हितों के विरुद्ध काम कर रही है, ऐसी सरकार की देश को ज़रूरत क्यों कर है?
– ज्ञातव्य है कि सरकार ने स्पष्ट कह दिया है कि वह देश की जनता को जल प्रदान करने में असमर्थ है. उसके पास इस हेतु पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. इसीप्रकार भोजन सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, सबको शिक्षा अधिकार देने के लिए भी संसाधनों के अभाव का रोना सरकार द्वारा रोया गया है और ये सब कार्य प्राईवेट सेक्टर को देने की सिफारिश की गयी है. ऐसे में इस सरकार के होने के अर्थ क्या हैं? इसे सत्ता में रहने का नैतिक अधिकार है भी या नहीं.
रोचक तथ्य यह है कि जो सरकार संसाधनों की कमी का रोना रो रही है, सन २००५ से लेकर सन २०१२ तक इसी सरकार के द्वारा २५ लाख ७४ हज़ार करोड़ रु. से अधिक की करों माफी कार्पोरेशनों को दी गयी. (Source: Succcessive Union Budgets). स्मरणीय है की देश की सभी केंद्र और प्रदेश सरकारों व कार्पोरेशनों का एक साल का कुल बजट २० लाख करोड़ रुपया होता है. उससे भी अधिक राशि इन अरबपति कंपनियों को खैरात में दे दी गयी. सोने और हीरों पर एक लाख करोड़ रुपये की कस्टम ड्यूटी माफ़ की गयी. लाखों करोड़ के घोटालों की कहानी अलग से है. इन सब कारणों से लगता है कि यह सरकार जनता के के हितों की उपेक्षा अति की सीमा तक करते हुए केवल अमीरों के व्यापारिक हितों में काम कर रहे है. ऐसे में जागरूक भारतीयों का प्राथमिक कर्तव्य है कि सच को जानें और अपनी पहुँच तक उसे प्रचारित करें. निश्चित रूप से समाधान निकलेगा.
रोटी, कपडा और आवास वालों को भी अब और तीन आवश्यक वस्तुएं उसमें जोडनी चाहिए।
अब नारा हो,
==>वायु, जल, रोटी. कपडा, आवास और औषधियां।(इसी क्रम में )
हमारे पुरखों ने शुद्ध वायु, और शुद्ध जल नैतिक धर्म के अंतर्गत, और रुग्ण सेवा एवं औषधि को —व्यावसायिक नहीं पर सेवा व्रत से युक्त ऐसा आदर्श सामने रखा था।
देखा है, कि, “बनारस वाले वैद्य” के नाम से विख्यात वैद्यराज–औषधि देते, और लेकर जाने वाले, स्वेच्छा से, मुद्रा रख जाते, वे उस मुद्रा की ओर दृष्टिपात भी ना करते।
ऐसा ही आदर्श आयुर्वेद की संहिताओं के प्रारंभ में भी देखा हुआ है।
“जल का क्रय-विक्रय” जिस संस्कृति में वर्जित है, वहीं ये कंपनियां लाभ के लिए पानी बेचेंगी। और शासक उसकी सहायता कर रहा है?
पहले पानी गंदा करो, फिर जल शुद्ध करने की निर्माणिका (कारखाना) लगाओ।
दोनों हाथो में लड्डु, जनता जाए भाडमें।
पर ध्यान रखो यह आपका करम (कर्म, नहीं) आपको भी ग्रस लेगा। डॉ. राजेश जी अच्छा विषय उठाते हैं, चिकित्सक जो ठहरे! धन्य! धन्य!
मुझे आश्चर्य है कि हमसे हमारा पानी का मूलभूत अधिकार छीना जा रहा है. बल्कि यूँ कहें कि हमारा जीने का धिकार छिन रहा है और हम फिर भी बेसुध हैं ? कोई ख़ास प्रतिक्रया नहीं ? अगर ऐसा है तो पराकाष्ठा की दुर्दशा से हमें कोई नहीं बचा सकता. मैं तो नहीं समझता कि भारत का समाज इतना मृत है. शायद इस विषय को ठीक से पढ़ा और समझा नहीं गया है.
अंकुर रस्तोगी जी आपका प्रयास अनुकरणीय है. इन सूचनाओं को अबोध जनता तक पहुंचाए बिना समाधान संभव नहीं. आपके प्रयास से ये अविश्वसनीय पर सत्य जानकारी अधिक लोगों तक पहुंचेगी.
* प्रो. मधुसुदन जी द्वारा उठाये प्रश्न और उत्तर बात की गहराई तक पहुँचने में सहायक हैं और समाधान कारी हैं. उन्हें समझा जाना चाहिए और प्रचारित करना चाहिए, हम सबको.
apke article ko mene bahut dhyan se pada or thoda sa roop badal kar is tarah likha apne facebook page par
Bharat ek baar fir bnega gulam
jo log ye sochte h ki hmm china se agay niklenge
wo sabse bade murkh h meri nazar m kisi bhi
desh k logo ki mul jarurte roti kapda makaan
pani bijli safai or irdhan yani petrol diesel hote h
kabhi kisi ne socha h agar ye sari chijon par
kuch companies ka adhikar ho jaye or wo apni
marzi se rates or supply te kare to kya hmm
ajaad rahenge. darasal hmari sarkar to yahi
chahti h jbbi har bharat sarkar ne vinivesh ki
policy apnai h lagta h ap samjhe nahi chaliye
pani ka example deta h rashtriya jal niti 2012k
anusar ab ap bore nahi kara sakte apni jameen
par bina sarkar se puche halaki ye kaam abhi
gerkanuni rup se ho raha h lekin jald hi pani ki
supply ka contract private companies ko de diya
jayega esa videshi desho m ho bhi chuka h
latinamerica or africa k kayi desho m pani waha
ki janta ko kharidna padta h jese hm safar k
doran ek bottle kharidte h esa hi bharat m
vyapak tor p hoga pehle in companies ko supply
di jayegi fir yahi companiya pani m kammi ka
rona rokar wahi pani bisleri or cococola jesi
companies ko bechengi fir yahi choti companiya
badi companies dwara adhigrahan ki jayegi ab
hoga kharidne ka khel jiske paas pesa h wohi
kharid sakega pani abhi bhi nahi samjhe to
recently fdi m videshi nivesh allow krke walmart
jesi companiya bharat m ayengi ye directly
kisano se bade time k contract krengi tbb supply
par inka haq ho jayega or ye hmesha market m
apni marzi se rates dengi shuru m rates kamm
rahenge sarkar in companies se tax kamayegi or
jantaa bhuki maregi tbb sarkar bhi esi policies
bnayegi ki inka virodh ho hi na sake ya virodh
krne walo ko htaya ja sake jo log abhi bhi nahi
samjhe wo sirf ye pade ki market p control
hmesha supply krne wale ka hota h wahi rates te
krega or wahi hoga malik or ap m kharidne wale
bn jayenge grahak nahi nokar ayiye ab ek
majedaar baat btata hu jo rashtriya jal niti ye
kehti h ki aam admi ko apni jameen par bore
karane ka haq nahi wahi niti pepsi cococola
bisleri jesi companies ko andhadhund pani ka
dohan krne ki anumati deti h
जागृति लाने वाला आलेख। लेखक को धन्यवाद।
१-ले -जल प्रदूषण, कारखाने नदियों में गंदा पानी छोडकर करते हैं। (१) प्रदूषक कौन? उत्तर: कंपनियां।
२-रा वही कंपनियां जल बेचेंगी। (२) लाभ कर्ता कौन? उत्तर: कंपनियां।
३-रा यह शासन क्या है? उत्तर: भ्रष्ट शासन, किसके हितमें?
परदेशी कंपनोयों के हित में?
अहमदाबाद जाकर देखो २४ घंटे नलमें पानी आता है।
इस एक ही, बिंदु पर ही नरेंद्र मोदी को विजय दिलवाओ। नहीं, तो फिर पछताए कुछ नहीं होगा, और सोनिया चुग जाएगी खेत।
अब, अषाढ चुकने का अवसर नहीं है।
यह, स्वर्ण अवसर, चुके तो फिर कल्कि अवतार की बाट देखियो।
जल, और वायु पर सभी का समान स्वामित्व ऐसा शास्त्र कहते हैं।
प्रो. मधूसूदन जी से मिला प्रोत्साहन मेरे लिये मूल्यवान है. क्रिपया मार्ग दर्शन करते रहें