अकेले मोदी जी के चाहने से क्या क्या बदल सकता है

इक़बाल हिंदुस्तानी

भाजपा के और नेता व सरकारी मशीनरी उसी ढर्रे पर चल रहे है!

   पीएम नरेंद्र मोदी एक गठबंधन सरकार के मुखिया हैं। यह ठीक है कि उनकी पार्टी भाजपा को अपने बल पर भी बहुमत प्राप्त है लेकिन यह भी सच है कि यह बहुमत दिलाने में गठबंधन दलों का भी योगदान रहा है। यही वजह है कि अभी तक किसी खास मुद्दे पर भाजपा और घटक दलों में आरपार की खींचतान नहीं हुयी है लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिसमें पीएम चाहे कितना ही शक्तिशाली और योग्य हो वह अकेले पूरी व्यवस्था को न तो बदल सकता है और न ही चला सकता है। यह मानना ही पड़ेगा कि मोदी 30 साल बाद किसी बहुमत प्राप्त पार्टी के पीएम बने हैं। चुनाव से पहले गुजरात के विकास मॉडल की मीडिया में बहुत चर्चा रही थी जिससे उनको विकास के लिये लोगों ने इतना भारी सपोर्ट दिया है।

   कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से जीडीपी दर लगातार गिरने और महंगाई बढ़ने से लोगों का मोहभंग हो चला था साथ ही आरटीआई के ज़रिये एक के बाद एक घोटाले जब सामने आये तो यह लगने लगा था कि मनमोहन सरकार का भष्टाचार पर अपने बेलगाम घटक दलों की वजह से नहीं बल्कि खुद कांग्रेसियों की मनमानी के चलते कोई नियंत्रण नहीं है। इस बात का ख़याल मोदी को भी है इसीलिये उन्होंने अपनी सरकार को कुछ मामलों में बिल्कुल अलग तरीके से चलाने का फैसला किया है। यह मोदी की ही जीतोड़ कोशिशों का नतीजा है कि डब्ल्यू टी ओ में भारत की खाद्य सुरक्षा नीति को अमेरिका सपोर्ट देने को मजबूर हुआ जिससे हमारे देश के 85 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। भारत का कहना रहा है कि उसकी बड़ी आबादी गरीब है जिसको खाद्यान सुरक्षा मिलना बेहद ज़रूरी है।

   पाकिस्तान के मामले में भी मोदी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार ने जैसे को तैसा की मुंहतोड़ जवाबी नीति बनाकर उसकी सर्दियों से पहले फायर कवर देकर सीमा पर आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ लगभग नाकाम कर दी है। पड़ौसी देशों चीन, श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार और भूटान तक से आपसी रिश्ते यूपीए सरकार के मुकाबले एनडीए सरकार मज़बूत करने की लगातार कोशिश कर रही है लेकिन जहां तक देश के अंदर के हालात है वे कुछ खास बदलते नज़र नहीं आ रहे हैं। विदेशी मीडिया ने तो मोदी सरकार के 6 माह पूरे होने से पहले ही यह कहना भी शुरू कर दिया है कि मोदी सरकार विदेशी निवेश के लिये जो कुछ कह रही है उसका असर ज़मीन पर अभी कुछ खास दिखाई नहीं दे रहा है। इसकी वजह भी समझ में आती है कि अकेले मोदी के चाहने या ऐलान करने से हमारे देश की लेटलतीफ और भ्रष्ट व्यवस्था रातोरात बदलने वाली नहीं है।

   इस भ्रष्ट सिस्टम को भ्रष्ट बनाये रखने में ना सिर्फ नेताओं बल्कि अफसरशाही का भी निहित स्वार्थ छिपा है। मिसाल के तौर पर यूपीए सरकार के ज़माने में जनहित का एक कानून आया था-सूचना का अधिकार यानी आरटीआई। आप माने या ना मानें आरटीआई ने कई बड़े घोटालों को बेनकाब किया। इसका नतीजा यह हुआ कि घोटाले बाज़ इस कानून को ख़त्म करने या कमजोर करने में लग गये। आज हालत यह है कि मोदी की तमाम कोशिशों और पारदर्शिता की घोषणाओं के बावजूद अगस्त 2014 से सूचना का अधिकार आयोग का कोई अध्यक्ष ही नहीं है। इतना ही नहीं महाराष्ट्र में प्रेसीडेंट रूल के दौरान जब विधनसभा चुनाव हो रहे थे वहां के राज्यपाल ने एक आदेश जारी कर दिया कि सरकारी मशीनरी सूचना देने से पहले यह जांच करे कि सूचना का इस्तेमाल जनहित में ही होगा।

   आरटीआई कानून ऐसी कोई शर्त नहीं लगाता। ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि यूपीए सरकार आम आदमी और गरीबों के हित सबसे उूपर रख कर शासन चला रही थी क्योंकि उनका एजेंडा भी ट्रिंकल डाउन यानी विकास के फायदों के रिसकर सभी वर्गों तक पहुंचने का था। इसके लिये उनका एकमात्र लक्ष्य जीडीपी दर को लगातार बढ़ाने का प्रयास करना था। देश के धनी वर्ग को यूपीए सरकार से यह शिकायत रही है कि वह सरकारी धन राइट्स बेस्ट एप्रोच के ज़रिये गरीबों पर बेवजह और फालतू लुटाकर उनको निकम्मा बना रहा है। इसका सबूत वे मनरेगा से मज़दूरों का बिहार और बंगाल जैसे गरीब राज्यों से पलायन रूकने और उनका मजबूरन मेहनताना बढ़ाने को मानता था। मीडिया के ज़रिये मध्यवर्ग के सहयोग से इस सोच के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया गया।

   खासतौर पर कांग्रेस को भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ निशाने पर लेने के लिये इस तरह की गरीब समर्थक योजनाओं को चलाने का कसूरवार ठहराया गया था जिससे इसके केंद्र और राज्यों में बनी भाजपा नीत सरकारों पर इस बात का दबाव होना स्वाभाविक है कि वह यूपीए सरकार इन आम आदमी समर्थक नीतियों को पलटे। हालांकि यह इतना आसान नहीं है क्योंकि आम और गरीब आदमी की तादाद हमारे देश में इतनी अधिक है कि कोई भी सरकार उनको ख़फा करके जीतना तो दूर चल भी नहीं सकती। राजस्थान की भाजपा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के किसान समर्थक प्रावधानों को पलटने का काम शुरू कर दिया है। केंद्र के बाद सबसे पहले वसुंधरा सरकार ने ही श्रम कानूनों को मज़दूरों की बजाये उद्योगपतियों के पक्ष में मोड़ने का काम अंजाम दिया है। सरकारी अस्पतालों में प्रफी दवा का काम रोक दिया गया है।

   मनरेगा को केंद्र ने 200 ज़िलों तक सीमित करके इसका बजट कम कर दिया है। पर्यावरण सम्बंधी प्रावधनों पर इसके बाद भी ढील दी जा रही है कि केदारनाथ और कश्मीर की आपदा इसी नालायकी की वजह से आई थी। खाद्य सुरक्षा कानून हालांकि अभी तक लागू नहीं हो पा रहा है लेकिन इसी सोच का नतीजा रहा है कि भूख सूचकांक में भारत ने सात अंकों की छलांग लगाई है। आरटीई यानी शिक्षा का अधिकार कानून का परिणाम है कि प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश का आंकड़ा 95 प्रतिशत तक जा पहुंचा है। मोदी सरकार का सारा जोर विदेशी निवेश बढ़ाने और उद्योग व्यापार के लिये खुला मैदान बनाने का है लेकिन वह यह भूल रही है कि पेट्रोल डीजल को वह खुले बाज़ार के सहारे पहले ही छोड़ चुकी है और इंटरनेशनल मार्केट में इनके रेट घटने पर वह यूपीए सरकार की तरह अब इन पर एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाकर अपनी टैक्स वसूली बढ़ा रही है।

   साथ ही रसोई गैस के सिलेंडर 12 से घटाकर 9 करने के साथ ही वह उसकी सब्सिडी 20 रू0 किलो यानी 284 रू0 प्रति सिलेंडर फिक्स करने जा रही है। डीज़ल की तरह अप्रैल से गैस पर हर माह सब्सिडी कम करके वह उसको बाज़ार रेट पर बेचना चाहती है। ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे मोदी सरकार से आम जनता का मोहभंग हो सकता है।  

तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आना

मुझे ज़मीं के मसाइल पर बात करनी है ।।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

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  1. भाई इकबालजी, सरकार इस अफवाह का खंडन कर चुकी है कि गैस के सब्सिडी वाले सिलिंडरों कि संख्या १२ से घटाकर ९ किये जा रहे हैं.इनकी संख्या १२ ही बनी रहेगी.वैसे बेहतर तो ये होगा कि सभी स्थानों पर गैस की आपूर्ति पाईप लाईनों के जरिये हो जाये और हर घर को गैस का कनेक्शन मिल जाये.मीटर के हिसाब से फिक्स दर पर भुगतान हो.
    हर काम फ्री क्यों हो?क्या हम भीख मांगने की आदत छोड़ नहीं सकते हैं?सरकार पर क्यों निर्भर रहें?क्या हमें अपनी सामर्थ्य और शक्ति पर विश्वास नहीं है?केवल उनको छोड़कर जो निशक्त हैं, निराश्रित हैं,अपंग हैं आदि अपवादों को छोड़कर शेष लोग स्वावलम्बी क्यों न बनें?हरेक को रोटी,शिक्षा मिले यहाँ तक तो ठीक है लेकिन शेष सभी सुविधाएँ मुफ्त क्यों हों?

    • जिस देश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 80 प्रतिशत जनता 20 रु रोज़ पर गुज़ारा कर रही हो वहाँ सब्सिडी को रसोई गैस जैसी जीवन की बुनयादी ज़रूरत के लिए भीख नहीं कहा जा सकता। देश में भरष्टाचार लूटतंत्र और आर्थिक गैर बराबरी खत्म हो तो धीरे धीरे इस बारे में सोचा जा सकता है लेकिन ये काम तो मोदी सरकार के अजेंडे पर ही नहीं हैं
      पहले इंनकम टैक्स देने वाले लोगों को ही सब्सिडी से अलग करने की हिम्मत दिखाए सरकार तो ये सिलसिला सामर्थ लोगो तक बढ़ाया जा सकता है।

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