पापा के आँगन की थी मैं भी महकती कली
पढ़-लिखकर सपने अपने पूरे करने थी चली
फिर क्या कसूर था मेरा कि
सजा मुझे इतनी भयंकर मिली ?
किसी की नाजायज ख्वाहिशों का हिस्सा नहीं बनना
या अपने लिए अपने हिसाब की ज़िन्दगी चुनना
या दोष था मेरा समाज में बेटी बनकर पलना
पता तो चले मुझे कि क्या थी मेरी खता ?
कौन पोछेंगा मेरे बाबुल के आँसू
आज तू मुझे यह तो बता।
मेरी माँ ने भी कुछ सपने संजोए थे
सुनहरे भविष्य के लिए मेरे कुछ मोती पिरोए थे
क्यों तूने उस माँ को बिलखता छोड़ दिया
बिन खता के ही ज़िन्दगी से मेरा नाता तोड़ दिया।
जीने की थी मेरी भी आशा-अभिलाषा
पर किसी की नाजायज चाहतों ने
एक पल में बदल दी मेरी आजादी की परिभाषा।
कुछ ही समय गुजरा जब
आजादी का अमृत महोत्सव हमने मनाया है
फिर इस आजाद देश में समाज ने
हम बेटियों को क्यों बिसराया है ?
क्या आजादी का हमें अधिकार नहीं है
या प्रगति हमारी तुम्हें स्वीकार नहीं है ?
यह एक ‘अंकिता’ नहीं देश की हर बेटी का दर्द है
क्यों हमारी स्वतंत्रता से समाज को इतना कष्ट है ?
रूह सिहर उठी थी मेरी आग की लपटों से
जीने का अरमान तब भी बाकी था
पर हार गई समाज-राजनीति के कपटों से
जीवन-लीला हुई समाप्त मेरी
घर में मेरे अँधियारा छाया है
सूनी कोख हुई जननी की
पिता-भाई ने अंतिम बार
मुझे गले लगाया है
क्या मिलेगा मुझे इंसाफ कभी
क्यों समाज ने आज भी मौन पसराया है ?