क्या उम्र कैद फांसी का विकल्प है ?

मनीराम शर्मा

फांसी की सजा के विषय में हमेशा से ही विवाद बना रहा है| कुछ उदारवादी लोगों का कहना है कि जब जीवन देना मनुष्य के वश में नहीं है तो जीवन लेने का अधिकार भी नहीं है | ऐसी परिस्थितियों में फांसी की सजा या मृत्यु दण्ड का औचित्य नहीं रह जाता है| किन्तु इस विषय का दूसरा पहलू यह भी है कि हमारे दण्ड कानून में भी बड़ी उदारता है और मृत्यु दण्ड केवल आपवादिक परिस्थितियों में ही दिया जा सकता है अर्थात मृत्यु दण्ड की सजा देने के लिए न्यायाधीश को पर्याप्त कारण बताने पड़ते हैं कि अमुक प्रकरण में मृत्यु दण्ड ही क्यों दिया जावे| भारतीय कानून में कारावास भुगत रहे व्यक्ति द्वारा जेल के स्टाफ पर प्राण घातक हमला करने पर मात्र फांसी की सजा का ही प्रावधान था किन्तु इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक ठराया जा चुका है| यह प्रावधान तो अंग्रेजों ने अपने हित सुरक्षित करने के लिए किया था|

फांसी की सजा की संवैधानिकता पर भी कई बार प्रश्न उठें हैं किन्तु इसे संवैधानिक ही ठहराया गया| इस प्रकरण का दूसरा चिंताजनक पहलू यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा फांसी की सजा को अंतिम कर दिए जाने के बाद राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर की जा सकती है और दया याचिकाओं को सरकार द्वारा रहस्यमय करणों से लंबे समय तक विचाराधीन रखा जाता है| इस अवधि में दोष सिद्ध व्यक्ति जीवन और मृत्यु के बीच संघर्षरत और संतप्त रहता है| राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका का अधिकतम ६ माह की अवधि में निपटारा कर दिया जाना चाहिए | अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह रह जाता है कि न्यायालय ने तो ऐसे व्यक्ति को मात्र मृत्यु दण्ड की सजा दी थी किन्तु सरकार और उसके अधिकारियों की अकर्मण्यता के कारण उसने लंबा कारावास अतिरिक्त भुगता है जो कि विधिसम्मत नहीं है | ऐसी स्थिति में इस अतिरिक्त कारावास के लिए जिम्मेदार अधिकारी की पहचान कर उस पर भी उपयुक्त कार्यवाही होनी चाहिए|

हमारे विधानमंडलों द्वारा समय समय पर भावुकतावश एवं सस्ती लोकप्रियता के लिए सर्वसम्मति से अनुचित निर्णय लिया जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है| मैंने विदेशी कानूनों एवं विदेशी विधायिकाओं के कृत्यों का भी अध्यन किया है| दुर्भाग्य से हमारे राजनैतिक चिंतन में गंभीरता का अभाव है और यहाँ वोट बैंक की राजनीति का स्थान राष्ट्रीय हित से ऊपर रहता है| पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने “पायोनियर” को दिए गए एक साक्षात्कार में भी कहा था कि विधायी कार्य को जिस सीमा तक सक्षमता या प्रतिबद्धता से करना चाहिए न तो संसद, न ही राज्य विधान सभाएं कर रहीं है। उनके अनुसार, कुछ अपवादों को छोड़कर जो लोग इन लोकतांत्रिक संस्थानों के लिए चुने जाते है, वे औपचारिक या अनौपचारिक रूप से विधि-निर्माण में न तो प्रशिक्षित हैं और न ही अपने पेशे में सक्षमता और आवश्यक ज्ञान का विकास करने में प्रवृत प्रतीत होते हैं। समाज के वे लोग जो मतदाताओं की सेवा में सामान्यतः रूचि रखते हैं और विधायी कार्य कर रहे हैं, आज की मतदान प्रणाली में सफलता प्राप्त करना कठिन पाते हैं और मतदान प्रणाली धन-बल, भुज-बल और जाति व समुदाय आधारित वोट बैंक द्वारा लगभग विध्वंस की जा चुकी है। श्री वाजपेयी के अनुसार शासन के ढांचे में भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र के सार-मताधिकार- को ही जंग लगा दिया है ।

तमिलनाडु विधान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव को भी इसी श्रेणी में माना जा सकता है| कुछ समय पूर्व पंजाब विधान सभा द्वारा सर्वसम्मति से अन्य राज्यों को पानी नहीं देने का प्रस्ताव पारित किया गया था| किन्तु एक तरफ पंजाब का पडौसी राजस्थान जैसा राज्य है जहाँ पीने के पानी का संकट है और दूसरी ओर पंजाब अपनी खेती के लिए सारा पानी उपयोग करना चाहता है| संविधान के अनुसार भी जल राष्ट्रीय सम्पदा है| मात्र संवैधानिक ही नहीं मानवीय दृष्टिकोण से भी किसी को पेय जल से वंचित करना न्यायोचित नहीं है |

समाज में स्थिरता बनाये रखने के लिए सजा दिया जाना भी आवश्यक है अन्यथा दण्ड के भय बिना सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी और अराजकता अपने पांव पसार लेगी|यदि बड़ा दण्ड किसी को दिया ही न जाये तो छोटे अपराधी भी गंभीर अपराध करने को प्रवृत और लालायित हो सकते हैं| इसी प्रकार गंभीर और खूंखार अपराधियों जिनमें सुधार की संभावनाएं नगण्य हैं को मृत्यु दण्ड दिया जाना उचित ही है | मृत्यु दण्ड सबसे बड़ा दण्ड है अतः समान रूप से यह भी आवश्यक है कि गंभीर अपराधियों को बड़ा दण्ड दिया जाये चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, संप्रदाय या स्थान का निवासी हो अन्यथा छोटे और बड़े अपराधी दोनों को यदि समान दण्ड दिया जाता है तो यह कानून के समक्ष समानता और अनुच्छेद १४ का सपष्ट उल्लंघन होगा |

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