क्या संस्कृत देववाणी है?

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डॉ. मधुसूदन 

जब पूछनेवाले ऐसा प्रश्न पूछते हैं, तो उत्तर देने के पूर्व मैं उन्हें  ही विनम्रता-पूर्वक पूछता हूँ, कि, संस्कृत को देववाणी मानने के लिए आप किस प्रकार का प्रमाण  चाहते हैं? 

इस  आलेख के पाठक भी रुक कर एक स्वीकार्य प्रमाणों की सूची बना ले। 

किसी  विद्वान का उद्धरण ? पाणिनि, यास्क-निरुक्त-निघण्टु में उल्लेख?

मंत्र दर्शन का प्रमाण ? क्या चाहते हैं आप?   

शास्त्रों में उल्लेख? वा संस्कृत की सर्व-गुण सम्पन्नता ?
  आप क्या  चाहोगे, 
वा क्या मानोगे ?

मेरा मानना आप के काम नहीं आएगा।  

इस संदर्भ में एक विचारक ने लिखा है, कि, ’We don’t see things as they are, we see them as we are.’—-Anais Nin अर्थात: ’हम वस्तुओं (तथ्यों) को वे जैसी हैं, वैसे नहीं,(पर) जैसे  हम हैं वैसे देखते हैं।’-Anais Nin

(दो: मेरा अध्ययन:) 

फिर भी, मेरे अध्ययन में  जो तथ्य सामने आए हैं, रखे जा सकते हैं; मैं उनका  संदर्भित आधार भी दे सकता हूँ। मैंने तथ्यानुसंधान किया है। तर्क के निकषपर संस्कृत को परखने की चेष्टा की है।पर मेरे मत का स्वीकार  वा अस्वीकार, तो आप ही को  करना होगा। 

(तीन: पूर्वाग्रह-मुक्त मानसिकता:) 

आपकी बुद्धि का वा मस्तिष्क का भाँडा  पूर्वाग्रहों  की जूठन से मुक्त और स्वच्छ होगा, तो, मेरी ओर से डाला हुआ शुद्ध  वैचारिक जल काम आएगा। नहीं तो आपके भाँडे पर चिपकी जूठन पर ही आप जुगाली करते रहेंगे।

इस लिए,पूर्वाग्रह मुक्त हो कर पढिए, चिंतन कीजिए, और  प्रश्न हो, तो पूछिए। 

आप को  सादर (आदर सहित)उत्तर दिया जाएगा। मेरे द्वारा लिखे गए  (९०+) आलेखों का संदर्भ दर्शाया जाएगा। आपका अनादर नहीं होगा। उत्तर मेरी जानकारी की परिधि में होगा। जानकारी ना होनेपर उसकी स्वीकृति करने में हिचकूंगा नहीं। 

(चार: आप की मानसिकता:)

पर जैसे इंगित किया ही है, आपका स्वीकार भी आपकी जानकारी और अंततोगत्वा आप की अपनी मानसिकता पर भी निर्भर रहेगा। मैं प्रामाणिकता से इतना अवश्य कह सकता हूँ, कि, निम्न तथ्य  मात्र, मेरी  स्वयं की  गवेषणा  का निचोड है। 

मैं भी संस्कृत को देववाणी मानकर अध्ययन में प्रवृत्त नहीं हुआ था। 

विशेष फिरसे दोहराता हूँ। ध्यान में रहे कि, 

We don’t see things as they are, we see them as we are.—-Anais Nin

हम वस्तुओं को वे जैसी हैं, वैसे नहीं,(पर) जैसे  हम हैं वैसे देखते हैं।–Anais Nin

जो आप की दृष्टि को  धूमिल कर देता है। 

प्रश्न पूछा जाता है, कि……

(पाँच:, मैंने अध्ययन क्यों किया?)

क्योंकि मुझे  भारतीय (प्रादेशिक भाषाओं में ) पारिभाषिक शब्दों की रचना करनी थीं। और जैसे  मैं संस्कृत अध्ययन में, गहरा उतरता गया, संस्कृत का भक्त बनता ही गया। यह इतना सरल नहीं था। क्योंकि  व्यवसाय से मैं अभियांत्रिकी का  सफल प्राध्यापक था। अपनी उपलब्धियों को गिनाना अनुचित होगा। पर बार बार पूछा जाता है, इस लिए कह देता हूँ, और बिना किसी अहंकार कहता  हूँ, कि, मैं  गुजरात से स्वर्णपदक विजेता अभियांत्रिकी  का छात्र रहा था। और पी.एच. डी. के बाद अमरिकन सोसायटी ऑफ सिविल इन्जीनियर्स  ने मुझे दो बार चीन जाने वाले डेलिगेशन में चुना (पर जा नहीं पाया)  था। न्यु योर्क  वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर की डिज़ाइन में मैंने  २०+ अभियंताओं के साथ काम किया था। नुवर्क (New Jersey) के इन्टर-नॅशनल एयर पोर्ट की डिज़ाइन में भी मेरा व्यावसायिक योगदान हुआ था। 

 मॅसॅच्युसेट्स विश्व विद्यालय मे निर्माण अभियांत्रिकी पढाने का दशकों का अनुभव है। कुछ  प्रतिष्ठित संस्थाओं की ओर से पारितोषिक और प्रमाण पत्र भी मिले हैं और सम्माना भी गया हूँ। 

कहनेका तात्पर्य मेरी सोच  और अभिगम विज्ञान लक्ष्यी  रहे थे।

साथ साथ यह भी सच्चाई है, कि, मैं भारतीय संस्कृति और  भाषा संस्कृत से युवाकाल से प्रभावित  हूँ।

आवश्यक सच्चाइयाँ कुछ  आगे के, आलेखों में  भी, पाठकों के प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य़ में  संभवतः प्रस्तुत   करूँगा।

पर भविष्य में प्रश्न आप  (पाठकों )ने ही उठाने होंगे।

जिन पाठकों ने आज तक मेरे द्वारा लिखे गए ९०-९५ भाषा विषयक आलेख (कुल आलेख २०० +) पढे होंगे, उन्हें शायद ही संदेह की संभावना हो। 

(छः, अंग्रेज़ी के श्रद्धालुओं के प्रश्न:)

कुछ अंग्रेज़ी के श्रद्धालु प्रश्न उठाते हैं।

कुछ संस्कृत को  जाने बिना ही विरोध करते हैं। 

ऐसा करना गलत मानता हूँ। किसी भाषा को जाने बिना ही उसका विरोध?

मैं अंग्रेज़ी जाने बिना उसका विरोध नहीं करता। यदि करता तो आप क्या कहते?

पर आज, मैं भारत के हित में  पूरे अध्ययन के उपरांत अंग्रेज़ी का  विरोध करता हूँ।

पर भारत की उन्नति के लिए  कुछ अंग्रेज़ी और अन्य ५-६ परदेशी भाषाएँ  शोध के लिए मर्यादित मात्रा में, आवश्यक मानता हूँ। पर इस विषय पर काफी लिख चुका हूँ। एक ’शब्द भारती’नामक ६८ आलेखों की पुस्तक प्रकाशन की प्रक्रिया में है। उसी में व्यस्तता के चलते मेरे लेखन में  व्यत्यय  भी हुआ। 

पर इस आलेख में मात्र प्रधानतः’देववाणी -संस्कृत ’ विषय पर लक्ष्य केंद्रित होगा।

और गौण रूप से संस्कृत प्रचुर एवं संस्कृत निष्ठ हिन्दी का पुरस्कार। 

जिस विषय मैंने अध्ययन  किया है, और  मैं स्वयं निश्चित और दृढता पूर्वक मानता हूँ कि भारत की  क्रान्तिकारी प्रगति की कुंजी संस्कृत और संस्कृत्निष्ठ हिन्दी ही है। 

 मैं संस्कृत के प्राथमिक स्वाध्याय पर ही प्रभावित  हुआ।  

ऐसा  स्वयं के अध्ययन का निचोड मैंने मेरे आलेखों में प्रस्तुत किया है। 

बिना अध्ययन संस्कृत या हिन्दी का विरोध करनेवाले मित्र मिलते हैं। उन लोगों का

अंग्रेज़ी का प्रेम संस्कृत और हिन्दी जाने बिना ही अंध प्रेम होता है। मैं बहुसंख्य अंग्रेज़ी के भक्तों को 

मौलिक नहीं पाता। पर आप को निरुत्साह नहीं करना चाहता।

मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ। प्रश्न उठाना आप पाठकों का उत्तरदायित्व है। 

उत्तर देने में पहले से लिखित आलेख पढने का सुझाव दिया जा सकता है। और आप शायद ही  मेरे आलेखों में परस्पर विसंगति पाएंगे।

(सात)

नितांत स्पष्ट तथ्य :

जितनी भाषाओं के विषय मैंने पढा है,  उन सब में संस्कृत सर्व श्रेष्ठ प्रतीत होती है। विश्व के भाषा वैज्ञानिकों ने संस्कृत को इस संसार में अतुलनीय माना है। संस्कृत  सभी भाषाओं की तुलना में, सर्वगुण सम्पन्न है।

क्या प्रमाण दिए जा सकते  हैं? 

(१)संस्कृत के गुणों को दर्शाकर जो असामान्य हैं।

(२)ऐतिहासिक प्रमाण जैसे कि  निरुक्त, निघण्टु,पाणिनि के उद्धरणों से।(३) और वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति में भरे हुए वैज्ञानिक अर्थों से। 
(४) संस्कृत के अर्थवाही शब्द रचना की सूत्रात्मकता से।
इससे अधिक क्या कहा या किया जा सकता है?आप टिप्पणी कर सकते हैं।

अस्तु।

8 COMMENTS

  1. डॉ. मधुसूदन जी,
    यद्यपि सहेतुक लोग सवाल कर सकते हैं, क्या संस्कृत देववाणी है, उसका उत्तर आपने सात बिंदुओं में यथार्थ स्पष्ट कर दिया है कि, यः पश्यति स पश्यति के सूत्र के अनुसार, मानने वाले के लिए और यथार्थ देखने वाले के लिए होँ, संस्कृत देववाणी है. अब इन सात बिंदुओं से अधिक कहना लिरर्थक है.

    रत्नाकर

    https://books-india.com/

  2. संस्कृत एक प्राचीन भाषा हैं जिसका सम्बन्ध विष्व की भाषाओ से हैं जिन लोगो को इस तथ्य का ज्ञान हैं बह लोग संस्कृत और भारत का सम्मान की दृश्टि से देखते हैं। संस्कृत विश्व की एक श्रेष्ट भाषा हैं और भारतीय लोगो को इस बात पर गर्ब होना चाहिए। संसार के कई देश संस्कृत को अपनी भाषा के साथ जोड़ते हैं। यह वात भारतीय लोगो के लिए सम्मान की बात हैं। हर भारतीय को संस्कृत भाषा सीखनी चाहिए और संस्कृत भाषा का प्रचार और प्रसार करना चाहिए। भारतीय लोग संस्कृत भाषा के साथ साथ हिन्दू धर्म का भी प्रचार और प्रसार कर सकते हैं। कुछ लोग संस्कृत को एक मृत भाषा समझते हैं और संस्कृत भाषा सीखना नहीं चाहते। ऐसे लोग ज्ञानी नहीं हैं और भारत की संस्कृति के द्रोही हैं। विश्व के कई विद्वान लोग संस्कृत को एक सम्पूर्ण भाषा और एक महान भाषा मानते हैं किन्तु भारत में इस भाषा को कोई महत्ब पूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हैं। अब योग को विश्व के कई देशो ने अपना लिया हैं जिस के कारण संस्कृत श्लोको का प्रचलन भी कुछ हद तक बढ़ गया हैं। जब लोग इन श्लोको को सुनते हैं तो उन्हें शान्ति का अनुभव होता हैं। संस्कृत एक सम्पूर्ण भाषा हैं जिसकी तुलना में अंग्रेजी एक अपूर्ण भाषा हैं।
    भारत के बहुत से लोग यह तर्क देते हैं के अंग्रेजी को भारत में हमेशा के लिए एक महत्व पूर्ण स्थान दिया जाये और प्रत्येक भारतीय को अंग्रेजी सीखनी। चाहिए। जब हांगकांग स्वतंत्र हुआ था। तब अंग्रेजी को हटा कर केंटोनीज़ भाषा अपना लिया। कुछ सर्वक्षणों के अनुसार अंग्रेजी की शिक्षा के कारन बच्चो पर बहुत बोझ पड़ जाता हैं। आजकल एक बात का प्रचलन बहुत हो गया हैं के हर प्रकार का संचार माध्यम के लोगो ने हिंदी में अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर दी हैं. यह बहुत आबश्यक हैं के लोगो के मनो से धारणा दूर की जाये के संस्कृ एक मृत भाषा हैं और उन्हें अंग्रेजी भाषा सीखना चाहिए। नाशा ने विश्व के कई भाषाओ का अध्यन किया था यह जानने के लिए के कोनसी भाषा पूर्ण हैं और कंप्यूटर के लिए उपयुक्त हैं। विश्व की समस्त भाषाओ में केवल संस्कृत कंप्यूटर के लिए उपयुक्त पाई गई. लोगो की मांग पर सरकार ने कुछ संस्कृत विश्वविद्यालया बनाये लेकिन बहा के अधिकारियो की कांग्रेस मनोबृति के कारन संस्कृत का प्रसार और प्रचार करने की वजाऐ सरकारी ख़र्चे पर बिदेशो में घूमने मं पैसो को बर्बाद किया. भारत सरकार को चाहिए के बह भारत के प्रत्येक विद्यालय में संस्कृत पढाने की व्यबस्था करे और संस्कृत भाषा की शिक्षा की सुबिधा उपलब्ध की जाये. डॉ. मधुसूदन जी हमेशा संस्कृत, शुद्ध हिंदी के पक्ष में कई लेख लिखे हैं क्या संस्कृत देववाणी है लेख में संस्कृत के वारे में काफी जानकारी दी हैं।

  3. “OM’

    JUNE 16 2019

    Happy Father day!!!!

    Your article about “Glory of Sansastrit” is really tremendously scholarly & valuable…
    We really enjoyed reading the article.

    Sanskrit is DEV BHASHA– as, all our Vedas are in San-Sanskrit language..
    Your great command on many languages is very very outstanding..
    You really are a Gyani purush/person!!!

    It is our privilege to have intimate association with you & your family
    We feel we are very lucky.
    .
    With Best Wishes

    Yours affly,

    Savitaben & Prabhakarbhai

  4. I read the complete article on Pravakta.

    Someone may question, “what do you mean by DevaBani”, The answer could be, it is mentioned/used in ancient literature (which include Veda’s, Puranas, etc., and those are the ocean of knowledge and are recognized by the entire humanity. No body knows what ‘Deva’ mean, like most people acknowledge God but no one knows who the God is.

    Truly,
    Hari B. Bindal, PhD, P.E.

    Recipient, ‘Pravasi Bharatiya Samman’ and ‘Pravasi UP Ratna’ Awards,
    Founder, ‘American Society of Engineers of Indian Origin (ASEI),
    Commissioner, PG’s County, Solid Waste Advisory Committee,
    Served, Numerous Indian-American Organizations,
    Engineer, Poet, Writer, and Social Activist,
    Retired, US Dept of Homeland Security.

  5. Dear Madhu Bhai,

    …………………………………….

    (Whatever I understood)…

    I do agree with you that Sanskrit is the mother of all languages. I am not a scholar of Sanskrit. But whatever I remember from grade school, Sanskrit is very mathematically spoken and written. It is rich with vocabulary and it is a language of poetry. So I truly believe it is after all

    देववाणी!

    Jyoti

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