कार्बन क्रेडिट्स से अनभिज्ञ हम और हमारी सरकारी नीतियां

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एक राष्ट्र की प्रगति में उद्योग एवं निर्माण कार्यों का बहुत बड़ा हाथ होता है और यहां उद्योग धंधे जिन प्रक्रियाओं से आगे बढ़ते हैं वह परिणामत: कार्बन या अन्य गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जो अंतत: पृथ्वी के तापमान को बड़ाती है। क्योटो (जापान) प्रोटोकॉल के अनुसार ज्यादातर विकसित एवं विकासशील देशों ने ग्रीन हाउस गैसों जैसे आजोन, कार्बन डाईआक्साईड, नाईट्रस आक्साइड आदि के उत्सर्जन स्तर को कम करने की बात करी है। लेकिन खाली बात करना ही पर्याप्त नहीं था, एक ऐसा तंत्र भी विकसित करना जरूरी था जो इन उत्सर्जन को नियंत्रित कर सके। इसके लिए मापदंड एवं मानदंड निर्धारण किया यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज ने, जो संयुक्त राष्ट्र संघ का अंग है।

कार्बन अपने शुद्धतम रूप में हीरे या ग्रेफाइट में पाया जाता है। यही कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन व पानी से मिलकर प्रकाश संश्लेषण के द्वारा पौधों का भोजन तैयार करता है और यही कार्बन सूर्य की उष्मा को रोककर पृथ्वी का तापमान बढ़ाता रहा है। यह कार्बन इस वातावरण का ऐसा तत्व है जो नष्ट नहीं होता, विज्ञान के अनुसार जो पेड़ व जीव के शरीर का कार्बन था उसने ही जमीन के भीतर जाकर एक ऐसा योगिक बनाया जिसे हाइड्रोकार्बन कहा जाता है और यह हाइड्रोकार्बन कोयले व पैट्रोलियम पदार्थों का मुख्य घटक है। यह व्याख्या कार्बन क्रेडिट क्या है यह समझने में आपकी सहायता करेगी।

अत: यह तो स्पष्ट है कि पृथ्वी और उसका वातावरण एक बंद तंत्र है जहां कार्बन को न बनाया जा सकता है, न मिटाया जा सकता है। समझदारी इसमें है कि कैसे इसका सदुपयोग किया जाये।

कार्बन क्रेडिट अंतर्राष्ट्रीय उद्योग में उत्सर्जन नियंत्रण की योजना है। कार्बन क्रेडिट सही मायने में आपके द्वारा किये गये कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने का प्रयास है जिसे प्रोत्साहित करने के लिए धन से जोड़ दिया गया है। भारत और चीन सहित कुछ अन्य एशियाई देश जो वर्तमान में विकासशील अवस्था में हैं, उन्हें इसका लाभ मिलता है क्योंकि वे कोई भी उद्योग धंधा स्थापित करने के लिए यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज से संपर्क कर उसके मानदंडों के अनुरूप निर्धारित कार्बन उत्सर्जन स्तर नियंत्रित कर सकते हैं। और यदि आप उस निर्धारित स्तर से नीचे, कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं तो निर्धारित स्तर व आपके द्वारा उत्सर्जित कार्बन के बीच का अंतर आप

की कार्बन क्रेडिट कहलाएगा। इस कार्बन क्रेडिट को कमाने के लिए कई उद्योग धंधे कम कार्बन उत्सर्जन वाली नई तकनीक को अपना रहे हैं। यह प्रक्रिया पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ धन लाभ भी देने वाली है।

इस तरह से पैदा किये गये कार्बन क्रेडिट दो कंपनियों के बीच अदला बदली भी किये जा सकते हैं व इन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार के प्रचलित मूल्यों के हिसाब से बेचा भी जा सकता है साथ साथ इन क्रेडिटस को कार्बन उत्सर्जन योजनाओं के लिए कर्ज पर भी लिया जा सकता है। बहुत सी ऐसी कंपनियां हैं जो कार्बन क्रेडिटस को निजी एवं व्यवसायिक ग्राहकों को बेचती हैं। यह ग्राहक वह होते हैं जो अपना कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित रख कर जो लाभ मिलते हैं वह लेना चाहते हैं। कई बार कार्बन क्रेडिट्स का मूल्य इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह क्रेडिट किस प्रकार के उद्योग एवं परिस्थितियों के बीच उत्पन्न हो रही है।

जैसी स्थितियां बन रहीं हैं उससे ऐसा संकेत मिलता है कि आने वाले समय में भारत एवं चीन जैसे देश इस लायक होंगे कि वह कार्बन क्रेडिट्स बेच सकें और यूरोपीय देश इन क्रेडिट के सबसे बड़े ग्राहक होंगे। पिछले कुछ वर्षों में क्रेडिट का वैश्विक व्यापार लगभग 6 बिलियन डॉलर अनुमानित किया गया था जिसमें भारत का योगदान लगभग 22 से 25 प्रतिशत होने का अनुमान था। भारत और चीन दोनों देशों ने कार्बन उत्सर्जन को निर्धारित मानदंडों से नीचे रखकर क्रेडिट जमा किये हैं। यदि हमारे देश की बात करें तो भारत में लगभग 30 मिलियन क्रेडिटस पैदा किये हैं और आने वाले समय में संभवत: 140 मिलियन क्रेडिटस और तैयार हो जायेंगे जिन्हें विश्व बाजार में बेचकर पैसा कमाया जा सकता है।

नगरीय निकाय, रासायनिक संयत्र, तेल उत्पादन से जुड़ी संस्थाएं एवं वृक्षारोपण के लिए कार्य करने वाले लोगों के साथ-साथ ऐसी संस्थाएं जो कचरे का प्रबंधन करती हैं वे भी यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज से संपर्क कर इन्हें कमा कर, बेच सकती हैं। इसके अतिरिक्त भारत में मल्टी कॅमोडिटी एक्सचेंज के माध्यम से भी इस क्रेडिट के व्यापार में शामिल हुआ जा सकता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सारी प्रक्रिया की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि कैसे पर्यावरण बचाने के साथ-साथ यह प्रयास आपको आर्थिक लाभ भी दे सकता है। जिन्हें इसकी जानकारी है उन्होंने अपने उपक्रमों व उद्योग धंधों में ऐसी तकनीकों को शामिल किया है जिसने उत्सर्जन को नियंत्रित कर क्रेडिट बचाये हैं, और फिर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया। इस दिशा में कुछ प्रबंधन सलाहकार भी सक्रिय हैं जो दोनों पक्षों के बीच

रहकर क्रेडिट का सौदा कराते हैं। इस सबके बाद भी दुखद यह है कि सरकार ने इस ज्वलंत मुद्दे पर कोई मजबूत निर्णय व नीति का निर्धारण नहीं किया है जिस वजह से भारत में कार्बन क्रेडिट के बारे में जागरूकता का अभाव है अभी तक यह तय नहीं है कि इनके उत्पादन को कैसे प्रोत्साहन दिया जावे। इसलिये इस सारे व्यापार पर आज के समय में यूरोपीय देशों का कब्जा है जहां एक टन कम कार्बन उत्सर्जन पर आप लगभग 25 से 30 यूरो कमा सकते हैं। सामान्यत: इस सब का हिसाब किताब दिसंबर माह में होता है। इसी समय क्रेडिट अनुबंधों का समापन एवं नवीनीकरण कर क्रेडिटस का आदान-प्रदान किया जाता है।

भारत में अभी अधिकतर धातु एवं उर्जा आदि के उत्पादन से संबंधित कंपनियां इस क्रेडिट व्यापार में सम्मिलित हैं जिनकी संख्या लगभग 400 से 500 के बीच है जो कि एक अच्छी उपलब्धि नहीं है। निसंदेह सरकारी उदासीनता भी इस सबका बड़ा कारण है क्योंकि अपने देश में आज भी जन चेतना सरकार की पहल की प्रतीक्षा करती है। ना जाने क्यों पर्यावरण संरक्षण एवं सुधार की बड़ी बड़ी बात करने वाले राज्यों व केन्द्र सरकार के नेता इस मसले पर पीछे क्यों हैं साथ ही पर्यावरण संरक्षण के लिये कार्य करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं जो अनुदान के रूप में सरकार से बड़ी रकम डकार रही हैं उनकी भूमिका भी कार्बन क्रेडिट स के क्षेत्र में नगण्य है जबकि यह आज की व आने वाले भविष्य की एक महती आवश्यकता है जो हमारे सुरक्षित भविष्य का निर्धारण करेगी।

-पंकज चतुर्वेदी

4 COMMENTS

  1. रवीन्द्र कुमार जी के टिप्पणी के कारण मुझे यह आलेख पढ़ने का मौका मिला,इसके लिए उनको धन्यवाद.यह ऐसा विषय है,जिसके बारे में मुझे आज भी कोई खास जानकारी नहीं है,पर एक बात मेरी समझ से बाहर है कि यह आदान प्रदान क्यों?क्यों नहीं सब एक साथ कार्बन उत्सर्जन कम करते हैं? यह तो कुछ वैसा ही हुआ ,जैसे हम पर्यावरण की हत्या करेंगे, पर सजा के बदले कीमत देकर दोष मुक्त हो जाएंगे. शरीयत में भी शायद ऐसा ही कुछ है,जिससे आप किसी की हत्या करके भी ब्लड मनी देकर दोष मुक्त हो सकते हैं.सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब विकास शील देश कार्बन उत्सर्जन कम कर सकते हैं,तो विकसित देश क्यों नहीं?

  2. Explained well but Government should also asks its various department to create awareness among its officials to utilize this opportunity. It should not remain limited in the hands of Forest Officers of MoEF .

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