व्यंग्य/चल वसंत घर आपणे…!!!

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वसंत पेड़ों की फुनगियों, पौधों की टहनियों पर से उतरा और लोगों के बीच आ धमका। सोचा, चलो लोगों से थोड़ी गप शप हो जाए।

वे चार छोकरे मुहल्ले के मुहाने पर बैठे हुए थे। वसंत के आने पर भी उदास से। वे चारों डिग्री धारक थे। दो इंजीनियरिंग में तो दो ने एमबीए की हुई थी, फारेन से। चारों ही प्राईवेट कंपनियों में लगे हुए थे, तगड़े पैकेज पर। पर आजकल उन्हें आर्थिक मंदी ने मारा हुआ था। कंपनी कभी भी उन्हें नौकरी से हटा सकती थी।उनके चेहरे ऐसे पिचके हुए थे कि ऐसे तो बेरोजगारों के भी नहीं पिचके होते। वसंत चुपचाप उनके पीछे खड़ा हो गया, मुस्कुराता हुआ।

‘यार! समझ नहीं आ रहा अब क्या किया जाए?’ पहले ने दूसरे की जेब में सिगरेट के लिए हाथ ड़ाला पर जिस जेब में हमेशा सिगरेट का पैकेट रहता था उसमें से उस वक्त सिगरेट का टोटा निकला। उसने चुपचाप वह सिगरेट का टोटा ही तीसरे की जेब से माचिस निकाल जलाया और सोच में पड़ गया।

‘हमारी मैनेजमेंट ने तो कभी भी छोड़ने के आदेश जारी कर दिए हैं।’ तीसरे ने लंबी सांस ली और पहले के हाथ से सिगरेट का बुझने के कगार पर पहुंचा सिगरेट का टोटा ले कश लगाया।

‘अपना तो चक्कर पड़ गया।’ दूसरे ने कहा।

‘कैसा!!’

‘उस गाड़ी के लिए जो लोन ले रखा था अब उसकी किश्त कहां से निकलेगी?’

‘यार, तुझे गाड़ी की किश्त की पड़ी है इधर लगता है अपनी शादी ही खटाई में न पड़ जाए।’ कह वह पेड़ की फुनगियों को ताकने लगा। वसंत ने चारों के सामने सिगरेट का पैकेट रख कहा, ‘हाय! मैं वसंत।’

‘ओ थैंक्स फार दिस पैकेट आफ सिगरेट।’ चारों ने एक साथ कहा। फिर दूसरे ने पूछा, ‘पहले कभी तुम्हें देखा नहीं। मुहल्ले में नए आए हो क्या?’

‘नहीं, हर साल इन्हीं दिनों आता हूं।’

‘ओके… ओके. फिर मिलना…’ चारों ने एक साथ कहा और अपने अपने रोने में शामिल हो गए।

हद है यार नौजवानों को उसके आने की खुशी नहीं होगी तो किसको होगी? मेरे देश के नौजवानों को ये क्या हो गया भगवान!

वसंत ने कुछ सोचा और सरकारी दफ्तर की ओर चला। दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ते ही सामने स्टूल पर अलसाया हुआ खुमारी में बैठा पीउन। वसंत ने सोचा कि इसे मेरे आने का पता चल गया है तभी तो डयूटी टाइम में इस तरह टांगें कहीं तो बाजू कहीं फरकाए बैठा है। टोपी से लेकर जूतों तक मदहोशी ही मदहोशी।

वसंत उसे बाइपास कर भीतर साहब के पास जा पहुंचा। साहब व्यस्त।

‘राम! राम! साहब।’

कागजों में उलझे साहब ने सिर उठाया, ‘कौन?’

‘साहब, मैं वसंत! कई दिन हो गए थे आए हुए। आज सोचा आपसे मिल लूं।’

‘क्या काम है?’

‘कुछ नहीं। मैं तो बस यों ही चला आया था।’

‘हद है यार तुम्हारी भी। लोग यहां काम होने के बाद भी आने के लिए आने से पहले बीस बार सोचते हैं और तुम हो कि… बड़े अजीब शख्स हो..’ कह वे फिर कागजों में खो गए। काफी देर तक जब वसंत वहां चुपचाप खड़ा रहा तो साहब ने कुढ़ते हुए कहा’ देखो यार! 31 मार्च सिर पर है। साल भर का पेंडिंग काम पड़ा है। लाखों का बजट लैप्स हो जाएगा। ऊपर से इनकम टैक्स, इनकम का पता नहीं, अब टैक्स ही टैक्स बचा है। मुझे काम करने दो प्लीज। आजकल तो मरने का टाइम तक नहीं। 31 मार्च तक तो हमने बीवी से मिलना भी बंद कर रखा है। उसके बाद जब चाहे चले आना। जितनी देर चाहोगे तुम्हारे साथ गप्पें मारुंगा। प्रॉमिज, ओके।’

दोपहर का एक बज रहा था। भीतर जोर जोर का टीवी लगा हुआ था। वसंत को लगा कि इस घर में कोई है ही नहीं, जरूर कोई है। उसने दरवाजे पर दस्तक दी। एक बार ..कोई नहीं आया। दो बार… कोई नहीं आया। जब तीसरी बार कुछ जोर से दस्तक दी तो एक अधेड़ा ने गुस्से में दरवाजा खोलने से पहले पूछा,

‘क्या है??’

‘नमस्ते जी।’ वसंत ने दोनों हाथ जोड़ें।

‘हां कहो, क्या बात है?’

‘जी में वसंत आया था आपसे…’

‘कौन वसंत? कमेटी से आए हो? पड़ोसियों के आठ दिन से पानी नहीं आया है। अति कर दी है मुओ ने। रोज सुबह खाली बाल्टियां लेकर उठने से पहले दरवाजे पर खड़े रहते हैं। हां भैया! ठीक से ठीक कर जाना नल उनका।’ कह वह दरवाजा बंद करने को हुई तो वसंत ने फिर सानुनय कहा, ‘जी मैं कमेटी से नहीं…. मैं तो..’

‘जहां जाना है आगे जाकर पूछ लो। भले चंगे सीरियल का मजा ले रही थी। सारा गुड़गोबर कर दिया।’ कह उसने इतनी जोर से दरवाजा बंद किया कि वसंत को तो लगा कि दरवाजा पक्का टूट गया। हाय रे दरवाजे!

वसंत थका हारा साथ लगते किसान के पास जा पहुंचा। किसान उस वक्त चिंता में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था।

‘और मामू, क्या हाल हैं पांय लागूं?’

‘जीते रहो।क्या हाल होंगे भैया! रो रहे हैं अपनी किस्मत को।’ कह किसान ने हुक्के की लंबी गुड़गुड़ाहट की।

‘पहचाना नहीं क्या?’ वसंत ने हंसते हुए पूछा।

‘हम औरों को क्या पहचाने भैया, हम तो खुद को पचानना ही भूल गए हैं।’

‘तो हम वसंत हैं।’

‘कौन वसंत? वो मंझली बहू के बुआ के लड़के? और कहो कैसे हैं सब वहां? सब ठीक तो हैं?’

‘अरे मामू, वो वाला वसंत नहीं। जो इन दिनों हर साल आता है वो वाला।’

‘अरे भैया, इन दिनों तो हजारों आते हैं अब किस किसको याद रखें।’ कह किसान सोचते सोचते पता नहीं कहां खो गया। वसंत ने वहां से उठने में ही अपनी भलाई समझी।

वसंत ने घड़ी देखी। अभी सांझ ढलने में देर थी सो वह एक नामचीन राइटर के घर जा पहुंचा। राइटर उस वक्त वसंत पर कविता लिखने में मस्त था। सामने पुराने कवियों की आठ दस वसंत पर लिखी कविताएं खोली हुईं। महाशय कभी इस कविता से पंक्ति उठाते तो कभी उस कविता से। पर पक्तियां थीं कि एक दूसरे के साथ रहने में संकोच कर रही थीं। वसंत ने न चाहते हुए भी उनका ध्यान भंग कर ही दिया। राइटर ने सामने किसीको खड़े देखा तो पहले तो अपना ग्लास सामने से हटाया।

‘लेना पड़ता है जब कविता भीतर से न निकले तो। आपकी तारीफ!’

‘जी मैं वसंत। यहां से गुजर रहा था तो सोचा आपसे मिलता चलूं।’

‘कहां के रहने वाले हो?’ कह उन्होंने पुराने कवियों की वासंती कविताएं परे फेंकने का नाटक करते कहा, ‘ कितनी हलकी कविताएं लिखते हैं ये लोग। कविता के नाम पर कलंक। मेरी कविताएं तो पढ़ी ही होंगी। कब आए?’

‘सर्दियों के बाद हर साल चला आता हूं।’

‘अच्छा करते हो। सर्दियों में वैसे भी बैठै-बैठे हड्डियां जुड़ जाती हैं। आदमी को थोड़ा घर से बाहर भी निकलना चाहिए।’

‘जी!’

‘……पर अभी माफ कीजिए। कल आना। अभी मुझे एक पत्रिका के वसंत विशेषांक को वसंत पर कविता लिखकर भेजनी है। बहुत तनाव में हूं। दस दिन हो गए उनको फोन करते हुए। हां, मेरी ये ताजी कविता ले जाओ। जरूर पढ़ना। बताना, कैसी लगी।’उनसे अनमने कविता की प्रति ले वसंत वहां से उठा तो वे कुछ नार्मल हुए। बाहर आकर बड़ी देर तक वसंत कविता को देखता रहा तो कविता वसंत को।

शहर में रोशनियां जगमगा उठी थीं। वसंत भी वापस जा रहा था कि सामने से उसे एक गाड़ी में लड़खड़ाते हुए इसके कामदेव और उसकी रति आते दिखाई दिए। वसंत का चेहरा ये देख बाग बाग हो उठा। और उसने गाड़ी को हाथ दिया तो गाड़ी चीं करती हुइ बीस मीटर आगे जाकर रूकी।

‘क्या है? पुलिस वाले हो?’ गाड़ी का शीशा खोलकर उसने अपना पर्स ढूंढते पूछा।

‘नहीं, वसंत हूं!’ मुस्कुराते हुए वसंत ने कहा।

‘ओ यार! डरा ही दिया था तुमने तो। कहां जाना है?’

‘बस यों ही हाथ दे दिया था। आप दोनों को इस हाल में देख कर बहुत खुशी हुई सो…’

‘अच्छा अभी जल्दी में हूं। इसे इसके घर छोड़ना है। पहले ही काफी देर हो गई है।’ कह उसने सौ का नोट वसंत के हाथ धरा और ओ गया कि ओ गया। वसंत बड़ी देर तक वहीं खड़ा कभी सौ के नोट को देखता रहा तो कभी अपने को देखता रहा।

-डॉ. अशोक गौतम

1 COMMENT

  1. यह कोरा मनोरंजक व्यंग्य भर नहीं है….व्यंग्य के बहाने बहुत बड़ी बात कही है आपने….
    सचमुच यही तो हाल है…यह पढ़ा तो बहुत वर्ष पहले पढ़ी एक कथा का स्मरण हो गया,जिसमे अवकाशप्राप्त व्यक्ति को अनायास ही पहली बार डूबते सूरज का सुन्दर दृश्य दीखता है और वह अत्यंत उत्साहित हो सबसे इसका जिक्र करता है,परन्तु यह देख निराश हो जाता है की यह दृश्य किसी के लिए भी अहमियत नहीं रखता…

    बहुत ही सुन्दर पोस्ट…

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