प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट के समर्थन में कॉन्ग्रेस का सुप्रीम कोर्ट पहुँचना क्या दर्शाता है!

                    रामस्वरूप रावतसरे

    मुग़ल शासन के दौरान कब्जाए गए मंदिरों को वापस लेने से रोकने वाले कानून प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट (पीओडब्ल्युए ) के बचाव में कॉन्ग्रेस पार्टी उतर आई है। उसने सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के समर्थन में एक याचिका दायर की है। कॉन्ग्रेस सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की वैधता पर चल रही सुनवाई में पक्ष बनने के लिए पहुँची है। कॉन्ग्रेस ने कहा है कि यह कानून देश में सेक्युलरिज्म बचाने के लिए जरूरी है। उसने कहा है कि यदि कानून में कोई बदलाव हुआ तो इससे देश का सेक्युलरिज्म खतरे में आ जाएगा।

    यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में कॉन्ग्रेस ने अपने वकीलों के माध्यम से दायर की है। याचिका में कॉन्ग्रेस ने कहा, “आवेदक प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट के संवैधानिक और सामाजिक महत्व पर जोर देने के लिए इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहती है क्योंकि उसे आशंका है कि इसमें कोई भी बदलाव भारत के मजहबी एकता और सेक्युलरिज्म को खतरे में डाल सकता है और इससे राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को खतरा हो सकता है।”

   कॉन्ग्रेस के अनुसार वह सेक्युलरिज्म को बचाए रखना चाहती है और जब कानून बना था तो लोकसभा में जनता पार्टी के साथ वह बहुमत में थी। कॉन्ग्रेस ने कहा क्योंकि कानून बनाने के लिए वह अपने सांसदों के माध्यम से जिम्मेदार थी, ऐसे में उसे सुप्रीम कोर्ट के भीतर इसका बचाव करने के लिए मौक़ा दिया जाए। कॉन्ग्रेस ने दावा किया कि इस कानून के विरोध में डाली गई याचिकाओं में गलत दावे किए गए हैं। कॉन्ग्रेस ने यह भी दावा किया कि इससे हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोगों के साथ कोई भेदभाव नहीं होता।

  कॉन्ग्रेस ने याचिका में कहा है कि, “याचिका में यह भी गलत कहा गया है कि प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप पक्षपाती है क्योंकि यह केवल हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध समुदायों के सदस्यों के लिए लागू है। प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट को देखने से ही पता लगता है कि यह सभी धर्मों के बीच समानता को बढ़ावा देता है और याचिका में बताए गए धर्म के लोगों से अलग व्यवहार नहीं करती है। यह सभी धर्मों के पूजा स्थलों के लिए समान रूप से लागू है और 15 अगस्त, 1947 के अनुसार उनकी स्थिति का पता लगाता है और उसे स्थापित करता है।”

    इस कानून को हिन्दुओं की तरफ से सुब्रमण्यम स्वामी, अश्विनी उपाध्याय और बाकी संगठनों ने चुनौती दी है। वहीं मुस्लिमों की तरफ से आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत ने याचिका दायर की है। इस मामले में नई याचिका ज्ञानवापी मस्जिद कमिटी ने दायर की है। उसका कहना है कि वह भी प्रभावित है। मुस्लिम चाहते हैं कि इस कानून के खिलाफ दायर की गई याचिकाएँ खारिज कर दी जाएँ और कानून को पूरी तरह से लागू किया जाए। उनका कहना है कि कानून के तहत अब किसी भी मुस्लिम मजहबी स्थल पर दावा नहीं किया जाना चाहिए।

वहीं हिन्दू पक्ष ने कहा है कि इस कानून के जरिए उन सभी धार्मिक स्थलों को कानूनी मान्यता दे दी गई जिनका स्वरुप 1947 से पहले बदल दिया गया था। हिन्दू पक्ष ने कहा है कि इस कानून की धारा 2,3 और 4 को रद्द कर दिया जाए। हिन्दू पक्ष ने कहा है कि कानून के चलते उन धार्मिक स्थलों को भी वह वापस नहीं ले सकते, जिनको आक्रांताओं ने तोड़ा था। हिन्दू पक्ष ने इस कानून को संसद में पास किए जाने का भी विरोध किया है। हिन्दू पक्ष का कहना है कि यह ऐसा कानून है जो लोगों को न्यायालय के दरवाजे खटखटाने से रोकता है ऐसे में यह असंवैधानिक है। हिन्दू पक्ष ने इसके अलावा कानून की संवैधानिकता पर भी प्रश्न उठाए हैं। इस मामले में को लेकर 12 दिसम्बर, 2024 को सुनवाई की थी। इसकी सुनवाई सीजेआई संजीव खन्ना की बेंच ने की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस सुनवाई में आदेश दिया था कि अब देश की अदालतों में कोई भी ऐसी याचिका स्वीकार नहीं की जाएगी, जिसमें किसी मजहबी स्थल की स्थिति को लेकर चुनौती दी गई हो। सुप्रीम कोर्ट ने प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट मामले में केंद्र सरकार से एक हलफनामा दायर करने को कहा था।

     पूजास्थल अधिनियम, 1991 या फिर प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट, 1991 पीवी नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली कॉन्ग्रेस सरकार 1991 में लेकर आई थी। इस कानून के जरिए किसी भी धार्मिक स्थल की प्रकृति यानी वह मस्जिद है मंदिर या फिर चर्च-गुरुद्वारा, यह निर्धारित करने को लेकर नियम बनाए गए हैं। इस कानून के अनुसार, देश के आजाद होने के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 को जिस धार्मिक स्थल की स्थिति जैसी थी, वैसी ही रहेगी। यानि इस दिन यदि कोई स्थान मस्जिद था तो वह मस्जिद रहेगा। कानून में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी धार्मिक स्थल का स्वरुप बदलने की कोशिश करेगा तो उसको 3 वर्ष तक का कारावास हो सकता है। इसी कानून में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति यदि किसी धार्मिक स्थल के स्वरुप के बदलने को लेकर याचिका कोर्ट में लगाएगा तो वह भी नहीं मानी जाएगी, यानी कोई भी व्यक्ति किसी मस्जिद के मंदिर होने का दावा नहीं कर सकता या फिर किसी मंदिर के मस्जिद होने का दावा नहीं किया जा सकता।

    कानून में यह भी स्पष्ट तौर पर कहा है कि यदि यह स्पष्ट तौर पर साबित हो जाए कि इतिहास में किसी धार्मिक स्थल की प्रकृति में बदलाव किए गए थे तो भी उसका स्वरुप नहीं बदला जाएगा, यानी यह सिद्ध भी हो जाए कि किसी मंदिर को इतिहास में तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी तो भी उसे अब दोबारा मंदिर में नहीं बदला जा सकता।

  कुल मिलाकर यह कानून कहता है कि 1947 के पहले जिस भी धार्मिक स्थल में जो कुछ बदलाव हो गए या फिर उस दिन जैसे थे, वह वैसे ही रहेंगे। उनके ऊपर अब कोई दावा नहीं किया जा सकेगा। इसी कानून में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को छूट दी गई थी। इस कानून में कई छूट भी दी गई हैं। यह कानून कहता है कि यदि किसी धार्मिक स्थल में बदलाव 15 अगस्त, 1947 के बाद हुए हैं तो ऐसे में कानूनी लड़ाई हो सकती है। इसके अलावा एएसआई द्वारा संरक्षित स्मारकों को लेकर भी इसमें छूट दी गई है।

                    रामस्वरूप रावतसरे

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