पुराणों के अग्राह्य विधानों पर स्वामी दयानन्द व स्वामी वेदानन्द के उपदेश

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य का जीवन सत्य व असत्य को जानकर सत्य का पालन व आचरण करने तथा असत्य का त्याग करने का नाम है। परमात्मा ने मनुष्यों को वेदों का ज्ञान व बुद्धि सत्यासत्य के निर्णयार्थ वा विवेक के लिए ही दी है जिसका सभी को सदुपयोग करना चाहिये। जो नहीं करता वह मनुष्य संज्ञक कहलाने का अधिकारी नहीं है। सच्चे साधु, महात्मा, ऋषि व महर्षि सदा से अल्प बुद्धि व अविवेकी लोगों को अपने ज्ञान व अनुभवों से लाभान्वित करते चले आ रहे हैं। महर्षि दयानन्द व उनके शिष्य स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया है। आज इस लेख में स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का उपदेश प्रस्तुत है। वह कहते हैं कि ‘‘शैवों को पूर्ण निष्ठावान् शैव बनने के लिए अनेक व्रतोपवास करने पड़ते हैं। शैवों को ही क्यों , वैष्णव आदि सम्प्रदायों में भी व्रतोपवास का माहात्मय बहुत अधिक है। सच पूछो तो इन मतों के आचार्यों ने ऐसी व्यवस्था बांध दी है कि वर्ष के (365) दिनों से भी अधिक उपवास के दिन हैं। एकादशी का दिन तो सभी सम्प्रदायवालों (शैव, वैष्णव व अन्य) को उपवास के लिए इष्ट है। हां, कभी-कभी स्मार्तों (शैवों) तथा वैष्णवों की एकादशी का दिन एक नहीं होता। एक की दशमी तथा दूसरे की एकादशी, अर्थात् एक की एकादशी तो दूसरे की द्वादशी तिथि होती है। भाव यह है कि किस दिन एकादशी का व्रत होना चाहिए, इस विषय में भी यह साम्प्रदायिक परस्पर झगड़ा करते हैं। उसका स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थरत्न सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार चित्र खींचा है-‘देखों ! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार, आदित्यपुराण में रवि, चन्द्रखण्ड में सोमग्रहवाले मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के, वैष्णव एकादशी, वामन की द्वादशी, नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी, चन्द्रमा की पूर्णमासी, दिक्पालों की दशमी, दुर्गा की नवमी, वसुओं की अष्ठमी, मुनियों की सप्तमी, कार्तिक स्वामी की षष्ठी, नाग की पंचमी, गणेश की चतुर्थी, गौरी की तृतीया, अश्विनीकुमार की द्वितीया, आद्या देवी की प्रतिपदा, और पितरों की अमावस्या, पुराणरीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्नपान ग्रहण करेगा, वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिए कि वे किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन न करें, क्योंकि जो भोजन व पान किया तो नरकगामी होंगे। अब निर्णय-सिन्धु, धर्मसिन्धु, व्रतार्क आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं उन्हीं में एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी की शैव दशमीविद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद-विवाद ही करते हैं। जिसने एकादशी का व्रत चलाया है उसमें उसका स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। वे कहते हैं-एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति अर्थात् जितने पाप हैं वे सब एकादशी के दिन अन्न में बसते हैं। इन पोप जी से पूछना चाहिए कि किसके पाप बसते हैं, तेरे व तेरे पिता आदि के? जो सब के सब पाप एकादशी में जा बसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिए। ऐसा तो नहीं होता, किन्तु उलटा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इससे भूखे मरना पाप है। इसका बड़ा महात्म्य बतलाया है, जिसकी कथा बांच के बहुत ठगे जाते हैं। उसमें एक गाथा है कि–

 

‘‘ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उसने कुछ अपराध किया। उसको शाप हुआ कि वह पृथिवी पर गिरे। उसने बहुत स्तुति की कि मैं स्वर्ग में क्योंकर आ सकूंगी? उसको कहा कि जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जाएगी। वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहां के राजा ने उससे पूछा कि तू कौन है? तब उसने सब वृत्तान्त सुनाया और कहा कि जो कोई मुझको एकादशी का फल अर्पण करे तो मैं फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूं। राजा ने नगर में खोज कराई। कोई भी एकादशी का व्रत करनेवाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन-रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी थी। उस स्त्री ने कहा कि मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की, अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी ऐसा (उसने) राजा के सिपाहियों से कहा। तब तो वे उसको राजा के सामने ले आये। उससे राजा ने कहा कि तू इस विमान को छू। उस स्त्री ने विमान को छुआ, उसके छूने से उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह बिना जाने एकादशी के व्रत का फल है। जो जान (कर के एकादशी का व्रत करे तो उसके) फल का क्या पारावार है।

 

”वाह रे आंख के अन्धे लोगो ! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान की बीड़ी जो स्वर्ग में नहीं होती, वहां भेजना चाहते हैं। सब एकादशीवाले अपना फल हमें दे दो। जो एक पान का बीड़ा ऊपर को चला जाएगा तो पुनः लाखों-करोड़ों पान वहां भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा न होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरनेरुप आपत्काल से बचावेंगे। (पुराणों में) इन चैबीस एकादशियों का नाम पृथक्-पृथक् रखा है। किसी का धनदा, किसी का कामदा, किसी का पुत्रदा, किसी का निर्जला। बहुत-से दरिद्र, बहुत-से कामी और बहुत-से निर्वंशी (अर्थात् बिना सन्तान वाले) लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ। और ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में जिसमें यदि एक घड़ी भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है और व्रत करनेवालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेष-बंगाल में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई (व्रतों का विधान करने वाले) को लिखते समय कुछ भी मन में दया न आई। नहीं तो निर्जला का नाम सजला और पौष महीने के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम निर्जला रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम?‘ कोई जीवे या मरे, पोपजी का पेट पूरा भरो।’ किसी गर्भवती वा नवविवाहित स्त्री, लड़के व युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिए, परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा न लगे उस दिन शर्करावत् शर्बत व दूध पीकर रहना चाहिए। जो भूख में नहीं खाते और बिना भूख के भोजन करते हैं, वे तीनों रोग-सागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों (पुराणों में व्रतों के विधायकों) के कहने-लिखने का प्रमाण कोई भी न करे।” (सत्याथप्रकाश एकादश समुल्लास)

 

व्रत की निस्सारता दिखलानेवाला यह सन्दर्भ स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी ने ‘ऋषि बोध कथा’ में प्रसंगानुसार उद्धृत किया है। पुराणों में जहां व्रतों के बारे में इस प्रकार की स्वास्थ्य के लिए हानिकर का अनावश्यक कष्टदायक अनैतिहासिक मिथ्या व कल्पित कथायें वर्णित हैं वहीं उसकी अन्य सभी मान्यतायें भी विवेकशील पाठकों के लिए विचारणीय हैं। किसी बात को बिना सत्यासत्य का विचार किये स्वीकार कर लेना बुद्धि का अपमान है। पुराणों की तरह अन्य मतों में भी अव्यवहारिक व अनुपयोगी नाना प्रकार के विधान हैं। सभी मतों के विवकेशील लोगों को उनका आचरण करने के पहले अनेक बार उनके औचीत्य पर विचार करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक पुराणों के उपर्युक्त विधानों को सत्यासत्य व गुणावगुण की कसौटी पर कर कर सत्य को ग्रहण कर उसका अपने जीवन में व्यवहार करेंगे।

 

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