कविता

कितना ओछा है आदमी

मेरे अवचेतन मन में

दफन है शब्दों का सागर

जब कभी चेतना आती है

मेरा मन भर लाता है

शब्दों की एक छोटी सी गागर।

जब मैं गागर को उलीचता हूँ

तो शब्दों के जल में मिलते है

सांस्कृतिक मूल्य,परनिंदा ओर

कल्पनाओं का सुनहरा संसार ।

सत्य धीरे-धीरे बन जाता है

कल्पनाजीवी शब्दों का जाल

जिसमें मनोरम शब्द धर्म-कर्म ओर

आदमी के प्यार, त्याग, विश्वास के

शब्द हो जाते है महाकार से पर्वताकार।

आदमी चक्कर लगाता है ब्रह्मांड के

विकास का पहिया थमता नही दिखता

चाँद तारे ओर ग्रहो की दूरिया नापकर

“पीव” आदमी ने भले जीत लिया हो जगत

पर संकृति ओर संस्कार की पताका

वह अपने मन पर अब तक नही लहरा सका

आदिम हब्बा का वंशज यह आदमी

आदिम भावों को नही जीत सका है ।

आज भी अवचेतन मन के शब्द सागर में

आदिम भावों को जीता है हर आदमी

पीव नैतिक मूल्यों का लबादा ओड़े

अवगुणों को अपने छिपाता है आदमी

एक गागर शब्दजल के दो शब्द टटोलने से

कितना ओछा है, उजागर हुआ आदमी ॥

शब्दसागर की असीम शब्द-गागरों में

कोटि-कोटि शब्द जन्म लेने की प्रतीक्षा में

सदियों से पल बढ़ रहे विगत की कोख में

ताकि कोई शुद्ध बुद्ध के अवतरित होने पर

उनके प्रज्ञावान अवचेतन से वे अज्ञेय शब्द

जगत के कल्याणार्थ जन्म ले उद्घाटित हो सके ।।

आत्‍माराम यादव पीव