धर्म-अध्यात्म

हम सब अब हिंदू हैं ! – अमेरिकी साप्ताहिक ‘न्यूजवीक’ में लिजा मिलर का वक्तव्य !

– हरिकृष्ण निगम

कम से कम हमारे देश में कथिक प्रबुद्ध विचारकों को इस बात से अवश्य आश्चर्य होगा यदि कोई अमेरिकी पत्रकार विश्व विख्यात अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘न्यूजवीक ‘, ( अगस्त 24 व 31, 2009) में टिप्पणी लिखे कि अमेरिका एक ईसाई राष्ट्र नहीं रहा है। सेमिटिक धर्मों की गलाकाट प्रतिद्वंदिता व अपनी-अपनी श्रेष्ठता-ग्रंथि के बावजूद आज अनेक चिंतक व विचारक आर्नाल्ड टायनबी की उस अवधारणा में विश्वास करने लगे हैं जिनमें उन्होंने कहा था कि विश्व भविष्य हिन्दू-बौद्ध अवस्थाओं की वापसी द्वारा ही निर्णीत होगा जो एक बड़ी संभावना है।

लिजा मिलर नामक लेखिका ने अपनी उपर्युक्त टिप्पणी में कहा है कि यद्यपि यह सच है कि अमेरिकी राष्ट्र की नींव ईसामसीह के अनुयाइयों द्वारा रखी गई थी और आज भी हर अमेरिकी राष्ट्रपति यह बात दोहराता है कि चर्च अमेरिकी प्रजातंत्र की आत्मा है पर आस्थाओं के सहअस्तित्व, बहुसंस्कृतिवाद और बहुलतावादी समावेशी दृष्टि मान हिन्दु धर्म की छत्रछाया में ही पनप सकती है। लिजा मिलर ने सन 2008 में किए गए एक सर्वेक्षण को उध्दृत करते हुए लिखा है कि अब मात्र 76 प्रतिशत अमेरिकी हीं अपनी पहचान को ईसाई बताकर ईसाई इंगित करते हैं। यद्यपि बहुसंख्यक अभी भी अपने को हिंदु, मुस्लिम या यहुदी राष्ट्र से जोड़ना नहीं चाहेंगे पर जो हवा आज अमेरिका में बह रही है उसमें हिंदु आस्था के अनेक आयाम जैसे योग, ध्यान, शाकाहार, अहिंसा, भक्ति एवं उत्सवी संस्कृति अधिकाधिक रूप से स्वीकार्य है।

आज 10 लाख से अधिक संयुक्त राज्य अमेरिका में हिंदू रहते है और कभी भारत के भीतर वे यद्यपि हीनता-ग्रंथि या संशय के कभी-कभी शिकार हो सकते हैं पर अमेरिका में रहने वाले हिंदू, अंतर्विरोधों के बावजूद, अधिक समान्नित, जाग्रत और अपने अतित व परंपराओं का आदर करते हैं। लेखिका का कहना है कि विश्व में फैले हुए लगभग एक बिलियन हिंदुओं का अमेरिका में यद्यपि एक बहुत छोटा अंश है। पर उनकी आस्था के लचीलेपन ने तथा उसके उदार दृष्टिकोण ने अमेरिकियों को बहुत प्रभावित किया है। ‘हाल के सर्वेक्षण के आंकड़ों में धीरे-धीरे सिद्धांत रूप से यह स्पष्ट हुआ है कि हम सब हिंदू जैसे अधिक और पारंपरिक ईसाई जैसे कम होते जा रहे हैं और यह ईश्वर, जीवात्मा और परस्पर की शाश्वत मान्यताओं के क्षेत्र भी हैं,’ लेखिका का मानना है तथा उसने अपनी रिपोर्ट में ॠग्वेद को उद्धृत करते हुए यह भी रेखांकित किया है कि सत्य एक है यद्यपि महापुरुष इसको अनेक नामों से पुकारते हैं। क्योंकि हिन्दू विश्वास करता है कि ईश्वर प्राप्ति के अनेक रास्ते हैं जिसमें यीशु, पैगंबर और योगाभ्यास भी हो सकता है इसलिए कोई भी यद्यपि एक-दूसरे से किसी एक रास्ते को बेहतर नहीं कहेगा। यह तथ्य सिर्फ हिंदू कह सकता है कोई पारंपरिक, कहर ईसाई धर्मावलंबी नहीं क्योंकि उसको कभी ऐसी सोच रखने के लिए सिखाया ही नहीं गया था। वे सिर्फ उन रविवार के उपदेशों को सुनता है जहाँ यह कहा जाता है कि उनका धर्म ही सत्य और श्रेष्ठ है, बाकी सब विश्वास झूठे हैं।

लिजा मिलर के अनुसार, अब अमेरिकी यह विचार कि वे ही धार्मिक रूप से श्रेष्ठ हैं, छोड़ना चाहते हैं। सन 2008 को ‘पिव फोरम’ के सर्वेक्षण के अनुसार 65 प्रतिशत अमेरिकी विश्वास करने लगें हैं कि ‘कई धर्मों के विश्वास की बातों में शाश्वत जीवन के रहस्य छिपे हैं जिनमें 37 प्रतिशत वे लोग जो श्वेत इवेंजिलिक्स वर्ग में आते हैं। चर्च के बाहर के विश्वासों में मुक्ति-मार्ग की खोज अब अधिकाधिक लोग कर रहे हैं। सन 2009 के ‘न्यूजवीक’ के मत-संग्रह में आज 30 प्रतिशत से अधिक अमेरिकी ऐसे हैं जो अपने को आध्यात्मिक कहते हैं धार्मिक नहीं! यह प्रतिशत सन 2005 में 24 था। ‘बोस्टन विश्वविद्यालय’ के एक प्रोफेसर डॉ. स्टीफन प्रोथेरो के अनुसार यह अमेरिकी नया रुझान ‘हिंदू-धर्म’ जैसा है। यह कट्टरवाद बिलकुल नहीं है बल्कि जो कुछ आध्यात्मिक क्षेत्र में कारगर होता है उसी को अपनाने की भावना है। आज तो यदि कै थोलिक उपासना के अलावा योग अथवा किसी बौद्ध आश्रम में शांति मिलती है तो अमेरिकी सबको महत्वपूर्ण मानता है।

अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि मृत्यु के बाद क्या होता है? सामान्यरुप से ईसाइयों का विश्वास है कि शरीर और आत्मा दोनों पवित्र हैं क्योंकि जीवों को पुनरुत्थान के समय वे पुनः जीवित होंगे। हिंदू इनमें विश्वास नहीं करते हैं और इसलिए मृत शरीर को चिता में जलाते हैं क्योंकि आत्मा मुक्त हो जाती है या पुनर्जन्म होता है। ‘क्रिमेशन एसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका’ के अनुसार आज एक तिहाई अमेरिकी मृतदेह का दाहकार्य करने का विकल्प चुनते हैं जब कि 1975 में यह मात्र 6 प्रतिशत था।

अमेरिकी साप्ताहिक ‘न्यूजवीक’ पहले भी फरीद जकरिया के संपादन के कारण भारत में भी दुनिया के दूसरे देशों के साथ-साथ पढ़ा जा रहा है और धार्मिक विषयों की इसकी संपादक लिजा मिलर के हाल के विश्लेषण को विश्व की ‘रायटर’ एवं फ्रांसीसी समाचार एजेंसी ‘एफ. पी. ए.’ ने प्रमुख स्थान दिया था। यह विडंबना है कि हमारे ही कुछ बड़े कहलाने वाले अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने इसे कोई स्थान नहीं दिया क्योंकि नये उभरते सच को राजनैतिक यथार्थ पचा नहीं सके थे।

जिस तरह अमेरिका में हॉलीवुड, कोकाकोला या डिजनीलैंड सारी दुनिया के दिल और दिमाग पर छाए अमेरिका वर्चस्व के प्रतीक माने जाते हैं उसी तरह आज अनेक हिंदू प्रथाओं, शाकाहार और योग विद्या की लहर विश्व के हर कोने में छाई है। पश्चिमी विश्व के योग विद्या की लहर विश्व के हर कोने में छाई है। पश्चिमि विश्व के योग विषयक समाचारों और प्रसिद्ध लोगों के इसकी ओर झुकाव की खबरें तो छपती ही रही है पर अब रूस और पूर्व सोवियत संघ के अन्य देशों के साथ दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई देशों में योगाभ्यास और प्राणायाम को समग्र स्वास्थ्य की आवश्यकताओं में समाविष्ट किया जा रहा है। अभी कुछ मास पूर्व पूणे के प्रसिद्ध योगाचार्य 90 वर्षीय बी. के. एस. आयंगर सोवियत संघ में थे। चाहे मास्को हो या सेंट पीटर्सबर्ग अथवा साइबेरिया के कुछ नगर भी। आयंकर वहाँ के योग केंद्रों में गए थे, मास्को के चार दिवसीय शिविर में तो 750 योग प्रशिक्षुओं ने तीन घंटों के सत्रों का लाभ लिया। 20 वर्ष पूर्व सोवियत संघ स्वास्थ्य मंत्रालय ने उन्हें आमंत्रित किया था। अब उनकी कृतियां कैंब्रिज के हर बुक स्टोर में उपलब्ध है। पूर्व राष्ट्रपति बोरिस येलात्सिन की पत्नी और रूसी राष्ट्रपति द्विमित्री मेडवेडेव प्रतिदिन योगासन कर स्वयं डी आयंगर से मिल चुके हैं। अनेक अन्य पश्चिमी देशों में भी आज स्थिति हिंदू विचारधाराओं के लिए समुनुकूल है।

-लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।